पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४४३

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कीनाल' कीर्तनिया कीर्तनि –सुज्ञा पुं० सं० कीर्तन+हि० इपा (प्रन्य) ] कृप्यतु २ वह मठ गर्भ जो योनि में अटक जाता है ३ नाक में पहनने लीला संवधी भजन और कवा मुनानेवाला । कीर्तन करने का एक छोटा अमूपण, त्रिका प्रकारे नींग के Tमान होना वाला । उ०-कीर्तन या सो कोम विस, संन्यासी सो तीस ।- है। लौंग । ४ मुहासे की मामको न । ५ स्त्री प्रजग में एक कवीर सा० सै०, पृ० ६२ । प्रकार का ग्रासन जिसे 'की सन' कहते है । ६ जाँते के कीर्ति-सा सी० [सं० कोत] १ पुण्य । २ ख्याति । वडाई । वैचोवीच का बूटा जिनके अाधार पर वह पड़ा रहता है। नामवरी । नेकनामी। यश । ७ वह खूटी जिसपर कुम्हार का चाहे घमना है।८ अर यौ०-कीर्तिस्तभ । की लवर । अग्निशिखा । ६ दे० 'कोलक' । १० भोला ३ सीता की एक सखी का नाम । ४ अर्या छद के भेदों में से (को०)। ११ अस्त्र (को०)। १२ कुहनी धेना या मारना एक । इसमें १४ गुरु और १६ लघू वण होते हैं ५ दशाक्षरी (को०)। १३ सुक्ष्म कण (को०)। १४ शिव (को०)। १५ वृत्तों में से एक वृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में तीन सगण और जुआरी । १६. एक प्रत (को०) ।। एक गुरु होता है । जैसे,-शशि हैं संकलक खरो री । अकलकित को २–सुच्चा स्त्री॰ [देश॰] खगी या देवक सु जो अासान की गार कटासरी वनों में से एक वृत्त, जो पहाडियो में होती है । इद्रवज्र के मेल से बनता है। इसके प्रथम चरण का प्रयम को नाक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ खुटी । कील । २. गो और मैं । के अक्षर लघु होता है और शेष तीन चरण के प्रथमाक्षर गुरु वधिने का खुटा । ३ तंत्र के अनुसार एक देवता। ४ किमी मत्र का मध्य भाग । ५ वह मूत्र जिसमें किसी ग्रन्य मन की होते हैं । जैसे—मुकुंद राधा रमण उचा। श्री रामकृष्ण मजिवो सँवारो। गोपाल गोविंदहि ते पत्ता]। ह्व हैं जबै सिंधु शक्ति या उसका प्रभाव नष्ट कर दिया जा ।। ६ ज्योतिष में भव उवारो। ७ प्रसाद । ८ शब्द । ६ दीप्ति । १० मातृका प्रभव अादि ६० वर्षों में से ४२ व वर्ष । विशेष । ११ विस्तार । १२ कीचड़ । १३ एक ताल(वर्गीत)। विशेष—इस वर्ष अमंगलो का नाश होकर सब जग; मग । और १४ दक्ष प्रजापति की कन्या और घर्म की पत्नी । सुद्ध होता है । कीतित--वि० [सं० फीति 1 [ वि० स्त्री० की तिता ] १ कथित् । ७ एक स्तव जो सप्तशती पाठ करने के समय किया । 1 है । ८ केतु विशेष ! कहा हुया १ वfणत । २. जिस यश गाया गया हो । यौ--कील कन्याय । प्रशसिंत । ३ यात । ४ कुब्यात (को॰) । कीलक-(सज्ञा ती० [हिं०किन्न ३० ‘कि दक' । ३० --उपासाशक्ति कीर्तितव्य–वि० [सं०] कीर्तन योग्य (को॰) । श्याम सुंदर जू कीलक सेव थल मोहै ।-श्यामा पृ० १६३। तिदा- वि० [कत्ति(= यश} + दा ] यशोदा । कीलन--संज्ञा पुं० [सं०] १. वचन । रोक । रुकावट । २ कि ती मयं कीतिमत-वि० [सं० फीतिमत] दे० 'कीर्तिमान' । उ॰—प्रय महि । फो कील देने का काम । एक टायिका या मात्रिक क्रिया ।। कोतिर्मत सुत भयो । वसुदेव ताहि लय ही गयौ !--नेद० कीलना-क्रि० स० [सं० कोलन ] १. मेद जड़ना । कील नगाना । | J०, पृ॰ २२२ । २ किसी मंत्र या युक्ति के प्रभाव को नष्ट करना। ३ सय कोनिमान्-वि० [सं० कीतिमत्] यशस्वी । नेकदाम । मशहूर । विख्यात । को ऐसा मोहित कर देना कि वे किसी को कोई न सके । ८. कोतिलेखा—सुज्ञा स्त्री० [स० कातिले खा] कति की रेखा या चिह्न । अधीन करना । वश में करना । ५ तो की न । में आगे की उ०--ौर अाज गंगा के उत्तरी तट पर विदेह, वज्जि, लिच्छवि ओर से कसकर लकडो का कु दा ठोकना जिनमें से पचाई न और मल्लो का जो गणतत्र अपनी पति से सवन्नत है वह जा सके। उन्हीं पूवजो की कोतिलेखा है । --इद्र०, पृ० १२५ । कीलमद्रा--संज्ञा स्त्री॰ [स० कील+ मुद्रा] ३० कलाक्षर' । कोतवत - वि० [सं० फीतनत ] दे० 'कीर्तिमान् । कील सस्पर्शसुच्चो पुं० [सं०] एक वृक्ष का नाम (को॰) । कीतिवान–वि० [हिं० फीतिमान ! दे० 'कीर्तिमान् । कीला--सच्ची पुं० [सं० कील ] १ गडी कीन। कोटा । किं । दे० 'कान कोतिशादी-वि० [ नं० कीतिशालिन् । कति मान । यशस्वी ! ६, ७' । उ०—प्रानै पाने जो कि निपट पिंगा गो । कीतिशेप--वि० [सं० फीतिज्ञेय 1 दिवंगत कोनिमान् । म हुमा कीला से ले गा र तु विपन न हो र |--कीर सा०, यशस्वी । जिसकी कीति ही शेप हो । नामशेप । अलेप । पृ० १२ । कितिस्त भएछा पुं० ( सुं० कीनिस्तम्भ ] १. वह स्तं में जो किसी की कोलार--सज्ञा पुं० [सं० ल+अधार एक प्रकार की बहुत प्राचीन कति को स्मरण करने के लिये बनाया जाय । २. वह कार्य लिपि जिसके अक्षर कील के प्रकार के होते । इम लिपि के या वस्तु जिमके द्वारा किसी की कीनि स्थापी हो । ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व के कई 7 उपए देश में पाए गए है । उ०—ये लेख मिट्टी की पट्टि पर की.' में निते कलि'—सी स्त्री० [सं०] १ लोहे या काठ की मेख । कोटा । परेग। गए हैं।- भौज० मा० सु! ०, पृ० १५ । | टी ।। यो०- कीले पदा=(१) लोहार या चई का औजार । (२) की [ल'-: सच्चा पुं० [सं०] १ अमृन । २ ज ।। १२ । ३०-प्रभ हरवा हथियार। उ० --सुनो तो पहने हो में कील काटे से कम ने कनाल जन पय पुरकर व बाई 1--सने कह:4०, प० ४९ । लेस् या ।—फिसाना०, ५० ३, पृ० ३८३ ।।