पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४८८

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कुलती कुलप कुलती-संज्ञा स्त्री॰ [हिं०] १ बुरी मदन । कुटेव । २. कौल संप्रदाय कुलवर-सया पुं० [सं०] पुत्र । बेटा । की साधना में प्रयुक्त होनेवाली स्त्री । कुलस्त्री। उ०—नजी कलधर्म--सा पुं० [सं०] वंशपरंपरा से प्रानेवाला कर्तव्य कर्म । पूर्वकुन ती मेटी भंग । अनिसि पो भौजुद वधि |-- गोरख०, पुरुप द्वारा पलित घम् ।। पृ०७४। । विशेप-अभियोगों के निर्णय में भी इसका विचार किया कुलत्ती-वि० [मकु + हिं० लत बुरी आदतवाला । कुटेवबाला । | जाता या 1 कुलत्थ-सधा पुं० [सं०] कुलथी। कुरथ । कुलधारक-सा पुं० [सं०] पुन्न । बेटा ।। कुलत्यिका-सा स्त्री॰ [सं०] कुलथी । कुरधी। कुलन–सद्मा चौ॰ [ हि० कल्लाना ] दर्द । टोसे । जैसे,--दdिों की कुलथ-सा पुं० [j० फुलत्थ] कुलथी । कुलथी—स स्त्री० [ सं० कलत्य या कुलत्यिका ] उरद की तरह फा कलनक्षत्र- सच्चा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार भरणी, रोहिणी, पुष्य, एक मोटा मने जो प्राय बरसात मे ज्वार के साथ बोया मषा, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा, विशाना, ज्येष्ठा पूर्वापाडे, श्रवण, जाता है। उत्तरमाद्रपद ये सब नक्षत्र । विशेप--इसवी वेल भी उरद की मति पृथ्वी पर फैलती है, पर कुलना--क्रि० स० [हिं० कुल्नाना] टीस मारना । दर्द करना। इसकी पत्तियों पजे के प्रकार की होती हैं । फलियां गुच्छों में जैसे -अाजकल दाँत कुल रहे हैं । लगती हैं और एक एक फली में तीन तीन चार चार दाने कुलनायिका- सूझा बी० [सं०] वाममार्ग या कौल धर्म के अनुसार वे निकते हैं । दाने उरद ही के से होते हैं, पर कुछ चिपटे और स्त्रिय प्रिनकी पूजा कौल लोग चक्र में करते हैं । ये नौ । भिन्न भिन्न रगों के, जैसे-भूरे, साल, काले होते हैं । कुलयी प्रकार की होती हैं-नटी, कपालिनी, वेश्या, घोविन, नाइन घौध र चौपायों को बहुत खिलाई जाती है । गरीव लोग ब्राह्मणी, मूद्रा, अहोरिन र मालिन । इसी दाल भी खाते हैं। यच्च दन्न मानी गई है । वैय लोग फुलबार--सा पु० [नरा०] | फुलबार-सपा पुं० [नेरा०] एक खनिज पदार्थ या पत्य जो सफेद इसे धातु शोधने के काम में लाते हैं। वैद्यक में इसे रूखी, या कुछ सुर भई रंग लिए होता है। कसैली, गरम, क्व्ज करनेवासी तथा रक्तपित्तकारिणी विशेप-इसे सिलवड़ी, सग वाहत, सफेद सुरमा और कपूर मानते हैं । शिलासिन भी कहते हैं । इसे भस्म करके गच याल स्टर अफ पर्या–ताम्रयोज । श्वेतवीज । सिंतेतर। कालवु ते । तान्न त । पेरिस बनाते हैं। इस भस्मचूर्ण में यह गुण होता है कि यह कलदीप- सच्चा पुं० [सं०] वश को दीप की भति प्रकाशित करनेवाला पानी पीने से लस पकडने लगता है और अंत में सूखने । व्यक्ति (को०) । पर उसके सब कण मिलकर फिर ठोस पत्थर हो जाते हैं। कुलदीपक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'कुरदी' (०) । इसकी मूत, खिलौने, इलेक्ट्रोटाइप के सचिौर गहुत सी चीजें बनती हैं। इससे शीजा भी जोड़ते हैं। कुलनार कुलदुहिता–सद्या स्त्री० [सं० कुलदुहितु] दे० 'कुलकन्या' (को॰) । मद्रास, पजाब राजपूताने तथा भारत ए के प्रौर कई भागों कुलदूषण- वि० [सं०] ते० 'कुलकल क’ को ।। में मिलता है । जोधपुर और बीकानेर मे इसकी वडी बड़ी कुलदेव-सहा पुं० [सं०] [ चौ• कुल देवी ] वह देवता जिसकी पूजा बने हैं, और इससे बहुत से काम होते हैं। इससे खिड़की किसी कुल मे परपरा से होती माई हो। ऐसे देवताओं को पूजा विवाह आदि के समय या वार्षिक नवरात्र प्रादि के दिनों की जालियाँ बड़े कौशल के चाय बनाते हैं। गच या में होती है । कुलदेवता । गीले कुलनार की दो वरावर पट्टियाँ लेते हैं और उनमें कुलदेवता'- सच्चा पुं० [सं० [ दे० 'कुलदेव' । एक ही नक्काशी की जालियाँ काटते हैं । फिर एक कुलदेवता-संज्ञा स्त्री० [सं०] षोडश मातृकार्यों में से एक । पदी की जालियों पर रग विरंग के शीशे वैठाकर ऊपर कुलदी--सज्ञा स्त्री० [सं०] वह देवी जिसकी पूजा किसी कुल में दूसरी पट्टी भी सटीक जमाकर दाँध देते हैं। इस प्रकार दोनों | परप से होती माई हो। पट्टियाँ मिलकर एक हो जाती हैं और कटाव के बीच रंग बिरंग के पी दिखाई पड़ते हैं। आगरा, लाहरि पाभेर कुलद्वमसी पुं० [सं०] दस प्रमुख वृक्ष, जिनके नाम हैं—(१) मादि के शीश महल इसी गच की सहायता से बने हैं। पीपल, (२) बरगद, (३) बेल, (५) नीम, (५) कवंब, (६) कुलनार या सिलखड़ी का चूरा खेतों में भी खाद के लिये गूलर, (७) इमली, (८) मामला, (६) लसोड़ा मौर (१०) डाला जाता है। नील की खेती के लिये इसकी खाद बहुत कर्ज। उपयोगी होती है । पेशाब लाने के लिये वैद्य सिलवडी का कुलघन- सच्चा पुं० [सं०] पैतृक सपशि । खानदान की अत्यंत प्रिय चुरा दूध के साये खिलाते हैं। एव मूल्यवान् सपत्ति या परपरा।। कुलनवीग्राहक--सज्ञा पुं० [सं०] किसी समाज मा सघ की प्रामदनी कलुवन--वि० जिसका घन वंश की प्रतिष्ठारक्षा के लिये लगे(को०)। को अपने पास जमा रखनेवाला। कलधन्या--[स०] कुन की प्रतिष्ठा बढ़ानेवाली । वश की मर्यादा विशेष -कौटिल्य ने ऐसे धन का अपव्यय करनेवाले पर १०० की रक्षा करनेवाली । उ०—जो कुछ मेरे वह, कन्या का, | पण जुर्माना लिखा है। कुलधन्या का |–मपुर, पृ० १८२ । | कुलप-सुम पुं० [सं० ] कुल का प्रधान पूपि । किवी कुल को मनुः