पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४५४

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कु भिक ६७० कुभोदर कए पूछलप बुरि ससार, तर सुते गढ़ फाट के भार - कभीक---सा पुं० [सं० कुम्भीक] १ एक प्रकार का नपु सक । इसे विद्यापति, पृ० ४३४ ।। गुदयोनि भी कहते हैं । कृ कि । २ कु 'मी । जलकुम । क भिक सच्चा पुं० [सं० कुम्भिक] १ एक प्रकार का नपु सकी । पुन्नाग वृक्ष । क भिका----संज्ञा पुं० [सं० कुम्भिा ] १ क भी । जनक भी । २ क भीका--सद्या स्त्री० [सं० केभीका] १ कृ भी । जलकू भी । २ वेश्या । ३. कायफल ।। अव का एक रोग जिसमें पलकों अखि का एक रोग । कु भिका । विलनी । ३ एक प्रकार का के किनारे अखिो की कोरो में छोटी छोटी फु सियाँ हो जाती रोग जो व्यभिचारियों और लिंग बढ़ाने का प्रौपध करनेवालों हैं । वैद्यक के अनुसार यह रोग विदोष से उत्पन्न होता है । | को हो जाता है ! के भिका । शूक रोग ।। इसे विलुनी भी कहते हैं । ५. परदन की लती । ६. पक रोग के भीधान्य सुच्चा पुं० [सं० कुम्भीघान्य] घडा या मटका मरे भन्ने, जिसमे लिग पर जामुन के बीज की तरह फुडिया होती है । जिसे कोई गृहस्य रिवार छह दिन, या किसी किसी के मत से यह रोग उन लोगो को हो जाता है जो लिंग बढ़ाने का इत्रज साल भर तक खा चुके । करते हैं। शुक रोग । ७ छोटा घड़ा । गगरी (को॰) । विशेप-मनु, यज्ञिवल्क्य अादि संहिताकारी के मत से प्रत्येक कु भिनी सच्चा सी० [सं० कुम्भिनी] १ पृथ्वी 1 २ जमालगोटा व्यक्ति को अपने कुटु ब के पालन के लिये कुछ निश्चित दिनो | का वृक्ष । के वास्ते अन्न सुग्रह कर रखना चाहिए। इस प्रकार रखे हुए । यौ॰—कुभिनीफल कुभिनीतीज= जमालगोटी । अन्न को 'कु भीघान्य' भी कहते हैं। कभिर- सुज्ञा पुं० [मे० कुम्भी मछली फंसाने का काँटी । बसी । कृ मीधान्य-सा पुं० [सं० कम्मीवाच्यक घड़ा भर अन्न रखने- उ०—वमी कुभिर मीहा, मच्छयातिननी नाम । बेसरसो वाली । उतना अन्न रखनेवाला जितना कोई गृहस्य छह विन उलझी जु लेट, मानो बसी काम ।-नर० ग्र०, पृ० ८२ ।। | या कि- के मत से सालभर खा मकै ।। कभिल, क भिलक संज्ञा पुं० [सं० कुम्भिल, कुम्भिलक] १ वह कभीनस-सुवा पुं० [भ० कुम्भीनस [बी• कुम्भीनसा] १ क्रूर घोर जो सेंध लगा हो। सेंघिया चोर। २ वह सतान जो सपि । २. एक प्रकार का जहरीला कोडा। ३ रावण ! अपूर्ण बगस में प्रथवा अर्पण गर्भ से उत्पन्न हो । ३ साला! कू भीनसिसा पुं० [स० कुम्भनसि] शंदर नाम का असुर । की मछली । प्रकरि ४ एक ५ साहित्यक चोरी करनेवाला। के भीनसीसच्चा सौ० [सं० कुम्भीनसी] लवणासुर की माता जो साहित्यिक चोर (को०) ।। सुमा राक्षस की चार कन्याओं में से एक थी और केतुमती के भी'- सच्चा १० [सं० हुन्निन् ] हाथी । २ मगर । ३ गुग्गुन से उत्पन्न हुई थी । या वह पेड़ जिससे गुग्गुल निकलता है । ४ एक जहरीला कडा।। | कू भोपाक-सज्ञा पुं० [सं० कुम्भीपाक] १ पुराणानुसार एक नरक ५ पारस्र के अनुसार एक राक्षस जो बच्चो को क्लेश देता। जिसमे मासे खाने के लिये पशु पक्षी मारनेवाले लोग खौलते हैं। ६ एक प्रकार की मछली । ७ मठ की संख्या (को०)। हुए तेल में डाले जाते हैं । २. एक प्रकार का सन्निपात जिसमें कभी- सच्चा स्त्री० [सं० कुम्भो] १ छोटा पड़ा । २ कायफल का नाक के रास्ते काला खून जाता पौर सिर घूमाता है । ३. पेड । ३ दत) छा पेर । दाँती ।४ पौडर का पेउ । ५ हँडिका मे पछाई हुई वस्तु (को॰) । तरबूज । ६ बसी 1 ७, एक पेड़ । कु भीपाकी- सच्चा खी० [सं० कुम्भीपाकी] कायफल [को॰] । विशेष—इ की लव इारते और मारायसी चीजें बनाने में कु भीपुर -सा पुं० [सं० कुम्भीपुर] हस्तिनापुर। पुरानी दिल्ली । काम सही हैं 1 इकी छाल से चमड़ा सिझाते और रस्सी 5 । कु भीमद-सहा पुं० [सं० कुम्भीमव] हाथी के मस्तक से चूनेवाला बटते हैं, और फेल, जिरे कुन्नी (खुन्नी) कहते हैं, पंजाब के 5 में भदजन [वै] । लोग खुद खाते और पशुओं के खिलाते हैं । 4. कु भीमुख-सया पुं० [सं० कुम्भमुख) चरक के अनुसार एक प्रकार ६ एफ 1नस्पति जो जलाशयों में पानी के ऊपर फैलती है। | का फोडा । जलकुंभी । के भीर--संज्ञा पुं॰ [सं॰ कुम्भीर] १ नऊ या नाक नामक जतु जो जर विशेष--इके पत्ते चार ,चि झगुत्त लवे और उतने ही नौड़े तथा में होता है। २ एक प्रकार का छोटा क्रीडा । ३ एक यक्ष । मोटे दल के होते हैं । इसकी जड़ भूमि मे नही होती, बल्कि कभीरक - सच्चा पुं० [सं० कुम्भीरक] चोर (को०] । पानी पर स्वइ के नै चे होती है । यह फुलती फलती नहीं दिखाई । १ । ११ । फलता हाबिखा६ कु भी रासन-सज्ञा पुं० [म० कम्भीरासन] योग में एक प्रकार का देती, पर इसके बीज अवश्य होते हैं। इसकी बहुत सी जातियाँ। | असन, जिसमें भूमि पर चित लेटकर एक पैर को दूसरे पैर होती हैं जिनकी पत्तिय भिन्न भिन्न प्रकार की होती हैं । पर और दोनो हाथों को माथे पर रख लेते हैं । ६ एक नरक का नाम । भीपाक नरक। १० सलई का पेड । कृ भील, कृमीलक-सच्चा पुं० [सं० कुम्भल कन्भलक] १ त'कर । ११ गनियारी या अण का पेड। १२. तल । अाधार । उ० | चोर । २ नऊ । घडियाल [को०] । उन स्त- की कु भियों ( अधार ) पर शिल्पियो ने एक कुमीवल्क-सञ्ज्ञा पुं० [सं० कुम्भीवक ! वयफर को॰] । एक करके 'अ' को छोड़कर 'अ' से 'ट' तक के क्षर खोद के भेर-सधी चौ० [सं० कम्ने] खभारी । स्वभारि । गभरि । डाले हैं।—भा० प्रा० ल०, पृ० ४६ ।। कभीदर--सा पुं० [सं० कुम्भोदर] महादेव के एक गण का नाम ।