पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४८७

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कुलपति कुलमौड़ कहते हैं। शासन में रखनेवाली प्रधान व्यक्ति । उ०—सामाजिक संगठन काम में आते हैं। लोग ठंडाई में इन्हें प्राय डालते हैं। इसके की मूलभून इकाई कुल थी जिसमें एक पिता या ज्येष्ठ भ्राता पौधा एक दानिश्त से डेढ वालिश्त तक ऊचा है अौर के, जो कुनप कहलाता था, अनुशासन को मानते हुए कई ठळी जगह में उता है। यह बवंत ऋतु के पहले बोया जाता सदस्य एक ही गृह में एक साथ रहते थे ।-हिंदु० सभ्यता, हैं और गरमी में तैयार होता हैं। इसका पौधा बहुत जल्द | पृ० ८२। बढ़ता है। वरसात में मेहं अपिसे अाप खेतो में जमता है । कुवपति--सा पु० [सं०] १ घर का मालिक । मुखियो। सरदार । लोग इसका साग खाते हैं। वैद्यक में यह हा माना गया है। १ वह अध्यापस जो विद्यार्थियों का भरण पोषण करता है। इसी की छोटी जाति के लोनी, अमलोनी या नोनिया उन्हें शिक्षा दे । ३ शास्त्रानुसार वह ऋषि जो दस हजार मुखियो या ब्रह्मचारियों को अन्नदान पौर शिक्षा दे ।४. यौं-बृहल्लोणी । घोलिका। महः । ५ किती विद्यास त्या दिशेपत्या कालिज या विश्व कुलफा------सी पुं० [हिं०] दे॰ 'कुल' । उ-चर्म दृष्टि का विद्यालय का वैधानिक प्रधान । | कुलफा दे के, चौरासी मरेमाई हो -कवीर शु०, पृ० ६३ । - कुलफी-सच्चा स्त्री० [अ० कुफली। पंच । २. टीन या किसी धातु कुनपरपरा-सा औ• स० कुलपरपरा] वंश में चली अाठी 3 अथवा मिट्टी आदि का बना हुआ चोगा जिसमे दू ग्रादि शति । बशपरंपरा । उ०—-इन खिलाडियों के लड़के भी कुल भरकरबर्फ जमाते हैं । ३. उपयुक्त प्रकार से जम' है। दूब, परपरा से बहुधा सिपाही को काम अगीकार करते थे। मलाई या कोई शुर्वत । जैसे--मलाई की कुल्फी । ४ पीतल हिदु सभ्यता, पृ० १६ । या ताँबै अदि की गोन या झुकी हुई नली जिसे नरकुल में कुतपर्वत--सा पुं० [सं०] अति पहाड़ो का एक समूह जिसके अंतर्गत लगाकार नेची वाँधा जाता है। ये पर्वत माते है- महेंद्र, मलय, सह्य, शुक्ति, ऋछ, विध्य और पारिया।। कुलवधू - स जी० [सं०] कु नवती स्त्री । मर्यादा से रहने वा नी स्त्री । ३०-किती न गोकुल कुलदेवू. काहि न केहि सिखदोन । कुलपासुका-सबा खी० [सं०] कुलटा । व्यभिचारिणी स्त्री कि] । | विहादी (शब्द॰) । कुपालक'-सा पु० [सं०] एक प्रकार की नारंगी। | कूलदाँसा-सा पुं० [हिं० कुल+वसि] जुलाहो के करघो का एक पालक-वि• वश या खानदान का पालन और रक्षण करने के वाँस जिसमे कंवा वैधी रहती है। | वाला (ले०] । कुलवल-सी पुं० [अनु॰] [सा कुलबुलाहट] छोटे छोटे जीवो के । कुलपलि--- • [सं०] दे० 'कुलपालिका कि०] । हिने डुलने की अाहट। कुलपलिका–सुच्चा घी० [सं०] १. सुती स्त्री । ३ कुलजा स्त्री । कुलदलाना-क्रि० अ० [अनु० कुलवुल] १ बहुत से छो छोटे | उरतम कुल छी नारी (झे। जीवो का एके साथ मिलकर हिलना डोलना । इधर उधर कुलपाली स बी० [सं०] दे० 'कुबपालिका' (को॰] । रेंगना । जैसे,—मोरी में कोई कुलवुना रहे हैं । २ धीरे धीरे पुरुषसंग पुं० [सं०] कुजीन मनुष्य । उच्चवश का व्यथित [को०] । हिलना डोलना । जैसे,-बच्चई गोद में कुलबुला रहा है ३. कुलभू-वि० [सं०] जिसका मात्र कुलुपरपरा से होता प्रया हो । चंचल होना । चाकु न होना । जैसे--(क) सोया हुआ लड़का जो कुल का पूज्य हो । उ०—गुरु वसिष्ठ कुल पूज्य हमारे -- कुलबुलाकर उठ बैठा (ख) भूख के मारे अतड़ियां बुलबुला तुलनी (शब्द॰) । रहीं हैं। | लफ9f-सस पुं० [अ० कुफल तालो । उ०---(क) भी कुलबुलाहट-सा स्त्री॰ [हिं० कुतबुत धीरे धीरे हिलने डुलने का रघुराज मनो जल की जंजीरन की कुलर्फ खुलवाई - रघुराज (शब्द॰) । (ख) अम कर कुलफ कपाट है जव जीवे । | भोव। इधर उधर रेंगना । जाहित ना चले ।—कबीर सा॰, पृ० ११।। कुलबोर---वि० [सं० कुल + हि शेरना] कुल को हुनेवाला । फुल कलंक । ३०-धरमदास विनवे कर जोरी, नगरी के लोग विशेष-कुछ लोग इसे स्त्रीजिग भी मानते और लिखते हैं। वफवस - [अ० कुल्फत मानसिक चिंता या दुख। कहें कुलबोर धरम, पृ० ७१।

  • कुलबोरन--वि० [हिं० कुल+बोरना] १. कुल को डुवानेवाला। मिलता। उ०—उलफत नेहा कुलुप्ता नारी ।—कबीर कुलबारला ।'

वश की मर्यादा को भ्रष्ट करनेवाला । कूल में दाग लगानेवाला। शु०, पृ० ६। । क्रि० प्र०—मिना ।—होना । कुलकुटार। १. अयोग्य । नालाक। कुलवोरमा--वि० [हिं०] दे॰ 'कुलोर' । उ०-मोहि कुलबोरना ३Fi'सुद्धा पुं० [फाः खफ एक साग जिसके पत्ते दलदार, ** के विरई हुंकाव (~-प्रेमघन॰, भा० २, पु० ३५९। नाच उठन के पास नुकीले और सिर पर चौड़े होते हैं। कुलसौड़--वि० [सं० कुल+मौलि हि मौर) कुलथे । वश में शुष-इसके पत्ते दो अगुल लने और रस में दो दो प्रामने कुलसी श्रेष्ठ मोर ख्यात् । वंशभूषण । उ0--ौरग जैसे ऋवियों, सामने लगते हैं। इसके फूल पीले रंग के होते हैं। फुख झ दुई दिन दौड़ गया दररगइ माह रे, मारुधर कुल नौ - जन पर छोटे छोटे गरे निकलते हैं जिनमें काले काले, गोन अप के होते हैं। ये दाने व छोटे होते हैं और दवा के