पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४४७

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के उपायौ कुंडलिया और उसके एक मास के उपरात सोम साह करने के लिये । | अनाथ को अनाथ झोन मोसो । मो तगान अरन नहि जाना पड़ता है। अरनिहर तोस । कुडपायी–सम्म पुं० [सं० कुण्डपायिन्] १ सोम्याग करने वाला वह कुडलपुर-सज्ञा पुं० [स० कुण्डलपुर] दे॰ 'कु डिनपुर' ।। यजमान जिसने १६ ऋत्विज से सोम सत्र कराके कु डाकार कु डलाकार-वि० [सं० कुण्डलाकार] १ वतु लाकार। गोले । २ चमचे से सोमपान किया हो । २ याज्ञिको का एक संप्रदाय मड किार ।। जिनके पूर्वज कु डपायी थे या जिनके कुल में सोमयाग में कुडी कु डलि -सच्चा पुं० [सं० कुण्डलि] स । पनाग । उ०—मेरु कछु झार चमसे से सोमपान होता था। न कछु दिग्दति न कु उलि कोल कळू न कछु है ।—भूपण ग्र ०, विशेष- ऐसे लोगों के अयनयागादि ग्रौ से कुछ दिलक्षण हुआ करते थे । अश्वलायन श्रौतसूत्र में इनके शयनयाग का पृयक कु डलिका-सा क्षी० [सं० फुलिका] १ मुडलाकार रेबी । २ विद्यान मिलता है। जलेबी नाम की एक मिठाई । ३. कु छलिया छंद । कु डर –संझा पुं० [सं०कुण्ड+र(प्रत्य॰) अथवा कुण्डल= घेरा, मंडल] कूडलित- वि० [सं० कण्डलित] १ जो कु उनी मारे हुए ही । जो दे० 'कु उन'। उ० - ना भी कु डर बनारसी । सौंह को होइ फेटी मारे हुए हो । कई बलो में घूमा हुन । २ कुडल नामक मीच तहँ बत्ती ।—जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० १६६ । । भूपण से युक्त । उ०—-कोमल कुटिल के उलित कनका कु डरा-सा पुं० [सं० कुण्ड या हि० कु डर १ के डा। मटका । भरणे भूषित कान।—वणं, प.०४ । उ०अस कहि इकु कु इरा मँगायो । निज तु वा तेहि औंध कू डलिनी-सद्या स्त्री० [सं० कु उलिनी] १ तत्र चोर उसके अनुयायी करायौ ।—रघुराज (शब्द॰) । २ दे० 'कुंडर' ।। हठयोग के अनुसार एक कल्पित वस्तु, जो मुलाधार में सुषुम्ना कु डल-चं पुं० [सं० कुण्डल] १ सोने । चाँदी अादि का बना हुआ। नाडी के नीचे मानी गई है । एक मंडलाकार भूपण जिसे लोग कानो में पहनते हैं । विशेष—यह वही साढ़े तीन कु उनी मारकर त्रिकोण के प्रकार बाली । मुरकी । उ०-घुघरारी लटे लटकै मुख ऊपर कु इल में पड़ी सोती रहती है। योगी लोग इसी को जगाने के निये लोले पोलन की ।—तुलसी (शब्द॰) । पहिए के प्रकार अष्टांग योग को साधन करते हैं। अत्यंत योगाभ्यास करने से का एक अभूपण जिसे गोरखनाथ के अनुयायी कनफटे कानो में यह जागती हैं 1 जागने पर यह साँप की तरह अत्यत चंचल पहनते हैं । यह सीग, लकड़ी, कांच, गेंडे की खाल तथा सोचे होती है, एक जगह स्थिर नही रहती और सुषुम्ना नाडी में होती अादि धातुयो का भी होता हैं। ३ कोई मंडलाकार ग्रामूपण हुई मूलाधार से स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, अग्नि जैसे-का, चुडा अादि । ४. रस्सी अादि का गोल फंदा । ५. और मेशिखर होती हुई या उन्हे भेदती हुई ब्रह्मरंध से लोहे को वह गोल मंडरा जो मोट या चरस के मुंह पर लगाया सहस्रार चक्र में जाती है । ज्यों ज्यो यह ऊपर चढ़ती जाती जाता है। मेखडा । मेरी । ६ कोल्हू के चारों ओर लगा हुआ। है त्यों त्यो साधक में अलौकिक शक्तियों का विकास होता गोल वद ७ किसी लवी लचीली वस्तु की कई गोल फरों में जाता है और उसके सासादिक वधन ढीले पड़ते जाते हैं। ऊपर सिमट कर बैठने की स्थिति । फेदी । मजल । जैसे,— सोप के सहस्रार चक्र में उसे पकड़ कर योगवल से ठहरना और सदा कुडल वाँधकर वैठा है । के लिये उसे वहीं रोक रखना हठयोग के साधको का परम क्रि० प्र० वाँघना ।—मारना । पूपार्थ माना गया है। उनके मत से यह उनके मोक्ष की ८. वह मड़ल जो कुइरे या बदली मे चद्रमा या सूर्य के किनारे साधन है। किसी किसी तंत्र का यह भी मत है कि कु डलिनी दिखाई पड़ता है। नित्य जगती है और वह बीच के चक्री को भेदती हुई सहस्रार क्रि० प्र०—में बैठना । कमल में जाती है और वहाँ देवगण उसे अमृत से स्नान करावे ६. छद में वह मात्रिक गण जिसमे दो मात्राएँ हो, पर एक ही हैं। उनका कथन है कि यह कु डलिनी मनु के सोने की अक्षर हो। जैसे -'थी' । १०. वाईस मात्रा का एक छद अवस्था में ऊपर चढ़ती है खीर जागन के समय अपने स्थान जिसमें बारह और दस पर विराम होता है और अत में दो मूलाघार में चली जाती है । गुरु होते हैं । पर्या--टिलगी । भुयी। विबरी। अपित । अरु पती । विशेष—इस छंद में अतिम दो गुरु के अतिरिक्त शेष अठारह मान्न का यह नियम है कि पहली बार मात्रामो के शब्द या २. जलेबी नाम की मिठाई । इमरती । ३. गुडुची। गिलोय । तो सब विकल वा त्रिफल अथवा दा त्रिकुल के बाद तीन विकल के डलिया-सी धी० [सं० कुण्डलिका, प्रा० अलिब्रा) एड्स अथवा तीन दिकल के बाद द। त्रिकुल होत है और शेष बारई मात्रिक छद जो एक दोह और रोल के योग से इस प्रचार मात्रामो म त्रिकुल के पश्चात् त्रिकल या तीन दिक बनता है कि दोहे के अतिम चरण के कुछ शव्द रोले के सानि होते हैं। इस छद के चरणात में अगर एक ही गस हो तो उसे मे अविनाले अाते हैं। जैसे,—गुण छ यहि सहस नर विनु याना दिये हैं। जैसे,—तु दयालु दीन हौं तु यानि च गण लहै न मोय । जैसे मागा कोकिला शब्द सुनै सव कोय । भिखारी है। प्रसिद्ध पुकी तु पाप १ ज ६ । नाय तु शब्द सुने सब कोय को क्रिला सर्व सुहावन । दोऊ के एक रये । कुरली ।