पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४४८

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फ़ जविहारी कडपायनामयन् - दि पायो जेही गर निगरयो । सूरदास प्रभु रूप थक्यो मन कु ठित---'३० [सं० फुण्ठित] १ जिसकी धार चौघी या तीक्ष्ण न मु जल प क परयो ।--सर(शब्द०)। हो । ऊ दे ! गुठ । उ०—-पहुई न हाय दई रिम छाती । कू जविहारी- संज्ञा पुं॰ [फुजविहारिन] १ कु जो में बिहार करने भा कुमारकु ठित नुपघाती । तुलसी (शब्द०)। २ मद ।। | वाला पुरुष । २ श्रीकृष्ण । वेक'म । निकम्मी । जैसे—तुम्हारी बुद्धि के ठित हो गई है। कू जा' - सा पुं० [सं० क्रौञ्च, प्रा० कुच मच्च, राज० कुज, कूज, ३ गुल्लीत । ग्रहण fFया कृपा (को०)। ४ दिन । परिवर्तित कुफ, फ] च पक्षी । उ०—अवर कुजा कुर'लयी गरज (को०) । ५ मूर्य। जड़ (को०)। ६ बाधिन । विनित । भरे रा तन । जिनि १ गोविद वीटें, तिनकै कौण हुवाल । अपहृत (को॰) । ---कीर रा० पृ ७ । कु ---सा पुं० [सं० कण्ड] १ चौ३ है का पहरा पतंन । के हर । २ । कू जा--सज्ञा पुं० [अ० फूजा] पुरवा । चुक्कड । उ०—प्याली एक प्राचीन काल का मान विरासे नाज नापा जाता था । ३ ।। गंगा जल टोकन गगा सागर । कु जा जपूइवा और तौबे छोटा बँधा हुमा जलाशय । वहुत छोटा तातार । जैसे-भरत- की गागर 1--सूदन (शब्द॰) । कु छ, सूर्यकु छ । ४ पृथिवी में बौदा हुया गड्ढा भयद! मिट्टी, कू जा९६---सज्ञा स्त्री० [सं० फेञ्चुक] ॐ चुन । निमक । उ०-नानक घातृ अादि फोर बना हुआ पात्र नसमें अग्नि जलाकर अग्यि | देह तजे ज्यो के जे मनु विरदान समाना ।—प्राण ०,१० ६६ । अदि करते हैं । उ०—ज्ञ पुम्प प्रसन्न सय भए । निकसि कू जिका-सा स्त्री॰ [स० कुञ्चिका] १ कृष्ण जीरा । कालाजीरा । कु छ ते दरसन दए । • ग्र० ४।५। ५ वटलो; 1 स्याली । | २ केजी । ३ टीका । ग्रंथ की व्याख्या । ६ जन्न पात्र । कमलु (फो०)। ७ शिव का एका कु जित- वि० [सं० कृजित दे० 'कूजित' । नाम । ६ एक नाग का नाम :--प्रा० भा०, १०, क जी--सज्ञा स्त्रो० [सं० कु जि फा] चाभी । ताली । वृ कु जी पृ० ८६ । ६ धृतराष्ट्र का एक लडका । १०, ऐसी स्त्री का उनकी जान शी है। दिन मेरा कुफ्त है वेवाशे का ई- जारज लइका इसका पति जता हो । ११ मुरारी । कविता कौ॰, भा॰ ४, १० १६ ।। पूना । गठ्टा । जैसे—प्रेकु ।। १२. ज्योतिष के अनुगार पाहा -- (किसी की) कु जी हाथ में होना = किसी को वश में चट्मा के मडन । एक भेद । १३ गवं । गड्ढा । उ०--- होना । किमी की चाल या गति को वश में होना । जैसे,-- उदै रुइ भु मैं परे मुड लोटे । मरे के इ लोहू वहै। वे तुमसे कुछ न बोलेंगे उनकी कु जी तो हमारे हाथ में हैं। बीर टोल --म्भीर०, पृ० १६ ! १५ है की २ पुग्नक जिमसे किसी दूसरी पुस्तक का अर्य खुले । दीका । टोप । के। खद । उ०—(क, तीर तरवारि मेला बग्छ। क झr कु झीGf--- सच्चा सी० क्रिौञ्च, क्रौञ्च] एक पक्ष । १५ कू' जा'। ०--(क) कु को द्यउ नइ पवाडी, थाकउ विनउ बदूक हाथ प्रायस के $ ४ माय करने पनाह के । गोपाल ( शब्द०) । (ख) कुइन के ऊपर कड़ाके उठे और टौर - दहेसि |--ठोला०, ६० ६२ । (ख) कु झी परदेसी किरे, अब धरै घर माई !-—दरिया० वान, पृ० ४।। भूप] प्र०, पृ० ७३ । ७ १५ हौदी । उ०—दि चित्रिवे के टई-- सद्या पुं० [हिं०] कोण । दिशा । खुटे । उ०—प्रठसठ तीरथ सु ड भुसुड पै सोभित कचन कु ड प । नुप सजेउ चलत उदु झुड पगि 'मर्ने साधु निरखून जपि । चारि फुट चौदह भवन निरखि १ जिमि गजे मृग सिर पु उ ६ ।--गोपाल (शब्द॰) । १६ धी रोग के आठ पुग्न में से एक का नाम । स०-सावा | निरखि विगसाय ।—प्राण०, पृ० १८ ।। साग सागरी गधारी भीर । अप्ट पुत्र श्री राग के गोल कु छ कु टल - सझा पुं० [अ० क्विन्टल] एफ तौल जो १०० किलोग्राम गभीर !-माधदानल०, पृ० १९४। की होती है । कु डक-सज्ञा पुं० [सं० कुपडफ] १ पाश् । २ मटका। कु डा। कु ठ--वि० [सं० कुण्ठ] [सझा कुण्ठता, फुण्ठत्व । वि० फु ठित ] १ बो। ३ घृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम (को॰] । चौग्वा यह तीक्ष्ण न हो। गुठला । भोथरा । फु द २ मखें । क हकीट-सा पुं० [कण्डफीट] १ चावकि के मत का अनुयायी । स्थूल वृद्धि का 1 कु दजेहन । ३ अलसी । सुस्त (को०)।४। पतित ग्राह्मणी पुत्र ! ३ रस्बेनी या सुतिन के रूप में। कमजोर 1 निवल (को॰) । किसी स्त्री को रखनेवा (को॰) । यी०-- कु ३धी। कुइमना = मूर्ख । कु दर्जहुन । कू डकोल—संज्ञा पुं॰ [टील] नीच या जगली ?यक्ति (को०)। कु टक--- वि० [स० कु ठक] बुद्धिहीन । नासमझ (को०) । कू डकोदर)---वि० [सं० कुण्डकोदर] के डे या मटके की तरह पेट कुठ-सच्ची श्री० [सं० कुठ+] १ खीझ । चिढ़। २ निराशा । वाला [को०] । ३ भने ३ गाँठ। मानसिक ग्र थि । उ०—ो तिक्त मधुर के डोदर-सा पुं० १ शिव जी का एक गण । २ एक नाग का कु ठा निठुर पावक मरद रज के युग मन --मतिमा, नाम को०] ।। पृ० १३८ । कू डगौल, कु डगोलक–सा पुं० [स० माण्डगोल, कुण्ड गोल] कॉजी । यौ००-कु जति = निराशा, खीझ या मन की अतृप्त इच्छाप्रो से कु डनी-सा स्त्री० [सं० कुण्डनी] मिट्टी का बहा धरतन को०] । बना हुगा । ३०- ने तो घाब के समूचे साहित्य को कुठाजातू कू डपायिनामयन–सम्रा पुं० [सं० कपडपायिनामयन] एक यज्ञ । माना है। हिं० प्र० प्र०, पृ० ३। जिसमे यजमान को २१ रात्रि तक दीक्षित रहना पड़ता है।