पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४५६

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5 दर ९७२ कुन्न। बुद-मई ऐ० [सं० कण्डुर= करेता] एक पेन जिसमें चार पाँच कुडा --सज पुं॰ [स० कुठमाण्ड] कुम्हड । उ०—कद्द, कुइहे थैले, | पगु नये संत्र लगते हैं अौर जिनको तरकारी होती है । खरबूजे मटमैलै 1-माराधन।, पृ० ७५। विदोप-ये कल पड़ने पर बहुत नाव होते हैं, इसी से कवि लोग कू' -उप [सं०] एक उपपुगे जो सदा के पहले लगकर विशेष का ग्रो उपमा इतने देते हैं । कदम की पत्तियो चार पाँच काम देता है। जिस शब्द के पहले यह लगाया जाता है, उसके ग्रगुन सौर पवोनी होनी है। इस सफेद फून लगते अर्य में 'नीच', 'कुलित' आदिका भाव प्रा जाते है । जैपे-- ३ । धंद्य में कुदः फ फन शीतल, मनस्तभक, स्तनो में दूध सग कुसे में । पुत्र कुपुत्र । टेव, कुदेव मदि। पर जिन शब्दो के उत्पन करनेगा तया प्रवास, दमा, दात पर से नन को दूर अादि मे स्वर होता है उनमें लगने से पहले इसका रूप बदू रवाना माना गया है। इसकी जड़ मेहुनाशक और धातु मानी गई है। बरई प्रा अपने पाने के भीटो पर (क) हो जाता है। जैसे- कदन्न, कदाचार, दुष्ण । परपस की तरह इससी वेल भी चढ़ाते हैं । कुदरू के विषय हिंदी में यह नियम नहीं है। जैसे कुप्रन, कुप्रसर अदि शब्) में यह भी प्रवाद च अाता है कि यह बुद्धि नाशक होता है। में । इस के रूप ‘कव' का भी मिलते हैं । जैसे,— पर्या० ---वियो । यिा। रक्तला। तु हो । औटोपमफना । | किप्रभू ।। | प्राप्ठो। कर्मकरी । गोही । दी। कु सया डी० [सं०] पृथिवी । यौ० -कू ज ।। कूदला--सपा पुं० [?] एक प्रकार का हेपा या तन् । केदरना- Fि० स० [सं० फुदलन ८ खोंदनी या सं० कुन्दकरण= २ त्रिकोण वा त्रिभुज का अाधार (को॰) । शीतना पुरचना] वरना । छोलना । खरोचना । खूड हेरना। प्रडासा पु० [सं० कुप, प्रा। केव+ हिं० टी (प्रत्य॰) । दे | सा पुं० [सं० कुन्दर = खरीदनेवाला अथवा हिं० कुदरना+ । कु । उ० - कुप्रटा एक पत्र पनिहारी टटी, लेजुरि भरे एरा {प्रत्य) तुलनीय फा० कु दह, फार] [जी० कुनेरी) मतिहारी ।--कवीर सा० सं०, भ७ि, २, पृ० ७ ! | कु अन्न--सा पुं० [सं०, हिं• कु (खराव) + अन्न =1 रद्दी अन्न । रिदिनपनि । घरादी । कुनै । ०-फनक दई दुई भजा । मोटा अनाज । रसहीन अन्न । उ०—प्री पढ़ाई तीन फसाई। जानहु फेर कुदेरे भाई ।--जाय मी (शब्द०)। सेर का मि नता है वह भी ग्रन्न नही, कुन्न ।--अभिशप्त, कुभा – पृ॰ [म० कुष्माण्ड ] दे॰ 'कुम्हा ' । पृ० २३ । कुभार---०३। पुं० [म० फुम्भ फोर] कुम्हार । भिराना - f5• अ० [हिं०] ६० 'कुम्हलाना' । कु प्रवसर–सच्चा पुं० [हिं०] अनुपयुक्त समये या वातावरण । उ०— कमर-मु पुं० [सं० फुमार] • 'कुयर' । उ--किर मोसो मैया जानि कुग्रसर प्रीति दुर राई ।--मानस १ । ६६ । | फिर कहि, कु मर फछुक तुतराई ।—पोद्दार अभि प्र ०, कुप्र-सबा पुं० [सं० कप, मा० कुव] पानी निकालने के लिए पृथ्वी ५० २३३ ।। में खोदा हुआ। एक गहरा गड्ढा । कृप । हैं वर-सी पुं० [सं० फु मार, प्रा० कुपार] [स्त्री० कुवरि १ विशेष—यह भीतर पानी की तह तक चला जाता है। इसके तड़11 पुग्न । वेटा । ३ राजपुग्ने । राजा फा नका। किनारे को लोग ईट या पत्थर से बाँधते हैं । इसके घेरे को जो केवराई -सया फी० [सं० कोमल मृदुता । १ कोमलता। उ०— पहले खोदा जाता है, भगाई या ढाल कहते। भगाड़ खोदे हेम यल वन सुदरलाई । फूल चरी। गाव कुवराई । जाने पर उसमें लकड़ी के पहिए के प्रकार का चक्र रखते हैं चि०, पृ० २१ । जिसे निवार या जमवट कहते हैं । इसी न्विार के ऊपर ईटो के रि-सधा सी० [सं० कुमारी] १ कुमारी। २. राजकन्या । को जोडी होती है जिसे कोठी कहते हैं। किसी किसी कोठी उ०----इफ दिन राधे कुवर, स्याम धर तेलनि भाई !-नद० में दो निवार लगाए जाते हैं। दूगर निवार पहले निवार के ३०, पृ० १६४। । पच छ हाथ ऊपर रहता है और दोनों के बीच में पसंती । व--सी नौ- [सं० [कुमारो] ६० 'कु'रि' । लकड़ियों की पटरियाँ लगाई जाती हैं जिन्हे के ची कहते हैं । हरे:---- पुं० [हिं० इयर+एटा (प्र०) 1 [वी० फेवरेटी कोठी तैयार हो जाने पर उसके बीच को मिट्टी निकाली जाती [17। नी । पच्चा । है जिससे कोठी नीचे धंसती जाती है और कुnt गहरा होता के वां-- * ० [सं० रुप मे० 'कु' । जाता है। इस क्रिया को कोठी गरलाना कहते हैं । इस प्रकार वारा- [३० भर, प्रा० र] [स्त्री० रुयारी] जिसका कई वार कोठी गलाने पर भीतर पानी का नत मिलता है । ८५१' न चुप हो । विन स्याहा । जैसे,—वह अभी कुवार पतने स्रोत की 'सौती' मोर मोटे स्रोत को 'मूमना' कहते है । ।। 3- चा को ए टी कुवारी हतो । सो झन्या के युएँ के ऊपर गुह पर जो चनून ३नाया जाता है. यह f/२६ २६ र इदन को 7 1-दो सौ वन, पृ० ३७॥ कहलाता है ऊ के मुंह पर के चौकाठे को 'जान' कहते है । ३. • पुं० [सं० पु.म] केशर । जाफरान । ३० पय०-फुप । अधु । प्रहि । उदान । प्रवः । कोट्टार । कति ।

    • ' ; परनन ए र३ । नाव में रहने जनु च।-- क। यन्न । फाट ( पाते । पत । वि । सूर । उत्स।

आप !! (३०) । पृप्यात् । फारोतरीत् । शेप । केवट