पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४२१

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स अश्यपि ८. मास [को०) । काष्ठभारिक----संज्ञा पुं० [२०] १.लक ढोनेव ला मजदूर । ३ यौ०---कश्यपनदन= गुरुङ । लकडहारा [को॰] । काश्यप-सम्रा पुं० [सं०] १. अरुण, जो गरुड के बड़े भाई कहे गए काष्ठमठी- सज्ञा स्त्री० [सं०] चिता। सर।। | हैं। २. गड (को॰) । काष्ठमल्ल- संज्ञा पुं० [सं०] अरथी । बस या लकडी का बना वह काश्यपी सुज्ञा स्त्री० [स०] १ पृथ्वी । जमीन । २ प्रजा। ढाँचा जिसपर शव को रखकर श्मशान पर पर ले जाते हैं कि काश्यपेय--सा पुं० [सं०] १ सूर्य । दिवाकर । देवता । २ पक्षिराज। काष्ठयूप-- सच्चा पु० [सं०] लकड़ी का खभ, जो यज्ञपशु को वोधन के गरुड़ । ४. दारक नाम का सारथी (को॰] । लिये गाडा जाता था । उ०—- देखा जैसे, चौंक उन्होने प्रथम काश्वरी-सा स्वी० [सं०] दे॰ 'काश्मरी' (को॰] । बार पृथवी पर, पशु बनकर नर बँधा हुवा है की प्ठयूप में कसकर ।---दैनिकी, प० २। काप-उवा पुं० [सं०] १ सान का पत्थर । २ एक ऋषि । ३ कसौटी। निकप (को॰) । काष्ठरजनी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० काष्ठरञ्जनी] दाम हल्दी । कापण-वि० [सं०] कृच्चा। अपरिपक्व [को॰] । काष्ठलेखक–सच्चा पुं० [मुं०] चुन ।। कापाय- वि० [सं०] [वि० मी० कापायी] १ हरें, बहेड़े, कटहल, विशेप-घुन लकडियो में काट काटकर टेढ़ मैडी लकीरें वा चिह्न अाम अादि कसैली वस्तुओं में रंगा हुआ।। २. गैया ! उ०- डालते हैं जिन्हे घुणाक्षर कते हैं। | चितित से काषाय वसनधारी सत्र मी 1-साकेत पृ० ११३ । काष्ठकोही- सज्ञा पुं० [सं० फाष्ठलोहिन् | लोहे से मढ़ो लाठी या काषाय-समा पुं० १ हरी, बहेडा, अाम, कटहल आदि कसैली गदा (को०)। | वस्तुओं में रंगा हुआ वस्त्र । २. गैरा वस्त्र । काष्ठवाट सच्चा पुं० [सं०] लकडी की बनी हुई दोपरि । प्ठभरि काष्ठ-सुबा पुं० [सं०] १ लकड़ी। काठ । २ ई धन । ३. छडी । ०] ! , [को॰] ।४ ले वाई नापने का एक साधन या शौजार [को॰] । काष्ठसघात सज्ञा पुं० [सं० प्ठसङ्कत] लकडयो का बै(को०)। काष्ठक--सा पुं० [सं०] अगर । एक सुगधित लकड़ी (को॰) । काष्ठा–संज्ञा स्त्री० [सं०]१ हद । अवधि । उच्चतम चोटी या ऊँचाई । काष्ठकुदली--संज्ञा दी [स०] कठकेला । उत्कर्ष । ३ १८ पल का समय या एक ला का ३०वाँ काष्ठकीट-सझा पुं० [सं०] धुन (को॰) । भाग ।। ४ चंद्रमा की एक कना। ५ घुड़दौड का मैदान काष्ठकुट्ट-सच्चा पुं० [स०] कटफोहवा नामक पद्दती । या दौड़ लगाने की सड़क । ६ देश को एक कन्या का नाम काष्ठकुद्दाल----सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०। नाब का पानी निकालने और उनके जो कश्यप को व्याही थी ! ७ दिशा । ओन् । तरफ ! इ. | पैदे को साफ करने का औजार [को०)। स्थिति । ६. चश्में स्थिति या अतिम सीमा (को०)। १० काष्ठकूट--सञ्ज्ञा पुं॰ [सं॰] दे॰ 'काष्ठकुट्ट' [को॰] । गतव्य लक्ष्य (को०)। १२ अाकाश में वायु प्रौर मेघ का पथ काष्ठकोशिक-वि० [सं०] मूर्ख (को॰] । (को०)। १२ सय का एक परिमाण । कला (०)। १४ प्ठकोशिक-- सद्या पुं० काठ का छन् । उ-यदि कोई व्यक्ति सूर्य (को०)। १५ पीला रग (को०)। १६ कद वृक्ष (को०) अभिज्ञान शाकु तल की आध्यात्मिक व्याख्या करे, मेघ की यात्रा १३.रूप । प्राकार । काटी (को॰) । को जीवात्मा का परमात्मा में लीन होने का साधन पथ बतावे, काष्ठावृवाहिनी--सम्रा स्रो० [म० काष्ठम्बुवाहिनी] काठ का तो कुछ लोग तो विरक्ति से मुंह फेर लेंगे, पर बहुत से लोग जलपात्र [को०)। असे फाडकर काष्ठकौशिक की तरह ताकते रडु जायगे । काष्ठागार-सा पुं० [सं०]काठ का वैन। धर। कठघ । काठगृह । चितामणि, मा० २ पृ० ८६। काष्ठत--सा पुं० [सं० काततु] काठ के भीतर रहने वाला। काष्ठक-सुम पुं० [सं०] लकडहार [को०] । कोठा । काष्ठक-वि० काठ से सबध रखनेवाला । काठ का [को० कोष्ठतक्षक-सुज्ञा पुं० [सं०] बढ़ई (को०] । काठिका - सच्चा स्त्री० [सं०] चली । काठबइ। काठ का छोटा टुकइ। काष्ठदारु-सच्चा पुं० [स] देवदारु ! देवदार को०] । [ये । । काष्ठद्र-सज्ञा पुं० [सं०] पलास वृक्ष (को०] । काष्ठोय–वि० [सं०] १ काठ का बना । २ काठ से सूबध रखने- वाला कि०] । काष्ठपुत्तलिका-सच्चो जी० [सं०] १ काठ की मूभि । २. कठपुतली । काष्ठीला--सउ लौ० [सं०] कदली । केला [को॰] । [] । कास'- संज्ञा पुं॰ [सं०] १. खाँसी ।१ सृजन का पेड़ । ३ छक काप्ठपूलक-सद्मा पुं० [सं०] छडियो या काठ के चुद का ढेर [2]। | (फो०)। प्ठप्रदान-• सय पुं० [सं०] चिता बनाना । चिता के लिये लकडी यौ---कासघनो =एक कैंटीली झ डी जो घनो की दवा के फार चुनना [को०] । भाती है । कासशिनी= वो रोग हुनेवार एक पौधे का नाम । कभी --सज्ञा पुं० [कप्ठभइन] १ कठफोड़वा । २.१ [को०) । प्ठभार-वंश पुं० [सं०] लकडिौं का विशेष मार या वजन ०] कासव पुं० [सं० काश] ६५ '६.!'। र, - =-