पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४४१

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कप . कीटमणि से । चु०--हरि विन सयं मया राना । पढि पछि झकत यौ० --कीदभृगन्याय । कीarन! ।-राम० धर्म०, पृ० ३३३ । टिमणि--मुझ सौ॰ [सं०] जुन । खद्योतन् । कीटमवार-सा पु० [सं० कोहे, हि० अवारना] एक सप्रदाय का कोदउँ --प्रच्य० [हिं० कध] दे० 'की' । नाम । उ०—पश्चिम र शारदा मठ कीटमवार से प्रदाय का कीदृश–वि० [सं०][वि॰ स्त्री० कीदृक्षी] कैया (कः या प्रकृति मे) [को०) । क्षत्र-सिटेरर देवता [–अवीर मं०, पृ० ६२ । कीटमाता--सुज्ञा सी० [सुं० फीटमातृ] लाव को०] । की, कोदश–वि० [सं०] [वि स्त्री० कीदृशी] कैसा (प या स्वभाव मे) को०) । कीटा--सा पु० [सं०] अत्यन्त छोटा कीड़ा। सूक्ष्मतम फीट । ऐसे छोटे कौढ जो सूक्ष्मवीक्षण यत्र से दिखाई पड़ या उनसे भी कोन-सा पु० [फा०] १ घृणा । २ शत्रुता ३. मनोमालिन्य ) न देखे जा सके। | ४ प्रतिशोध । उ०--हर चार तरफ कारे हद धुगजी कीन विशेप-ये छोटे छोटे कीड़े अखिों से दिखाई नहीं देते और सुख्या | का, देखो जिधर को जा के तमाशा है तीन का ।—कवीर म०, तीत परिम ण में पाए जाते हैं। सूक्ष्मदर्शक यंत्र से ही इन्हें पृ० २२३ । देखा जा सकता है। पश्चिमी इक्टरों ने रोगों का कारण कीन)---वि० [फा० कीनवर] शत्रुता या वैमनस्य रखनेवाला । कियों को माना है । हैजा, ताऊन अादि रोग इन्हीं के द्वेपी । उ॰—जो कोई कीन जानि मीही, तेहिका दूरि कारण फैनते हैं । बहाव - -जग० वानी०, पृ० ११ । कीटविपन्न--वि० [सं०] १ कीटग्रस्त । कीटयुक्त । २. कीड़ा द्वारा। कीन-सा पुं० [स०] मात्र [को०] । छाया हुश्री [को॰] । कान ७'T-वि० [६° पारना या फाटका- सा वी० [सं०] १. क्षुद्र कीट । छोटा कीड़ा। २. तुच्छ का भूत फदत रूप किया। वि.या हुअा।। प्राणी या जीव कौ] । कीनखाव--सबा पुं० [फा० फमल्पाव] दे० 'कमखाव' । कोटाकर- सवा पुं० [सं०] वल्मीक । दमौट [को०] । कोड-सवा स्त्री० [सं० झी, प्रा० कोड, कील दे० 'क्रीड़ा' । कीनना--- क्रि० स० [सं० क्रोणन] खरीदना । मोल लेना । ऋय करना । ०-- अवई। पर समुझि के,फाँधे पर दुख मार। खेल की फोनर --सा भी [हिं० किगिरी] दे॰ 'कि गिरी । उ०—अनहद ति पाइद, जद गवर्नब ससुरपुर ।-इद्रा०, पृ० ४१ । | ताल पखाउज कीनर स्राना सुमति विचारामुं० दरिया, कौड़ा-सा पुं० [सं० कोट, प्रा० कोढ] १ कोट । छोटा उड़ने यो पृ० १५५ ।। रेंगनेवाला वतु । मकोड़ा । जैसे, कनखजूरा, बिच्छु, भिङ अदि। कीना--सच्चा पु० [फा० फीन.] द्वेष । बेर । शत्रुता ! दुश्मनी । उ०- यौ०-कीडा फतिंगा। कोडा मकोड़ा। किंवर हौर कीना कर पाक इस सीना !-दक्खिनी०,१०५२। २ कृमि । सुक्ष्म कोट । क्रि० प्र०—रखना। मुहा०---कीड काटना=चनचनहट होना । वेचैनी होना । यौ॰---मीनाक्षी = द्वेष रखनेवाला । मन में मेल रखनेवाला । चचलता होना । जी उकताना। जैसे, दम भर बैठे नहीं कि फीनापरवर= कींना रखनेवाला । कीनावर = मन में दुर्भाव या कीड़े काटने लगे। कीड़े पहना=(१) (वस्तु में) कीड़े उत्पन्न होना । जैसे,—घाव में कीड़ पञ्चना । पानी में कीडे पना द्वैप रखनेवाला । (२) दोष होना । ऐद होना । जैसे—इसमें क्या कीड़े पड़े हैं। कीनार-संश्च पुं० [सं०] दुष्ट या बुरा अादमी (को०] । वो नहीं लेते । कीड नगना = धार से माकर कडो का कोनाश'—सज्ञा पुं० [सं०] १ यम। मृत्युदेवता। एक प्रकार का किसी वस्तु को खाने या नष्ट करने के लिये घर करना । वानर । ३. कसाई । वधिक [को०] । जैसे----कृपडे कागज अादि में कोई लगना । कीनाश-वि० १. गीत । दरिद्र । अकिचन । २ छोटा । क्षुद्र । ३ साँप । ४ । खटमल अादि । ५ थोड़े दिन का बच्चा । । ३ योद्धा | अल्प ।४ वंचि से मारनवा ना ।५. खेती करन- कड़ाक़ीडी–चा स्त्री० [सं० क्रोडक्रिीदित बच्चो का एक खेल । वाला।६ शूर। निर्दय (को॰] । उ०-सामने गवि के बच्चे कीछाकीड़ी का खेल खेन रहे कोनास-सी पुं० [सं० कोनाश] १. यम । यमराज ।-(fइ०) । घे --फूलो०, पृ० ८ ।। २ एक प्रकार का बदर । ३. किसान । खेतिहर ।। कीडी--सुवा स्त्री० [हिं० फोड़ा का लेव्यर्थक स्त्री०] १. छोटा कीड़ा। कीनियासुवा पुं० [फ० क्वीन कपट रखनेवाला । वैर रखनेवाला । २. वीटी । पिपीलिका । उ०-कीड़ी के पग नेवर बाजे सो । | कोप–स स्त्री० [अ० कीफ] वह चोगी जिसे उग मुह के वरत भी साहवे सुनता है ।-कवीर श०, प्रा० १, पु• ३९ । । में इसलिये लगाते हैं जिसमें तेल, अकं आदि द्रव पदार्य उसमे झीतमिफा--सा स्त्री० [सं०] जेठी मधु । मुलेठी को ! ढालते समय वाहर न गिरे । छुच्छी ।। कृति --वि० [हिं० कौतया देती] कितना ही । उ०—पुजौ यहि भनौ जो चाहो । विनु नांगै कोतवु सर गाहो |--नंद० २, फाप सा पुं० [डि०] रस । उ०—कज वेन अलग धों. पृ० १६० । अलग सिंहल दोष । किम इण वन नै केहुरी, के मा थल रौ कीतar-वि० [स० कीमत्, द्वि० किठना] भित्वे हो । बहुत उप अधी , भा, १५ । --