पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४३३

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fकलना ९५१ वक्र्य किरीटित जिसका शारद मस्तक इन 1-7ति मा, किमि--संज्ञा पुं० [सं० कृजि] १ एक प्रकार का रन । किरिम दाने || चुर्ण । गुफनी किया हुआ छिरिना । हिरमिनी । १० १३५। : ज्ञा। वि० दे० 'झिरिमदाना' । २ किरमिजी रग का घोड़ा। किरोटी-सी पु० [स• किरीटिन] १.इई। ३ प्रज'न । ३. किम-सबा की० [सं०] दे ‘वि मि' (को०)। किरीटी–वि० कोई किंरीदारी । जो किरीट पढने हो । किरी -सुज्ञा ० स० क्रीडा, f०] ३० 'क्रीडा' उ०—हैं। किम—सा पु० [सं०] १ (क्षम जिसे भीमसेन ने मारा था । यौ०- fमरञ्जित । किनरनिपूवन । मिरभित् । किरसूदन = हँसे और कारहि दिर। 1 चुनहि रतन मुकूताहुल हीरा । भीमसेन --जायसी (शब्द॰) । २ नारी का पेड। ३ चितकबर रगे (को॰) । करोड -वि० [हिं० करोड़ रोड़' ! उ०-- दिल्ली से इनारम के परे तुझ किरोड़ो यादमी हिंदी बोलनेवाले है ।-श्रीनिवास किर’-वि० [सं०] चिकवर।। किर्याणी--सा लौ० [मु.] जगती शूकर (को०] । ग्रे०, पृ० ३।। र सज्ञा पुं॰ [अनु॰] दो पक्षों की रगड ते ना वैलगाड़ी के चलते किछिf- सवा पुं० [सं० शोध+ हिं० कुरेध, कुरोध] ६० क्रोध' । समय पहिए से निकलनेवाली ध्वनि । उ०-मेले का फिर किर २८-तुम वारी पित्र दुहब राजा । गुरव क्रिरोध हि पै । घोर कल कल • • । प्रेमघन०, भा० ३, पृ० ३३ ।। | छाडा —ायसी (शब्द॰) । किन-क्रि० स० [अनुव०] किर शिर की अावाज करना जो किरोर--- सवा पुं० [हिं० विरो] दे० 'करोड़' । दात के बराबर रगडे से, पांसी की रगड़ ३ , दिन। तेल लगे किरोलना-क्रि० स० [अनु॰] कृदना ! बुर चना । | पहियों के चलने पर धुरो ग्रादि से होती है। किरौना सुझा पुं० [हिं० कोरा+मना (प्रत्य॰)] ईडा । किना-क्रि० प्र० किर' क्रिर की प्राचार्ज होना। किर्च -सा श्री० [हिं० किरद] ६० 'किरच' ।। | किर--संज्ञा स्त्री० [सं० कीर्ण] एक प्रकार की छैनी fउससे धातु की किर्तकितं--वि० [सं० कृतकृत्य] ६० ‘कृतकृत्य' । उ०-“चहु जुग । नक्काशी में पत्तियां और डालियां बनाई गती है। कितं कर्तुं कियो तुम जेहि सुकर सिर थापे हो । भीखा०1०, झिरना--क्रि० प्र०, क्रि० स० [अनुष्व०] दे॰ 'झिरना' । किंव--संज्ञा स्त्री० [अ० एपि] दे० 'कृषि' । उ०—-एक क्रिया किउँनिया-सच्चा पुं० [हिं० कीर्तन + इयः (प्रत्य॰)] कीर्तन कृरने- करि किfप निपावत आदि ६ अन ममत्व वो है ---सुदर वाला प्रादमी । गुदाने का गुणानुवाद करनेवाला भक्त । २. ग्रं॰, भा॰ ३, पृ० ६४० । प्रशंसक पक्ति । यश मा नेवाला पुप । किलगी-सच्चा बी० [फा० फलंगी] लगी। उ०—कठो माला फड़ा कितम -वि० [सं० कृत्रिम, प्रा० कितिम] दे॰ 'कृत्रिम’। उ०— किलंगी सतगुर अरपण लाऊ। दिसण दिशा में गाय फांदरिया चीन्हहु झिति म प्रादि सत्य असत्य विचारहु । छोड़ि देई अपने हाय प्रोढाऊ’ --मि०, धर्म, १० १। चकपादि बोजडू अविल पुरुप कहें।—कबीर स० पृ. ३१.४। किलुज--संज्ञा पु० [सं० किलञ्च] १ चटाई । २ पतना तुता । कित म -वि० [सुं० कृत्रि म] दे० 'कृत्रिम' । पूजा करम भरम । (को॰] । | ३ स्तृि' म ज्यों दर्प च मे छाहीं ।--कुर्वरि श०, 'मा० १, पृ०५१ । किन-क्रि० वि० [सं०] निश्चय ही । अवश्य । ३०-- फ ) हैं। किर्दा पु० फा०] १ काम काज | छायं। १ धधा । पेशा । श्रोणित झलित कृपा यह किल कापालिक काल को 1--- किर्दगार-चा पुं० [फा०$दगार ईश्वर । उ०—-ऐ सावं सत्तार केशव (शब्द०)। (ख) फुटे किल कनक-भास रवि-शशि- | ऐ किदंगर के ऐ वालिक व परवरदिगार ---दक्विनी, उडुगण भकाश !-माराधना १० ३६ । १० २३५ ।। किसी० [हिं० फोल] साह की कटीनुमा चीज । कुन –सा • [हिं० किरन दे० 'छिरण' । उ०—बसे अद हितली । उ०—श्याच खोति जगजाति तह निद महूर ताव । देवजोग चेसह सिरह किल किल्लेि में | माहि तन घारी । रवी छिर्न मून विस्तारी --संत तुरती, ग्राव ।---१० पृ० ६२ । रा०, ३। १६ । झिम' —सुझा पुं० [सं० कृमि दे० 'कृमि' । उ०——तुवा ते ऊन मौ। किल-सुवा पुं० [सं०[ वैन । क्रीड़। 1 [ो । | फिर्म पडि है पद अवर सोई मन भावे |--कृवीर रे, किलक-चया औ० [हिं० कितना] १.चिकने की झ्यिा । पृ० २२ । इGध्वनि करने का किया । मानदनूच शब्द! इपं. किर्म-सा पुं० [फा० तुलनीय, सुं० कृनि] कीट । कीड़ा । ध्वनि । किलकार। उ०—मां, फिर एफ किन दुरागव, य-निर्मद=हीं ला इभ । कीड़ खाप हुा । गज उठी कुटिया सुनी !-—कामायनी, पु] किम्पीला= रेशम का कीडा । फिर्मशताद=खद्योत ! किलुक-संवा सी० [फा० कित]एक प्रकार का नरः जिसकी जुगुन्। कलमे बनती है। झिमिसेवा स्त्री॰ [सं०] १ भवन । २. विस्तृन कक्ष । बहुत से लोगो ३. सोने ना लोहे की किलकन-- • [हिं० सि! किलकिला 1 दिसा ।।

  • बठन के लिये इन अ बड़ा फमुरा । ३. चोच वा नहि ।

किनकना- वि० अ० [सं० विश्वा ) १, विपि अन्य में महि ।.पहा वृक्ष वि०] । ।