पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५०

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उताहल' उत्काल बोलाई । मूर स्याम दुहि देन कयो, सुनि राघी गई मुसुकाई । उत्कठित--वि० [९१कप्ठिता ] उत्कः युिक्त । उत्सुक । उत्साहित। -सुर०, १० । ७२८ । (क) ग्राजु अकेली उतावली हौं पहुंची चाव से भरा हुआ । तट ल तुम अाई करार मे । बालसखीन के हा हा उत्कंठिता--सजा बी० [सं० उत्कण्ठिता] सके त स्थान में प्रिय के न किए मन कैटू दियो जल के लि विहार में 1--सुदरीसर्वस्व । अाने पर वितर्क करनेवाली नायिका । जैसे, नभ लाली चाली ( शब्द॰) । निसा, चटकीली धुनि कीन, रति पाली झाली, अन्त आए उताल --क्रि० वि० [हिं० उतावल ] शीघ्रता से ! तेजी से । वनमाली न – बिहारी र०, दो ११५ । । चपलता से । ३०-गुरु मेहदी सेवक मैं सेवा, चले उताले उत्कदक--संज्ञा पुं॰ [ स० उत्क्न्द क ] एक प्रकार का रोग ]ि । जेहिकर वेव। -जायसी (शब्द०)। उत्कघर--वि० [ स० उत्कन्धर ] ऊपर गर्दन किए हुए (को॰] । उताहला --वि० उतावला । उत्कंधर--संज्ञा पुं० गर्दैन ऊपर करना [को०' । उताहिल --[ हि० ] दे॰ 'उतावल' । उत्कप- सज्ञा पुं० [ स० उत्कम्प ] कॅपके ।। उतिपत्ति- सज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे॰ ‘उत्पत्ति' । उ०-दीपमालिका उत्क--वि० [सं०] १ इच्छा रखनेवाना। १ दु बुदै । कष्टप्र' । उतिपत्ति सव व है सुनाऊँ तोहि ।-पृ० ० २३।२।। ३ भूलनेवाला [को०)। उतिम--वि० [सं० उत्तम] दे० 'उत्तम' । उ०-एहि रे दगध हत उत्क--संज्ञा पुं० १ इच्छा अवसर को०] । | उतिम मरीजै ।—जायसी ग्र०, पृ० १०६ ।। उत्कच- सज्ञा पुं॰ [सं०] १ हिरण्याक्ष के नौ पुत्रों में से एक । उतिमाहौG)-क्रि० वि० सं० उत्तम ] उत्तम । श्रेष्ठ । उ०-- २ परावसु गवे के नो पुत्रो में से एक ।। चपावति जो रूप उति माह, पदमावति कि जोति मन छाह। उत्कच--वि० १ खडे बालोवाला । २ गज (को॰] । -जयमी ग्र० (गुप्त), पृ० १५३ ।। उत्कट--वि० [सं०] तीव्र । निकट । कठिन । उग्न । प्रचइ । दु सह । उतू-सज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'उत्त'। उ०-चोली चुनावट चीन्हे चुभे चपि प्रबल । उ॰— तथापि दुमरो को उत्कट कीति से इसमे ईप | होन उजागर दाग उनू के ।--पानद, पृ० ४७ । होती है ।-भारतेंदु ग्रय, मा० १, पृष्ठ २६३ ।। उतृण - वि० [ सं० उद्+तीर्ण ] १ ऋण मुक्त। उऋण । उत्कट?--सज्ञा पुं० [सं०] १ मूज । २ ईख । गन्ना। ३ दालचीनी अनृण । उ०--हाय फिस भौति उस पिता के धर्म ४ तेज। तेजपाता ।। ऋण से उतृण होऊ ।--1ोताराम ( शब्द०)। २ जिसने उत्कटा-सज्ञा स्त्री॰ [ स० ] से ही लता को०] । उपकार का वदला चुका दिया हो । उ०--प्राप अपना प्राधा उत्कर--संज्ञा पुं० [ स ० ] राशि 1 ढेर को०] । धन भी उसको दे देवें तव भी उसके ऋण से उतृण नही । उत्कर्कर---सज्ञा पु० [ सं ० ] एक प्रकार का बाजा [को॰] । हो सकते ।--शिवप्रसाद ( शब्द० )। उत्क-वि० [ स० ] १ कान खड़े हुए । २ उत्सुक । ( किसी उतृन?--सज्ञा पुं० [ हि० ] दे॰ 'उतृण' । उ०-पल में उतृन बात को सुनने के लिये ) [को०] । नया, मोर दोस जिन देय --पलटू० बानी०, मो० १, उत्कर्णता--सज्ञा स्त्री॰ [ सं ० उत्कर्ण ] उत्सुकता । उ०--देख भाव- | प्रवणता, वरवर्णता, वाक्य सुनने को हुई उत्कर्णता --साकेत, उतै --क्रि० वि० [हिं० उत ] वहाँ । उच्चर । उस ओर । उ० पृ० ६६ ।। खेलत खेल सवानि में उत घरि अवगाह, पलक न लागत एक उत्कर्तन - संज्ञा पुं० [ स० ] १ काटना । २ फाड डालना । ३ पल इत नाह मुख चाहि --मतिराम ग्र०, पृ० ४४६ । | उन्मूलन झिो०] । उतैला' -क्रि० वि० [हिं० 1 दे० 'उतावला' । उत्कर्ष--संज्ञा पुं० [सं०] १ बडाई । प्रशस। २ श्रेष्ठतः । उत्तमता । उतेला-सूज्ञा पुं॰ [देश॰] उर्ज । माप । अधिकता । बढ़ती । उ०—-भले की भलाई और बुरे की बुराई उत्कृठ'- वि० [सं० उत्कृष्ठ] १ ऊपर गर्दन किए हुए । २ तैयार । दिखलाकर एक का उत्कर्ष और दूसरे का पतन दिखलाया जाता उद्यत । ३ उत्कठायुक्त । उत्कठित [को॰] । है --रस क०, पृ० २७ । उत्कठ- संज्ञा पुं० रतिकर्म का एक शासन को] । उत्कर्पक-- वि० [ सु० ] उत्कर्प की जोर से ले जानेवाला । उत्कर्ष- उत्कठा-सज्ञा स्त्री० [सं० उत्कण्ठा ] १ प्रबल इच्छा। तीव्र | दायक (को॰] । अभिलापा । सलिना । चाव। ६ रस में एक सचारी का उत्कर्पता--संज्ञा स्त्री॰ [ स०] १ श्रेष्ठता । वडाई । उत्तमता । २ नाम । किसी नाम मे विलव न सहकर उसे चटपट अधिकता 1 प्रचुरता । ३ समृद्धि । करने की अभिलापा । जैसे, फिरि फिरि बूझति, कहि कहा उत्कषित-वि० [सं०] उत्कर्ष प्राप्त । उत्कर्ष को पहुचा हुअा। उ०- को साँवरे गात, कहा करत देखे, कहाँ अाली चली क्यों उसे ज्ञात था, लोहे को है गुण विधि से अपित। निम्न सार से बात -विहारी , दो० २१९ । | यह सुवर्ण में हो सकता उत्कंपित I-दैनिकी, पृ० २३ । उत्कठीतुर-वि० [ मं० उत्कष्ठा+अातुर 1 तीव्र इच्छा की पूर्ति के उत्कर्षी–वि० [ स० उत्र्कापन् I दे० 'उत्कर्षक' (को०] । दिये अातुर । उत्कल-सज्ञा पुं० [सं०] १ एक देश जिसे अब उडीसा कहते हैं। हुँए । ३ तैयार । कठायुक्त । उत्कठिन