पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४२६

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f%ाह यिक चुपचाप बैठो, उठे कि मारा। (ग) तुम यहीं से हटे कि चीज । f-सच्चा- वि० [हिं० कुछ] दे० 'कुछ' । उ०-- घनि राजा तोर गई । ३ था । अथवा । जैसे,- तुम माम लोगे कि इमली। राज विसेखी । जेहि कि रजीउरि सव किछु देखा ।—जायसी उ०—सुदर वोलत अवत वैन । ना जानौं तिहि समय सची ग्र०, पृ० ३४५ ।। री,सव हुन सक्ने कि नैन ।--सूर०, १०1१८०४। किछौG--क्रि० वि० [हिं० किछु + (प्रत्य॰)] कुछ भी। उ०--- किग्रह -संज्ञा पुं० [सं० कियाह] १ ताह के पके फन के रग का वरनि सिंगार न जानेऊ नखसिल जैस अमोग। जग तस किठौ न घोड़ी। २ लाल रंग का घोडा । उ०—-लील समुद चाल । पाव उपमा देऊ झोहि जोग --जा सी ग्र० (गुप्त) , जग जा रौ । हासुल भवर कियाह वखाणे -जायसी प्र० पृ० १६६ । किटकिट---सच्चा पुं० [अनु० मू० अयवा सं० किटकिय] वादविवाद । किक-सच्चा वी० [अ०] ठोकर । पाँव का अधिातु । किचकिच । किकान--संज्ञा पुं० [स० के कारण] घोङा । अश्व । उ०-- किटकिटाना-- क्रि० स० [हि किटकिट' से नामिक धातु] १ क्रोध जसवत संजिवान । चड्ढे किकान कृरि करि गाज ।—सूदेने से दांत पीसना । २ दाँत के नीचे ककड की तरह कड़ा लगना। (शब्द०)। जैपे,--दाल त्रिनी नहीं गई है, किटकिटाती है । किक---सच्ची पुं० [सं०] १ नीलकंठ पक्षी । २ नारियल । किटकिना--संज्ञा पुं० [सं० कृतक] १.वः दस्तावेज जिनके द्वारा किकियान- सज्ञा पुं० [सं० केकाण = केकाण देश का घो] घोड़ा। ठेकेदार अपने ठेके की चीज़ का ठीका अपनी ओर से दूसरे उ०-- चलहि कलापि कमान चलत धनवान है। परत सुनु, असामियो को देती है २ सोनारो का ८ जिसपर-ठोककर रणभूमि फुट्टि किकियान है।-प० रासो०, पृ० ८। चादी सोने के पो या तृrरो पर कुछ चित्र या बेलबूटे उभारते किकियाना-क्रि० अ० [अनु०] १ को की या के क का शब्द हैं । ३ वाल । चालाकी । करना । २ चित् नाना। ३. रोना । चखना । | यो०---किटकिनेवाजी चालवाजी । किकोरी-सच्च; पुं० [देश॰] एक प्रकार का पौधा । किटकिनावाज-सज्ञा पुं० [हिं० किटकना+फा० बाज] किफायत किक्यान-सा पुं० [सं० केकाण = केकाण देश का घोडr] एक से काम करनेवाला । चालक । अल्पव्ययी । प्रकार की घोङा । उ०---प्रदह सहस सुभग किक्यान । कनक किनार न किटकिनादार-सज्ञा पुं० [हिं० किटकिना+फी दारे (प्रत्य॰)] वह भसै नग जरे पलान ।—नंद ग्र०, पृ० २२१ । पुरुप जो किसी वस्तु को ठेकेदार से ठेके पर ले । किचकिच--संज्ञा स्त्री० [अनु॰ मू०] १ व्ययं का वाद विवाद । व्यर्थ किटकिनेदार--सच्चा पु० [हिं०] दे॰ 'चिटकिनादार' । की वकवाद । २ झगड़ा । वकार । जैसे,—दिन रात की। किटकिरा--सच्चा पु० [हिं० किदकिना] दे० 'किटकिना' । किचकिच अच्छी नहीं । किटि-सच्ची पुं० [सं०] वाराह । सुअर [को॰] । क्रि० प्र०—करना 1- मचना---मचाना ।—होना । किटिका-सया स्त्री० [सं०] चमड़े या बोस का बनी कवच । किचकिचाना—क्रि० प्र० [हिं० किचकच से नामिक घातु] १ किटिभ सच्चा पुं० [सं०] १ केशकोट । जू' । २ खटमल (को॰) । (क्रोध से }दीत पीसना । जैसे-तुम तो व्यर्थ ही किचकिचाया । किटिभकुष्ठ-सच्चा पु० [सं०] एक प्रकार का कोई जिसमें चमड़ा सूखे करते हो । २ भरपूर बल लगाने के लिये दौत पर दाँत | फोडे के समान काला और कुछ हो जाता है । - रखकर दवाना । जैसे—उसने किचकिचाकर पत्र उमाडा किदिम--- सच्चा पु० [सं०] एक प्रकार का कुष्ठ रोग [को०]। तव उभडा । ३ दौत पर दाँत रखकर दवाना । जैसे-उसने किट्टे—सच्चा पुं० [स०] १ धातु की संल। २ तेल इत्यादि मे नीचे किचकिचकर काट लिया। किचकिचाहट----सच्चा पुं० [हिं०] किचकिचाने का भाव । बैठी हुई मेल । ३. जमी हुई मैल ।। किचकिची-सच्चा स्त्री० [हिं०]किचकिचाहट । दाँत पीसने की अवस्था । किट्ट्टक----सा पु० [सं०] दे॰ 'किट' (को०]। मुहा०—-किचकिची वाँधना=(१) क्रोध से दाँत पीसना । (२) । किट्टाल-सज्ञा पुं० [सं०] १.एक ताम्रपत्र। २ लोहे का मोरचा (को० । भरपूर बल लगाने के लिये दाँत पर दाँत रखकर दबाना । किट्टिम--सज्ञा पुं० [सं०] पानी जो साफ न हो (को॰] । किचपिच- वि० [हिं० गिचपिच] दे० 'गिचपिच' । किडकना-क्रि० अ० [अनु॰] चुपके से चला जाना । खिसकना । किचड़ाना–क्रि० अ० [हिं० कीचड़ से नामिक नाम० ] (अाँख का। किणकिण -सा पुं० [अनु॰] (किंकिणी की) मधुर ध्वनि । उ०—- कीचड़ से भरना। कीचड़ से युक्त होना । जैसे-ख। कण कण कर ककण प्रिय किण, किण, रव किंकिणी । किचडाई है। गीतिका, पृ० ८ । किचन--सज्ञा पुं० [अ०] रसोईघर । उ०—यही हमारा ड्राइंग रूम है, किण--सज्ञा पुं० [सं०] १ घो। २ खुरः । ३. मस्सा। ४ लकड़ी यही बेड रूम और किचन भी यही हैं।--संयासी पृ० १०३।। का कीड़ा । घुन (०] । किचल- सच्चा पु० [दश०] कोही । उ०-नरम लकडी किंवले किणर्यक्र —वि० [हिं० किन+एक ?] किसीं । उ०-- वयण सगाई पकड़ी।--दविखनी॰, पृ० ४६७।। वंश, मिल्यो सच दोपण निटे । किणयक समैं कवस, थपियों किचर-पिचर -वि० [हिं० गिचपिच दे० 'गिचपिच' । सुपण उत्थएँ ।-रघु० रू०, पृ० १३ ।