पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४५९

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कुचैला ९७७ कुची विय-यह गोन : चपटा होता है । इसके ऊपर मटमैले कुचिका–सेड़ा स्त्री० [सं०] २८ प्रकार की मछली [को०] । रग का छिका होता है निमकै अदर दो दातें होती हैं । कुचित --वि० [सं०] १ सिड हुअ । सवित । २ ग्रत् । जिनके मध्य एक छोटा हरे रंग का अंबुप्रा रहता है । यह थोडा [को॰] । वहुत अधि३ फड़ा होता है इसलिये इसका पीसना या तोड़। कुचिया-सट्टा ० [सं० कुञ्चिक या गुञ्जिका] छोटी छोटी टिकिया। वडा कठिन होता है । यह कडून गरम मादक और बहुत कुचियादा-सद्या पुं० [हिं० कूचना > कृचिया + दाँत] वह दाँत विर्या होता है और क5, वात दधिविकार, कृऽ प्रौर जिससे प्राणी अपने ग्राहार का कुचले कुचलकर खाते हैं। बवासीर को दूर करता है । वमन कराने और सुगंध सुचाने डाढ़ । चौमर । में इसका विष उतर जाता है | कुत्ते के लिये यह वहुई घात कुचिल---वि० [हिं०] दे० 'कुचील' । उ-पतिव्रता मैली मली, काली कुचिल फुलप । पविग्ता के रूप १, वारी कोटि पर्या-कारस्कर। विर्धा । कालकुठ। मर्कइति । कृपा है। सुल्प ।—कबीर ना० स०, भा० १ पृ० ३० ।। पिछ । कुचि नना --क्रि० स० [हिं०] दे॰ 'कुलना' । उ० फूल की सी कुचली –सवा श्री० [हिं० कुचलनी] वे दाँत जो डाढो और राजदत माल वान लाल जो लपटि लागी तन मन : पट के टि | के दौर में होते हैं। ये नोकदार मौर बड़े होते हैं । कीना । कचिलगे ।--देव (शब्द॰) । सीता दाँत ।। कुचिला-सच्ची पुं० [हिं०] दे॰ 'कचरा' । कुचा कम। पुं० [२०] स्तनो को वाँधने का वह अखड । स्तनो- कुचीमाज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्चिका, हि० कु ची, कु ची] दे० 'कु चौ' । तरीय ' चोलीं किये। कुचीला+- वि० [सं० कुचे न] मैले वम्श्रवा ना । मै न कुचैला । मलिन कुचाग्र संवा पुं० [सं० कुच+पु०, हि० कुचा अग्र ( यव० )] ३०- (क) हौं कुर्च ल मतिहीन सुकने विवि तुम कृपालु जग युवती के कच या उरोज का अगला भाग । कुच मुख । उ०--- जाने -सूर०, ११०० । (ख) कन्जन फीच कुची न किए (क) उनके हृदयों को कति कठोर कुचाग्र अकुत से छेदती । तट अचर अधर कप । थकि रहे पथिक सुयश हिन ही के प्रेमचन०, ५० २, पृ० १५ । (ख) कालिंदी न्हावहि न नयन हस्त चरन मुख वोल !-—सूर (शब्द॰) । अर्ज न भ्रगदि । कुचाम, परसे न नील दल कवल तरि कुचील्T+--वि० [हिं० कुचील] दे॰ 'कुचैला' । सुद। -पृ० रा०, २३४६ । कुमार--सज्ञा पुं० [सं०] कामशास्त्र के एक प्रधान प्राचार्य का नाम कुचाना-क्रि० स० [हिं० प्हचना | चुमना। गोदना । गडाना । जिनका मत वात्स्यायन के कामरास्त्रि मे उब्त मिलता है । उ०—अपनी अंगुली से अखि कुत्रा कर अप ही पूछते हो कि । कुचेन-सच्चा पुं० [सं०] १ मैला कपड़ा। मलिन वस्त्र । १. पाठ अाँसु वयो अाए 1–कु तुला, पृ॰ ३० । कुचैत्र - वि० १ मैला कपड़ा पहननेवाला । जिम के कपड़े मैने हो । कुचालनया स्त्री० [सं०कु+हि० चाल ] १ बुरा माचरण । खेरीव २ मैला । गुदी । मलिन ! चालचलन ।। कुचेष्ट - वि० [सं० कु • चेष्टा] बुरी चेष्टावा ना । जिसको बुरी क्रि० प्र०—चलना । वेष्टा हो । २. दुष्टता । पाजीपन । खोटाई 1 बदमासी । उ०—राजा दशरथ कुचेष्टा-सच्चा स्त्री० [सै०] [वि० फुचेष्ट] १ दुरी चेष्टा । कुप्रयत्न । रानी कसिला जाये। कैकयी कुचाउ फरि कानन पाए । | हानि पहुचाने का यत्न ! वु वान । २ चेहरे का बुरा भाव । तुलसी (शब्द०) । कुचैन’- सुद्धा स्त्री० [सं० कु - हि० वैन] कष्ट । दुःख । व्याकुलता । क्रि० प्र०—करना । उa- सोवृत जागत सपन व रन रिस चैन कुचैन । सुरति यौ०-चाल कुचान = खोटापन । उ०—नाहि तो ठाकुर है यति स्याम घन की सुरति विनर हैं। बिमरे न ।—बिहारी र०, दारुण करिहै च ले कुचाली हो ! - क्लवीर (शब्द॰) । दो० २२७ ! कुचावयासज्ञा पुं० [हिं० कुचाल+इया (प्रत्य॰)] ३० कु !नी' । . चरण- कुवैन'- वि० बचने । ब्याल । ३०--पाचे मोहन मोह ह 3 - सचा पुं० [हिं० कूचाल 1१ कुम । २ बुरे करत कुवैन ।कहा करीं उनटे परे टोने 1ोने नैन ।—बिहारी वाला । ३ दुष्ट । पाजी । वदमाश । उ०—सक १ कहहि कव २०, दो० ४७ ।। होइहि फीली । विधन बनविहि देव चाली,—मानस ॥११॥ चह-संवा स्री० [ क + हि० चाहे I अमले ! अशुभ कुचे न--- वि० [सं० कुवेल] फटा पुराना 1 में ।। गई। । १०..) पट कुचल दुरवल द्विज देखत, त के तदुन बाप (हो) ।--- वन । उ-( क ) जातुष्ठान तिय जानि वियोगनि सूर० २।७। (ख) रे कुन्न त। तेरिया अपनी बुब वो हैर दुई सय सुनाइ चाहूँ !--तुलसी ग्र०, पृ० ४१३ । (ख) सुमनन वामे तेल को हाई डरत पे।। -- 1रिधि (शब्द०)। लखने मप यह नीक न होई । कठिन कूवाह सुनाइहि कुचला--वि० [सं० कुवेन] [वि॰ श्री• कुवैनी १ जिनका कड़ा कोई ।—मानस, २२२५।। मैला हो । मैले कपड़े वाला । २. में उर 1 गदा । जै|--मैलो चके-सज्ञा पुं० [सं०1 ईशान {१निर] दिशा का एक प्रावीन देत, कचे नी योती । मैले कुचने कपड़े । जो कदाचित् अधुनिक कूचबिहार हो ।