पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४३८

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किलोहड़ी किशोर होती है । इसका रग वा ही होता है और यह नाव के प्रस्तुत किवाड-सा पुं० [सं० कपाट, प्रा० केवडि] [• झिवाडी] लकही वनाचे के काम में अधिक अाता है। का पल्ला जी द्वार बद करने के लिये द्वार की चौखट में जड़ा किलोहडा –संज्ञा पुं० [३०] छोटी उम्र के बैल । उप--कृढे जीभ । जाता है । (एक द्वार में प्राय दो पल्ले लगाए जाते हैं) । किलो ६षा ३ ध न झाले भार }-वाकी० यं०, 'मा० १,१० ४१ ।। पट । कपाद । उ०—(क) गोट गोट सखि सद गेति बहराय । किलौनी--सच्चा झी० [हिं० किलनी] ३० किलनी' । में उर किवाड़ पह" दे f-झ लय -विद्यापति, पृ० २७९। किल्की, किल्वौ--- पुं० [शिल्फिन्, किल्विन्] घोड़ा [को॰] । (५) भू ने गए रस रीति घनीति झिाड न खोले ।—कविता किल्विखG--सा ९० [स० किल्विष] दे० 'किल्बिष'। उ----ऐन F०, मा० २, ९० १०० ।। बृजिन दुकृत दुरित भघ मनीन मसि पछ । किन्थिक्ष कल्मुख । क्रि० प्र०—-उफाना ।—सिना ।—पकानी ।—वद करनी । कलुष पुनि कस्मल ममल फलक --अनेकार्थ, पृ० ५५ । मुहा०—किपाळ देना लगाना या भिडाना=किवाड बंद करना। किल्विषसमा पुं० [स०] १ पाप । ३ अपराध । ३. बीमारी ।। | झिवा झटबटाना = किवा बुलवाने के लिये उसकी कुडी ४ विपत्ति । ५ धूर्तता । ठगी । ३. शत्रता । वैर को॰] । हिलाना या उसपर घात करना। किल्बिषी---वि० [सिल्विपिन् ] पापी। पातकी (को०]। किवाडी-सच्चा शै० [हिं० डिवा+ई (प्रत्य॰)] दे॰ 'किवाड'। किल्लत-शा बी० [अ० किल्लत] १ क मी । न्युनता । ३ कोच ।। उ०—दिन यही कठिनाई के साथ वीतने लगे, बुरी होती | तंगी। ३ दुर्ल में होना । दुर्ल मत ।। है, जब कोई व्योत न रहा, तो घर की कब और किवाडी किल्ला---सञ्ज्ञा पुं० [हिं० किन] बहुत बड़ी कील या मेघ । खुटा । तक वेंच दी गई पर ऐसे कितने दिन चल सकता है ।-- २ लझी की व मेध जो जीते के बीचोबीच गद्दी रहती है। ठेठ, पृ० ४३ । और जिसके चारों योर पति घूमता रहता है । कील । किवार--सा पुं० [सं० झपाट, प्रा० फवाङ, हि० किड् ] दे मुहा०-- झिल्ला गाकर घठना= अटल होकर बैठना। 'किवा' । उ०—ज्यों में खोले किवार सौ ही अादि न लेवढ़ि। किल्ला-सा पुं० [अ० किय] ३० किला' । गौ गरे ।—बनानद, पृ॰ ३६६ । किल्ली-- सुशा स्त्री० [हिं० होल] १ कील । खुटी । मेख । उ०-- किवारी -सा झी० [हिं० किवाडी] दे॰ 'किवाड' । उ०—नाम सयो १बर मतिही करिय कितनी ते ढिल्लिय |---चद पान मै कहाँ विचारी । जाते छुटै मर्म किंवारी ! - कौर (शब्द०)। २ मिटझिनी । पिल्ली । २ किसी कल या पेंच स०, पृ० ६६५। की मुठिया जिसे घुमाने से वह चले । किशदा--सवा पुं० [फा० किश्ता] एक प्रकार : छोटा शफनानू । क्रि०प्र०- -ऐंठना ।--[माना ।—दबाना । विशेष--इसका मुरब्ब पड़ता है और इसकी गुठलियों से चौदी महा०-- किसी भी फिर ली किसी के हार में होना = किसी का साफ की जाती है । वश किसी पर होना । पिसी की चाल किसी के हाथ में होना । किशनतालू-न्सच्चा पुं० [ स० कृष्णतालु ] वह हाथी जिभका ताल जैसे-- बह हुन में भागकर किधर जायगा, उसकी किल्ली तो काना हो । हमारे }T में है । शिशी इमाना या ऐठना = देव यापेंच । विशेष--ऐसा हायो अच्छा समझा जाता है । चलान । युक्ति लगाना । जैसे,—उसने न जाने कैसी किल्ली किशमिशः–मुज्ञा पुं० [फा०] [वि० किशनिशी] मुखाया हुआ। छोटा ऐंठ दी है वह कोई इमारी बात नहीं सुनता ।। लबा वेदाना अगूर । सुखाई हुई छोटी दाख । वि० ३० 'अगूर' । किल्विष–स पुं० [सं०] ! पाप । अपराध । दोष । २ रोग । किशमिशी-वि० [फा०] १ किशमिश का । जिसमे fशमिश हो । व्याधि। २ किशमिश के रग का । किल्हौरी--सा पुं० [देश॰] १ बछड़ा । २.किशोर अवस्था का किशमिशी.-सुज्ञा पुं० एक प्रकार का अभौम रग । वालक । उ०—पताना छरहरा क्या ही खूबसूरत किल्होर विशेप--यह किशमिश ॐ ऐना होता है और इस प्रकार बना था ?--रति०, पृ० १३८ । हैं—पहले कपड़े को धोत्र उसे हड़ के पानी में डुवाते हैं फिर किव--अव्य० [अ० क्वेिं] कसे । उ०—-अाज उमाइड मो गेरू देकर हुल्दी और उसके उपरांत तुते या प्रनार की छान घउ, ना जाण किव के । पुष्प परायउ वीर वड, अह इ मे रगकर सुखा लेते हैं । दूसरी रीति यह है कि कप की फुरवकइ के ।--ढोला०, दु० ५१८ । ई गुर में रंगकर सुखाते हैं और कटहले की छान, कुसु हर किवरिया :-सच्चा बी० [सं० कपाटिका] छोटा किवाड़। द्विवाणी। मिगार र तुन के फलों के अर्क में उसे रगते है। उ०—(क) बली झिरिया मिटि अँधियरिया -घरम०, घरम, किशुल-सा पु० [सं०] दे० 'किशलय' (को०)। पृ० ५३ । (ख) अाठ मरतिव दस दर्वाजा. नों में लगी । किवरिया ।-कवीर श०, भा॰ १. पृ० ५५ किशलय--सच्चा पुं० [सं०] नया निकला पत्ता 1 कोमल पत्ता । कल्न । किवच--संज्ञा पुं० [हिं० फेवाच दे० 'केवॉच' । उ०-नूतन किया नय मन कृशानू ---नुनसी (शब्द॰) । किंवाट—सज्ञा पुं० [सं० फपीः] दरवाजा । कपटि। किवाड । उ०-- किशोर–वि० [सं०] [वि० स० विदा ११ वर्ष । १५ वर्ष तक उठिटी कवर प्रथिरा ज लप, गयौ महल निज मद्धि । ६ फिवाट को अस्या का । मिनि घाट जुव, मच्यो कलह सम भद्धि –१० रॉ०, ५।६। यौ॰—शिरा स्या ।