पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४८६

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कुनकट क ---क्षी० [ देश० 1 १ हेगी। पटरा । पढेला । सुहागो । २ मुहा०--कुन मानना (१) वंशविरुवात ती वर्णन करना (२) । कुरकुरी हुड्डी । वि० दे० 'कुरकुरी' । ३ गोल टिकिया । बहुत गालियाँ देना ।। कुसंसद्मा पु० [अ० कुर्स = गोल टिकिया ] १. गोल टिकिया । २ इति । ३ समुह । समुदाप । झूठ । जैसे--कविकुलभूषण । २ अरब देश का चाँदी का एक पुराना सिक्का जो लगभग कविकु नतिलक सादि । ४. भवन । घर । मकान । जैसेडेढ अाने मूल्य फा होता है । ३. चीन देश का सोने या चांदी गुरुकुल, पिन यादि । ५ वत्र के अनुसार प्रकृति, काल, का एक सिक्का जो नाव के प्रकार का होता है और जो तौल ने माफाश, जल, तेज, वायु प्रादि पदार्य । ६ वाम माग । कौल पचास या सौ तोले पोर इससे फर्म या अधिक भी होता है । धर्म । ७ सगीत में एक ताल जिनमे इस प्रकार १५ मात्राएँ कुर्स-सच्चा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार की घास जिसकी बड ली। होती हैं-- व्रत, लघुद्र त, लघु, दूत, लघु द्रुत, ऋत, त लघ, नरम और मजबूत होती है और रस्सी वटने और चटाई बनाने व्रत, इंत, दूत, दूत गौर लघु । ८. स्मृति के अनुसार के काम में पाती है। इसकी खेती केवल ज} के लिये व्यापारियों या कारीगरो का सेध । श्रेणी । कपनी । ९. होती हैं। फौटिल्य के अनुसार शासन करनेशले उच्च कुल के लोगों का कुर्सी-सच्चा सी० [अ० फुरसी] दे० 'कुरसी' ।। मइन । कुलीनतत्र राज्य । १० देहू। शरीर (को०) । ११. कुर्सीनामा-सा पुं० [अ० कुरसीनामा दे० 'कुर सीनामा' । अगला भाग । अागे का हिस्सा (को०)। १२ एका प्रचार का कुलक–सखा ऐ० [फा० फुलग] एक विशेष प्रकार का पसी । कुल ग । नीली पत्थर (क) ! १३ गोत्र (को०)। १४ नगर । जनपद उ०—बहरो अमद्धे हित पख बल है कुनैफ अषक गट। (को०)। १५ तंत्र के अनुसार कु इलिनो शक्ति जो मूलाधार सोनग दुरग अवर सहित सुझौं एम घय नेम सत 1-० चक्र में है (को०) ।। रू0, पृ० १५३ ।। कुल--वि० [अ०] समस्तु । सव । सारा । पूरा। तमाम । कुलग-सज्ञा पुं० [फा०] १ वह पक्षी जिसका सिद लाल और बाकी यो०-फल जमा=(१) सव मिलाकर । (२) केवन । मात्र । शरीर मटमैले रग का होता है । इसकी गरदन लवी होनी है। कुलकटक -सपा पुं० [सं० फुल कन्टक ] अपनी कुचाल से अपने वंशयह लोलक से बड़ा होता है और पानी के किनारे रहता है। वालों को दुघौ करने वाला। उ०—तीतर, कपोत, कि, केकी, कोक, पारावत, कुरर, कुलक'---वि० [सं०] अच्छे कुन. पनदान का [को०] । कुलग, कलहस गहि लाए हैं।--केशव (शब्द०)। २ मुर्गा । कुन'क'-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ मझर तेंदुप्रा नाम का वृक्ष । २ कुविला । कुक्कुट । ३ लपी टोग का अादमी ।--(व्यग)। ३ परवल पा उसको लता । ४ हरा साँप । ५ दीपर्छ । ६. कुलग-सच्चा स्त्री० [हिं० ] कुलच । कूद । चौकड़ी । उ०—हेस्य थे या समूह का प्रधान (ले०] 1 ७ समूह [वै] । ८, वल्मीक । वाँधी । ६ संस्कृत में गद्य लिखने का एक वर्ग । तही हुरिने कुलग कर कूदयौ ए ताही संमें साहसीफ सहसनि १० सुत्छन में कविता लिखने का एक विशेष ढग । उ०-* भात ;- हम्मीर, पृ० ६ ।। यद्यपि हिदो मे इस ३ग की कविता का प्रचार नहीं है, वेथापि कुलज'सच्चा पुं० [सं० कुल 7] 'कुलजन' । अन्य भाषाम्रो मे ( जैसे, सस्कृत में कूक, अंग्रेजी में लेकबर्स, कुलज-सज्ञा पुं० [ वेश० ] घोहे फ। एक दोप जिसमे चलते समय बँगला में अमित्राक्षर छद घादि ) इसका उपयुक्त प्रचाय | टांगै झापस में टकराती हैं । है ।-करुणा०, (सू०) । कुलंजन--सा पुं० [सं० कुञ्जन ] १ अदरक की तरह का एक विशेप-कुचका में ५ से १४ तक एक सय अन्वित पद्य या कविताएँ पीघा । होती हैं । व्याकरण को दृष्टि से इनका वाक्यविन्यास और विशेष----यह वम, मलया द्वीप, चीन आदि में होता है । इसकी वघान ऐमा होता हैं कि सब एक ही वाय में लिखा जा रेशेदार जड वाहर वकृत भेजी जाती हैं। यह कडवी, गरम सकता है । शोर दापन होती है तथा मुख की दुर्गध को दूर करती है । कुलकज्ज- वि० [सं०] व श को कल किस करनेवाला । कॅलका—क्रि० अ० [हिं० किलफना] नदित होना । खुशी छे कुल जन के दो भेद हैं-बड़ा कुलजन धौर छोटा फुलजन । पर्या--लज । कुर्णज । गघमूल । उछल ना । उ०-लक्ष्मण का तेन पुल के उठा, मन मानो कुछ कुल क उठा |--साकेत, पृ॰ ६३ ।। २ पान का जड या इठल । कुलकन्या-सज्ञा स्त्री० [सं०] श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न कन्या (को॰] । विशेष—-इसे लोग खानी या पान की तरह चुना, कत्था मादि । कॅलकत्त-सी पुं० [सं० फुल फतें] व ग का मारिपुष । सस्थापक । मिला र खाते हैं । इसमे बैठा हुआ गला खुल जाता है । कुलपति । कुलधर- वि० [सं० कुलन्धर] वश परपरा को चलानेवाला (को०] । कुलकलक-सच्ची पुं० [सं० कल फडू] अपनी कुचाल से अपने वश की कुलभर--सच्चा पुं० [सं० कुलम्भर] चोर [को॰] । | कौति में धन्वा लगानेवाला। कुल सच्चा पुं० [सं०] १ वश । घराना । खानदान । कुलकोट–वि० [सं० कुल + हि० काट= मैले ] कुल को कलक लगाने यौ०---कुलफानि । कुलपति । कुल लक । कुलगार । कुलतिलक। वाला। उ०—कम ही मत, कुलकट, माझी मरण, मलोण कुलभूषण । कुलफटक, आदि । मत |--वाकी ग्न ०, ६० १, पृ० ६१ ।