पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४२४

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आहे किंचित् विशेष-हिंदुस्तान में यह केवल वगीचो मे बोया जाता है, जण नी किंक्रिनी-संज्ञा स्त्री० [ स० किंकिणी ] दे० 'ठिकाणी' । उ०--रमन नहीं मिलता । अरव और रूम अदि मे यह वसंत ऋतु में । | काँची किकनी सूत्र मेखला जान ।–अनेकार्थं०, पृ० ३३ । होता है, पर भारतवर्ष में जाहे के दिनों में होता है । यूरोप किकिर--- संज्ञा पुं० [स० किदुर] १. हाथी का मुस्तक । २ कोकिन । के बगीचो में एक प्रकार का काहू वोया जाता है जिसकी ३ मा । ४ घोडा । ५ कामदेव । उ०—नदास प्रेमी पतिय पातगोभी की तरह एफ दूसरी से लिपटी और वैधी स्म परम पद पकज कही, फाल्हि ते जू कॉमरि भरि किकर रहती हैं और उनके सिरो पर कुछ कुछ बैंगनी रगत रहती है। बुनाव’--१० ग्र० प० ३६० । ६. लाल रग ।। पश्चिम के देशो में काहू का साग या तरकारी बहुत खाई जाती किकिरा-सच्चा स्त्री० [सं० किइिरा] रुधिर । खुन (को०]।। है । वहुत से स्थानो में काहे के पौधे से एक प्रकार की अफीम किकिरात--पछा पुं० [म० किरिन] १ अशोक का पेड़ । ३ पोछकर निकालते है जो पोस्ते को तरह तेज नही टसरैया । ३ कामदेव । ४ सुपा । तोता । होती। इसमें गोभी की तरह एक सीधा डठल ऊर जाता किकिरिसन्ना नी० [म० किद्धि र ] कोयल (को०] । है जिसमे फूल और वीज लगते हैं । इम वीज दवा क काम किकिरि–मश पुं० [सं० फिद्धिरिन्] विककत का वृक्ष (को०] । मे आते हैं। हकीम लोग काहू को रक्तशोधक मानते हैं किगई-सज्ञा पुं० [ देश० ] नजिवत की जाति का एक केटीला मल और पेशाब खोलने के लिये भी इसे देते हैं। काहू के | पौधा । बीजो से तेल निका जाता है। जो सिर के दर्द आदि में विशेय--इसकी पत्तियों के सीके ७-३ इंच लवे और इन में लगी लगाया जाता है । हुई पत्तियों । इच लवी होती हैं। यह असाढ़ सावन मे फूल काहे---क्रि- वि० [हिं०] क्यो । सिनिये । है । फूल पडले लाल रहते हैं, फिर सफेद हो जाते हैं । इसकी | यौ--काहे को न किसनिये ? क्यो ? पत्तिय सौर जीन दवा के काम में आते हैं। इसकी लकड़ी किं--प्रव्य० [सं० किम] दे० 'किम' । का कोयला बारूद बनाने के काम में ग्राता है। यह भारतवर्ष किंकनी किंकणीका- स; स्त्री० [सं० किङ्कणी, किङ्कणीका] १ । में सर्वत्र होना है ।। । करधनी । २ ए के प्रकार का खट्टा अगूर (को०]। किंगरिए---सझी प्री० [हिं० किगरी ] ६० किगरी' । उ० किकनी(g)- सझा जी० [सं० किङ्किणी] दे० 'किंकिणी' । उ० ---काछनी किंगरिय ग िदिन रैन वजहो ।----माघवानन०, पृ॰ २०१ ! किकनी कटि पीतावर की चटक (मटक) कुडन किरन रिफिग-सच्चा नी० [हिं० किगिरी] दे॰ 'किगिदि' । उ०—त जो रथ की अटक ।-नद० ग्र०, पृ०, ३६३ ।। राज राजा भी जोगी। ग्रौर किंग का गहे वियोगी --- किकर--सच्चा पु० [सं० किङ्कर] [ी० किरी] १ दाम । सेवक । जायसी० र ० (गुप्त) पृ० १२६ । नौकर --प्रागे बढ़ बोला में प्रमुवर, किंकर कर किंगाना -क्रि० अ० [हिं०] शब्द करन।। वरना । उ॰-- लेगा यह कार्य ।--साकेत, पृ० ३९६ १२ राक्षसो की एक भूली सारस सद्दड़इ जाप्रभु करह किगाइ । घाई घाई व जाति जिसको हनुमान जी ने प्रमदा वन को उजड़ने समय चढो, पग्गे दाधी माय डोल० ० ३८८ । मारा था । किगिरी--सूझा जी० [सं० किन्नरी] छोटा चिकार । छोठी सारगी किंकरता-सज्ञा श्री॰ [सं० किङ्करता] सेवा । दासता। उ०-किफरता जिसे वजाकर एक प्रकार के जोगी भीख माँगते हैं । उ०—- | करि रह्यौ प्रकृति-पंकज चरनने की काश्मीर पृ० ४। क्लिगिरी गहें जो हुत वैरागी । म ती बार वही घुन लागी। किंकरी--- सच्चा सी० [सं० किदुरी सेविका । उ०--तटिनी, यह ---जायसी (शब्द॰) । तुच्छ किंकरी, सुख से क्यो न, बता वही गरी ?–साकेत, कत किगोरा-सच्ची पुं० [देश॰] दारुहल्दी की जाति की ४-५ हाथ | पू० ३४६।। किंकर्तव्यविमढ़-वि० [सं०] जिसे प न सूझ पड़े कि अब क्या के ची एक कटीली झाडौं जो जमीन पर दूर तक नहीं फैलती, | करना चाहिए । हुक्का बक्छ । भौचक्का। घबराया हुआ। सीधी ऊपर जाती हैं । किकिणिका--सझा घो० [सं० किङ्किणिका] दे० 'किंकिणी (को॰] । वर्शव-इसकी पनि ४-५ अँगुल लदी होती हैं जिनके कि किंकिणी सझा स्त्री० [सं० किङ्किणी] १ क्षुद्र घटिका । करधनी । पर दूर दूर दाँत होते हैं । इसमे छोटे छोटे फूल और लाल या जेहर । कमर कस । २ एक प्रकार की खटटी दाख । ३ कटाय काली फलियर लगती हैं जो खाई जाती हैं इसमें भी वे ही | का पेड़ । विक ऊन व क्ष । गुण हैं जो दारुहल्दी में हैं । इसे किरा मोर और चित्रा भी किकि .- समा श्री० [सं०] ६० किंकिणी' । भद गय की कहते हैं। चाल चलै कटि किकिन नेवर की धुनि बाजे --मति० ग्र०। किंचन--संज्ञा पुं० [सं०] १ थोडी वस्तु ! असमग्र वस्तु । पृ० ३४६ ।। ३ पलाया। किकिनि-- सझा स्त्री० [सं० किङ्किणी] दे॰ 'किंकिणी'। उ०— किचन्य--सझा पुं० [सं०किञ्चप] धन । संपत्ति (को०] । घट किकिनि मुरलि वाजे सुख धुनि मान मन ।—चरण० किचित्'--वि० [सं० किञ्चित] कुछ। प्रल्प । जरा सके । बानी, भा० २, पृ० १२२। | यौ०—किचिन्मान = थोड़ा भी।