पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४९०

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कुलराज्य १६०६ कृलायिक कुलराज्य-- सज्ञा पुं॰ [सं०] किसी एक वंश के सरदारों की राज्य । कुलगिना---सा स्त्री॰ [म० फुलाना! दे० 'कुल'त्र' [ो०] । किसी एक कुल के नयको द्वारा चलने वाला प्रशासन । कुलोगार---सा पुं० [सं० कुलानार] कुल ३ । न। के नेवा। सूरदास्त न । सत्यानाशी । उ०- ये मान्यकुब्ज कुन कुनामार} खार विशेप-चाणक्य के अनुसार ऐसे राज्य में स्यिता रहती है । पताल में करें छेद ।-~-अपरा, १० १०६ । । अराजकता का भय नहीं रहता और ऐसे राज्य को शत्रु भी फुलांच--- सा स्त्री० [तु० फुलाच] १ दो ! हाय ६ वी फी दूरी ।। जल्दी नही जीत सकता। - २ चौकडी । ३ छलाग । उछल । (क) ले कु नाँच कुलवत–वि० [सं० फुलवन्त] (जी* कुलवन्ति, कुलवन्ती] कुलीन । नखो तुम वही । घरत पद धरनी जे । उही 1-नक्ष्मण उ०—-(क) कुलवत निफारहि नारि सती । - तुलसी (शब्द०) मिनु (शब्द॰) । (ख) दस योजन ऊर यी ३ तहैं. १ च एक (ख) जौवने चचल ढीठ है कार निकाज काज । धनि कुनवती। कुलाँच । मिहासन तें अवनि पर पटवयो मरि तमच - जो कुलधर के जोबन मन दाज ।-जायसी (शब्द॰) । विधाम (शब्द०) ।। कुलवान-वि० [सं० फुलवत्] [वी० कुलवती फुलीन । अच्छे वय क्रि० प्र०—करना ।—भरना ।—-मारना । -नैन । | का अच्छे । खानदान का । कुलाँचना-क्रि० प्र० [हिं०] चौकड़ी भरना । उठना ना ।। कुलसकूल-- सपा पुं० [सं० फूलसङ, ल] एके ने रेफ फ। नामें। कुलट--सज्ञा स्त्री० [तु० कुलाच] छत्रग । चौकड़ी । उद्यान्न । कुलसघ-सच्चा पु० [सं० कुलसङ्घ कालीन तर राज्य का शासक ३० --अप्रमान हुयीन दा विक्रम बट्टा । । हरि कुट | मुडन । वि० दे० 'कुलराज्य' ।। अतुक भनौं किलकार सुधाय ।-मुदन (शब्द॰) । कुलप—िसज्ञा पुं० [सं० कुलिश] वज्र । उ०--याण मरकट हुलस कुला'---सा स्त्री० [सं०] 'ल मैनसिल [को०] । | गुरज रिमसिर पड़े । झट फुलसे हूत गिर जाण टोला झडै । कुला--सा स्त्री॰ [फा० फुल ह] एक प्रकार को ऊ ची टोपी । -रधु० रू०, पृ० १८४ ।। कुनाह । 30-1न्हे फुज्ञा लगा कर साफा बांधने में एक कलशेतावर ग्राम–संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह ग्राम असुविधा अवगत होती थी ।----लंबे ६ की ।---झाँसी | जिसकी आवादी सौ से अधिक हो । पृ० २२४ ।। कुलसन–सद्या चौ॰ [देश॰] एक प्रकार की चिड़िया । । । । कुलाकुल--सा पुं० [सं०] तत्र के अनुसार कुछ निरचा नक्षने, वार कुलस्त्री-सधा जी० [सं०] ऊचे कुल को नारी । साध्वी स्त्री [को॰] । और तिथियों, जैसे—मार्ता, मून, अभित् िअदि नक्ष, कुलस्थिति--- सच्चा स्त्री॰ [सं०] १ वश की उन्नति । २ यशपरपरा से बुधवार और द्वितीया, छठ और हैं दश। दि तिथियौं । चलो आती प्रथा को०] । कलाकम –सी पुं० [सं० फूल + अम] कुमयदिए । उ---- तनि कृलह-सच्चा भी० [फा० कुलाह] १ टोपी । ३०-- पीत कुलहु राजे, कुला फम अभिमाना, झूठे मरमि भूलाना --कवीर १०, चुनरी सुपीत सार्ज, लहगा पीत, कचुकी पौत सौहै तन गोरे । पृ० १७६ । । --नद० में ०, पृ० ३७७ । २ शिकारी । ३ चिड़ियों की कुलाचल---सच्चा पुं० [सं० फूल +अवल] ३० 'कुलवंत'। अखिों पर फा ढक्कन । टोपी । अंधियारी । उ०-~-बात दढ़ाई कलाचार-सा पुं० [सं०] १. कुल परपरा से प्रागत प्रचार व्यवहार कुमति हुँस बोली । कुमति कुबिग कुन जनु खोली ।- या रोवि रस्म । कुलरीत } कुलधर्म । २. वाममार्ग । तुलसी (शब्द०)। कौलाचार [को०)। कलवरा-सच्चा पुं० [फा० कुलाह+वाला] बच्चों के पहुनने का कुलाचार्य-सा पुं० [सं०] कु गुरु । पुरोहित ।। एका प्रकार का कंटोप, जिसके नीचे पीछे की ओर पैर तक कुलाधि---सच्चा बी० पु० कुल ८ समूह + अधि - रोग दोप] लटकता है लबी कपड़ा चुनकर सिला रहुवा है। पा। दोप । उ०----मछरी तुर पकरिया, बस गुग के तीर । कुलहा --सच्चा पुं० [फा०-कुलाह] १ टोपी । १ शिकारी चिड़ियों घोय कुन!घिनी भजिहीं, राम न कहे सरीर ।- दीर (शब्द॰) । झी अखि ढकने' की थे धियारी ।' ढोका । उ०---बगुल झपड़े कलाबा:-सुषा १० म०] १ लोहे का जमुर का, जिसके द्वारा किवाड़े घाज पै, वाज रहे सिर नाय । कुवहा दीने पग वधे, खोटे दे। बाजू से जकड़ा रहता है। पायजा । २. मधली फँसाने का फहराय ।--समाविलास (शब्द०)। । कौटा । ३ जुलाहो ३ करघे को वह ल की जो चकवा ३ फुलही सच्चा स्त्री॰ [फा० कुलाह] बच्चों के सिर पर देने की टोपी । बीच लगी रहती है। ४ नाली जिसमे होकर पानी निकलता फनटोप । उ०—(क) कुलही चित्र विचित्र झगूली । निरखविं हैं । मौरी ५ जजीर। सिकही। उ०—३ रे मेराज मातु मुदित मन फुली —तुलसी (शब्द०) । (ख) खेलत कुवर कुफर का खोलि कुलावा । तीवो रोजा रहैं अदर में सात फनक अाँगन में नैन निरबि छवि छाई ।कुहि लसूत चिर स्याम रिकावा |--पलटू०, पृ० ४३ ।। सुभग अति बहु विधि सुरंग बनाई 1--सुर (शब्द॰) ।। , कुलायसुद्धा पुं० [सं०] १ शरीर । देह । जिस्म २ खोता । घोसला । कुलहीन--वि० [सं० कुल+होन] [वि० ० कुलहीनी] अकुलीन । ३ स्थान । जगह। हीन या निम्न कुन का । उ०—बैठ सभा मेहु सो कुलहीनी। कुलायिक-सा पी० [सं०] १ पक्षिश ली । चिड़ियाघर । २ पिंजर। बेस्या की प्रति ताकर चीन्ही ।स० दरिया, पृ०४६। पिंजड़ा (को॰) ।