पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४६०

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केले कुचला । कुखेत--सच्चा पु० [सं० कुक्षेत्र, पा० कुखेत] बुरा स्थान । खराव क्रि० प्र०-. 'चलाना ----रचन।।– } करना । जगई। कुठव । उ०—(क) असगुन छोहि नगर पैठारी । कुचक्री- सज्ञा पुं० [सं० कुचनि] पड्यंत्र रचनेवाला । गुप्त प्रयत्न रटहि कुभाति कुवेत करार । - तुलसी (शब्द०) । (ख) करके दूसरों को हानि पहुँचानेवाला । चारों ओर ब्यास खपति के झ3 झुठ बहू अाये । ते फुखेत कचना----क्रि० अ० [सं० कुञ्चन] सिकुड़ना । सिमटना (4व०) । । घालत सुनि सुनि के अग अग कुम्लिाये ।—सर (शब्द०)। उ०-वर वानी अगै उर डीठ तुचाति कुनै सकुनै मति । कुख्यात–वि० [सं०] निदिन । पदनाम । वेली 1-केशवे (पाद०) । कुख्याति सच्चा स्त्री॰ [सं०] निदः । बदनामी । कूचफल--सच्ची पुं० [स०] १ दाडिम । अनार (०' । ( ३. स्तन ।। कुगति--सच्चा स्त्री० [सं०] दुर्गनि 1 दुर्दशा । बुरी हालत । उ०—हम कुचमदन--सच्चा धुं० [सं०]१ एक प्रकार का सन १T पटुआ जिससे रस्से । सुगति छोड़ क्यो कुगति विचारें जन् की ।- साकेत, पृ० का - साकत, पृ॰ वनाए जाते हैं । २ हाथ से किसी स्त्री के स्तन मसलना । २२० कुचमुख- संज्ञा पुं० [सं०] स्तन का अग्र भाग । कुचाग्न । चुचुक [को॰] । कगहनि-- सच्चा स्त्री० [सं० कु + ग्रहण] अनुचित आग्रह । हुई । कुचर'--वि० [सं०] [वि० स्रो० कुचरा, कुचरी] १ बुरे स्थानों में । जिद । उ०—-महामद भैध दसक ध न करते कान मीच बस धूमने वाला । आवारा । २ नीच रुमं करनेवाला । ३ वह् । नीच हकि कुगनि गही है ।—तुलसी (शब्द॰) । जो पराई निंदा करता फिरे । परनिंदक । ४ धीरे धीरे चर ने कग्रह-सच्चा पुं० [सं०] पापग्रह । खोटे ग्रह । अनिष्टकारी ग्रह (को०] । वाला । रेंगनेवाला (को०) । ५ बुरी सुहृवत का (को०)। ६ । कुघा –सुधा जौ• [सं० कुक्षि] दिशा । शोर । तरफ । उ०- चोर (को॰) । चौहू' कुघा तडित तपै डरप वनिता कहि केशवं सुचे ।- कुचर-सुज्ञा पुं० निश्चल वा स्थिर नक्षत्र [को॰] । केशव (शब्द॰) । कुचरचा सच्चा स्त्री० [सं० कु + चर्चा] अपवाद । आपकथन । निदा । कुघाइ-सच्चा स्त्री० [सं० कु+घात, प्रा० घाइ] ३० 'कुपात'। उ०—राम कुचरचा करहिं सव, सीतहि लाइ कल के । सुर्वी । उ०—कहिय कठिन कृत कोमलहू हित हुठि होइ हाइ । अमागी लोग जग कहूत संकोचु न से {-*तुलती ग्र ०, पलक पानि पर डिप्रत समुझि कुघाइ सुघाई -तुलसी पृ० ६३ । ग्र०, पृ० १०६ । कुचरा---सधा पु० [हिं० कु घा] [बी अल्पा० कूघरी] झाड, । । कुघात-सज्ञा पुं० [हिं० कु+धात] १ कुप्रवसर । वेमौका । २ वरा कुचराईसिधा जी० [सं० कुच्चर] कुचान । बुरी चाल । उ०--- । दव । बुरी चाल । छल कपट । उ० --बड़ के पात् करि पात- नाम रटन को करत निठुराई कूदि चले कुचराई -धरन०, । किनि कहेसि कोपगृह जाहु । फाजु सँवारे सजग सर्व सहसा उनि पतिया ।—मानस, २ । २२ । कुचलना-क्रि० स० [हिं० कुचना या अनु०] १ किसी चीज पर कुचदन- सा पुं० [सं० फुचन्दन] १ रक्त चंदन । लाल चदन । सहसा ऐसी दाई पहुँचाना जिससे वह बहुत दवे और विकृत हो देवी चदन । २ बक्कम । पटरग । ३ कुकुम ।। | जाय । मसलना । २ पैरो से रौंदना । पाँव से दबाना । कुच-सच्ची पुं० [सं०] स्तन । छाती । स यो क्रि०—जाना {--उलिना ।—देना। यौ०- कुचकु भै |–कुचतः । कुचतडी = स्तन । मुहा०—सिर कुचलना=पराजित करना । मान वश करना । कुच-वि० १, सकुचित । २ कृपण । कजुस । कुचल देना= शक्विहीन कर देना । कुच - सज्ञा पुं० [स० चुक] चली। केचुल । उ०—साँप कूच कुचला-सा पुं० [सं० फोर] १ एक प्रकार का वृक्ष जो सारे थोड़े दिख नही छोडे । उदह माँहि जैसे वका ध्यान मोडे ।- भारतवर्ष मे, पर वगाल और मदरसे में अधिकता से दक्खिनी०, पृ० ४० । होता है । विशेष--इसकी पत्तिय पान के प्रकार की चमकीले हुरे रग की कुच*--सर्व० [हिं० कुछ ] दे० 'कुछ' । उ०—ना कुचे खावे ना होती हैं और फूल लवे, पतले और सफेद होत हैं । फूल झड़ | कुच पौदे -दक्खिनी॰, पृ० १६ । जाने पर इसमें नारी के समान लाल और पीने फने लगते कुचकार--सच्चा पुं० [देश०] भेडे की एक जाति जो गिलगिल' के हैं, जिनके भीतर पीले रंग का गूदा और बीज होती है । उत्तर हुजा में पाई जाती है । यह पामीर मे भी होते है। कच्चा फल मलावरोध, वातव्धक और ठढ़ा होता है और कुलजा । पक्का फल भारी तथा कफ, वात, प्रमेह और रक्त के विकार कुचकुचवासिया पुं॰ [अनु॰] उल्लू । को दूर करता है । इसका स्वाद कुछ मिठास लिए हुए कई वा कचकुचाना--क्रि० स० अनु० कुच कुच] १ लगातार कोचना । और कसे भरा होता होता है। इस वृक्ष की छाल और इसके वीज बार बार नुकीली चीज धंसना या वोधना जैसे,-मुरब्बे के का उपयोग औषध में होता है। इसकी लडो में घुन नहीं लगता लिये अविना कुचकुचाना। २. थोड़ा कुचलना ।। और वह बहुत मजबूत और चिमड़ी होती है और गाड़ियां, कुचक्र - सच्चा पुं० [सं०] दूसरो को हानि पहुचानेवाला गुप्त प्रयत्न । हुल, तसने अदि बनाने के काम में भता है । पड्यंत्र । साजिश । २. पूर्ण वृक्ष का वीज जो बहुत जहरीला होता है । कुला ,