पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४९८

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कुसवैहं। वर्ष भर मे बीतती है वै एक युगक फहनाते हैं । कही कही, जैसे कुसीदजीवी-सी पुं० [सं० बुसीयजीविन्] मूद पोर (को॰) । चीन में, ऐसे कीड़े भी पाए जाते हैं जिनकी वर्दै भर में दो कुसौदपथ- सज्ञा पुं॰ [सं०] १ सुद पर रुपया देना । २ व सूद या पीढ़ियाँ हो जाती हैं । ऐसे कीड़ो को द्वि युगक कहते हैं । बहुत 59 जि जो ५ प्रतिशत से अधिक हो (को०)। ३ न्याज । से देशो मे युगक और चतुयुगक कीड़े तक मिलते हैं। सूद [को०' ।। विशेप दे० 'रेशम' ।। कुसीदवृद्धि--सज्ञा स्त्री० [सं०] ऋण है। दयान ० । २ रेशम का कोय । उ०—अरे ही पलटू कुसवारी में कीटहि कुसौदा--सा धी० [सं०] ऋण देने वाली स्त्री । दयाज पर रुपया | चारा देत है ।- पलटू, पृ० ६८।। | देने वाली है । (को॰) । कुसवाहा-सा पु० [हिं०] हिदुप्रो मे तरकारी, सब्जी आदि पैदा कुसीदायी--संज्ञा स्त्री' [स०] महाजन की या व्याज पर रुपए करने वाली जाति । कोइरी ।। | देनेवाले की पत्नी ने। कुसाँव--सञ्ज्ञा पुं० [सं०कुशाम्ब] दे॰ 'कुशव' । कूसीदिक-वि०, सज्ञा पु० [सं०] सुट पर रुपया देने वाली । महाजन । कुसा इत- सज्ञा स्त्री० [सं० कु+अ० सायत] १. बुरी सातु । बुरा कुसीदी-वि०, सन्नी पुं० [सं० फुसी दिन] मह' जन य' सूदखोर [को॰] । मुहूर्त । कुसमय । उ०--न जानिये ग्राज किस कुताइत मे घर कुसनार-सज्ञा पुं० [हिं॰] दे॰ कुशीनर' ।। से निकले कि हाथ गरम होना कसा, एक फूटी झझी से भी कुसु व संज्ञा पुं० [सं० कुसुम्भ या कुसुम्बक ] एक बड़ा वृक्ष जो भेट न हुई --सौ अजान० (शब्द॰) । २. अनुपयुक्त समय। भारत, वरमा और चीन में होता है ।। वेमौका । विशेष—इसकी लकडी वडी और मजबूत होती है और कोल्हूं। कुसखी -सञ्ज्ञा पुं० [सं० कु + शालिन् = वृक्ष] बुरा पेड । कुवृक्ष । का जाठ और गाडियो बनाने के काम में आती है। इसकी उ०-- सेठ सुधरे सतसग ते, गए बहुत बुध भाखि | जैसे मलय लाख बहुत अच्छी होती है और एधिक दामो पर बिकती है। प्रसग ते चंदन होहि कुसाबि !---दीनदयालू (शब्द॰) । इसके फल खाए जाते हैं और बी से तेल किना है, जो कुसाद--वि० [हिं० कुशावा] दे० 'कुशादा' । उ०—देवे मैहे कुसाद जलाने, खाने और अपध के दाम में आता है। इसकी खाये मे तग हैं ।-पलट०, पृ० ७७ ।। पत्तियाँ ८-१० अगुल लबी होती हैं और सीके में दो दो कुसारी--सच्चा स्त्री० [हिं० कुसवारी] दे॰ कुसवारी ।। अरमने सामने लगती हैं। फूल चपा के फूल के रंग के होते हैं। कुसावqf-सज्ञा पुं० [सं० क्वच्छ ] कुच्छाब । फच्छी घोडे । ० इसमें दो अगुत लवे, नुकीले, चिकाने फल लगते हैं जो क्वारे गज्जनेस प्रवदेश सहि पल्लान फुसावं ।—पृ॰ रा॰ (उ०), कातक में पकते हैं । जहाँ ये पेड अधिक होते हैं, जैसे अवध में पृ० २८६ ।। वहीं इनकी पत्तियाँ गरमी में चौपायो को खिलाई जाती हैं । कुसिया--सवा नौ० [हिं० कुसी+यर] दे॰ कुस' । उ०—चे धरती कुसु विया-- सझा बी० [fइ० कुमा+इया (प्रत्य॰)] दै. 'कुमुव' । माता की छाती मे कुसिया घुसेडकर पीडा नहीं देना कुसु भ---सदा पुं० [सं० कुसुम्भ] १ कुसुम । वरें। अग्निशिखा । २ चाहते । शुक्ल अभि० ग्र०, पृ० ४० ।। केसर। कुमकुम । ३ तपस्वी का जन पात्र । ४ स्वर्ण । कुसियार--सा पुं० [ देश० ] एक प्रकार की ईख जो मोटी, सफेद सोना । ५ वाह्य प्रेम । ऊपरी या दिखावटी प्रेम (को॰) । और नरम होती है। इसमें से अधिक होता है। इसे यौ-कसु भागे। विशेषकर लोग चूसने के काम में लाते हैं, इससे गुड नही । कुसु भला-सा जी० [ सं० कुसुम्भला ] दारुहल्दी [को०] । बनाते । थून। उ०—मोडी मर जोधरी, पोरिसकुसियारे, कुसु भा'-सुब्बा पुं० [सं० कुसुम्भ ] १ कुसुम का रग । २ अफीम जल्दी जल्दी बढ़ी मोजली होकर हुसियारे ।-- शुक्ल अभि० और भौंग के योग से बना हुआ एक मादक द्रव्य । ग्र ९, १० १३८ । कुसु भा–सम्रा जी० [सं० कुसुम्भा ] पापाढ़ शुरन पक्ष की छ। कुसियारी--सया पुं० [हिं०] दे॰ 'कुसबारी'। कुसु भी--वि० [सं० कुसुम्भ] कुसुम के रग का । लाल । उ०—(क) कुसी–सझा ० [सं० कुशी] हत्र की फाल । मुख लॅबोल सिर चीर कुसु भो । कानन केनक जड़ाऊ उ भी ।कुसी@t-संज्ञा स्त्री० [ फा • खुशी ] इच्छा। खुशी । उ०—विदर जायसी (शब्द०)। विदर जाएँ नही, मादर विदरा मून । रा खैअगणत रपरा कुसुम-सज्ञा पुं० [सं०] [ वि० कुसुमित ] १ फूल । पुष्प । २ वह दिलरी कुसी दुकूल |--वकी० ग्र०, भा० २, पृ० ८५। गद्य जिसमें छोटे छोटे वाक्य हो । जैसे--हे राम ! दास पर कुसीद--सज्ञा पुं० [सं०] [ वि० कुसीदिफ ] १. व्याज पर रुपए देने दया करो । ३. अाँख का एक रोग । ४, जैनियों के अनुसार की रीति । सूद । व्याज । वृद्धि । २ व्याज पर दिया वर्तमान अवसपणी के छठे अर्हत् के गणधर । ५ एक राजा या धन । फ़ा नाम । ६ मासिक धर्म । रजोदर्शन । ज ।। यौ०-कुसीदजीवी । कुसीदपथ । कुसीदवृद्धि। मुहा०---कुसुम की रोग = रजस्राव का रोग । ३ रक्त चंदन । ४ सुद या व्याज लेनेवाला व्यक्ति । सूदखोर ७ छद में ठगण का छठा भेद, जिसमे लनु, गुरु, लघु, लघु (11) | [को॰] । होते हैं । जैसे,— कृपा कर' । ६ एक प्रकार का फन (मे०] । कृसीद-वि० अल्सिी । सुस्त । अकर्मण्य [को०] । है, अग्नि का एक भेद यि रूप (को॰) ।