पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४१९

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कायर्वस्तु काशीकरवंटे । वे । कोई कोई इस काव्यलिंग को हेतु अलंकार के अंतर्गत ही मानते । है । खुदी करतो । जे०–६वद् मारे शर्म के हमारी अखें ही हैं, अलग अलंकार नहीं मानते । न उठती थी । अाह । काश मालूम हो जाता किस बेरहम ने काव्यवस्तु-सच्ची पुं० [सं०] काव्य का विाय । फाव्य में वर्णित मुख्य तुझपर कातिन वार किया 1-काया०, पृ० ३३५। बात । उ०—-सच्चों स्वामाविक रहस्य भावनावाले और काशक संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'काश' [को॰) । सांप्रदायिक या सिद्धाती रहस्यवादी की पहचान के लिये काव्य काशकृत्स्न---संज्ञा पुं० [सं०] एक सकृत वैयकिरण का नाम (को०] । वस्तु का भेद आरंभ में ही हम दिखा अाए हैं ।—चितामणि, काशाना-सा पुं० [फा० फाशनह.1 छोटा सा घर जिसे शीशे आदि • भा० २, पृ० १३६।। से सजाया जाय । उ०—तुममे झनक गर नही तो किससे काव्यशास्त्र-सज्ञा पुं० [सं०] काव्यलक्षण सेवधी विवेचन । काव्य की रोशन यह काशीना है !--मारतेंदु ग्र॰, भा॰ २, पृ० ५६० । समीक्षा। उ०—इस प्रकार के मिलन को काव्यशास्त्र में वियोग काशि---संज्ञा स्त्री० [सं०] १ तेज 1 प्रकाश । ३. सूर्य । ३ मुट्ठी ।४. ' में संयोग कहा है --पोद्दार अमि० अ०, पृ० १०२। काशी (को॰) । काव्यशिष्टती-संज्ञा स्त्री॰ [०] काव्यमर्यादा । काव्य संवधी संस्कृति । काशिक-वि० [सं०] १. काशी का बना हुआ । २. रेशमी को । उ०—ऐसे भावोद्गार भी भद्दपन से खाली नहीं, और काव्य- काशिक--संज्ञा पुं० रेशमी वस्त्र (को०] । | शिष्टता के विरुद्ध है!-रस०, पृ० १२३ । काशिका-वि० [सं०] १. प्रकाश करनेवाली। २ प्रकाशित । काव्यशोभाकर---वि० [सं०] काव्य संबंधी सौंदर्य वढानेवाला। उ०- प्रदीप्त । आचार्यों ने भी अलंकारो को 'काव्यशोभाकर' 'शोभातिशायी' काशिका-सच्ची लौ० २ काशीपुरी । १ जयादित्य और वामन की ।' यदि ही कहा हैं ।—रस०, पृ० ५२ ।। बनाई हुई पाणिनीयव्याकरण पर एक वत्ति । काव्यसमीक्षक-सज्ञा पुं॰ [सं०] काव्य का अालोचक । काव्य का सम्यक् विशेष--राजतरंगिणी में जयापीङ नामक राजा का नाम अध्ययन करके उसके गुणो मौर दोपो पर विचार प्रकट करने अाया है, जो ६६७ काब्द में कश्मीर के सिंहासन पर बैठा वाला व्यक्ति । उ०----पाश्चात्य काव्यसमीक्षक किसी वर्णन के था और जिसके एक मंत्री का नाम वामन था । लोग इसी ज्ञातृ पक्ष और ज्ञेय पक्ष अथवा विपयिं पक्ष और विषय पक्ष जयापीड को काशि का फर्ता मानते हैं । पर मैक्समूलर | दो पक्ष लिया करते हैं।--रस०, पृ० १२२ । साहव का मत हैं कि काशिकार जयादित्य कश्मीर के काव्यहास--संज्ञा पुं० [सं०] प्रहसन जिसका अभिनय देखने से अधिक जयापीड से पहले हुभा है, क्योकि चीनी यात्री इत्सिग ने ६१२ | हँसी माती हैं। शकब्दि में अपनी पुस्तक में जयादित्य के बत्तिसूत्र का उल्लेख काव्या--सचा जी० [सं०] १.पूतना । २ वुद्धि । किया है। इस विषय में इतना समझ रखना चाहिए कि काव्यानुमान--संज्ञा पुं० [सं०] काव्य विषयक अनुमान । काव्य का कल्हण के दिए हुए सवत् बिलकुल ठीक नहीं हैं। काशिका के झान । उ०—मेरा काव्यानुमान यदि ने बढ़ा शनि जहाँ प्रकाशक बाल शास्त्री का मत हैं कि काशिका का कर्ता बौद्ध । झा रहा 1-अपरा०, पृ० १६३ ।।

  • या, क्योनि उसने मगलाचरण नहीं लिखा है और पाणिनि के

काव्याभरण--सा पु० [सं०] काव्यालंकार । काव्यसंबधी गुण। । सूत्रो में फेरफार किया। - ३०--यह दर्शनशासित प्रेम गीति, अनुरूप कल्पना और नए यो०--काशिकाप्रिय = धन्वंतरि । काशिकावृति= काशिका । • काब्याभरण का पौग पाकर युग की एक प्रतिनिधि कृति काशिनाथ, काशिप-सज्ञा पुं० [सं०] शिव । विश्वनाथ ([1 , बन गई ।---नया, पृ० १५० । काशिराज-सज्ञा पुं० [सं०] १ काशी का राजा । २ दिवोदास । काव्याभास--सज्ञा पुं० [सं०] वह छाव्यरचना जो पाठक या श्रोता • ३. धन्वंतरि । । ' को प्रभावित न कर सके। जो काय सा प्रतीत हो किंतु वस्तुत काशी--संवा बी० [सं०] उत्तरीय भारत की एक नगरी जो वरुणा , काव्य न हो। मौर अस्सी नदी के बीच गगा के किनारे बसी हुई है और काव्यार्थ-सया पु० [सं०] कविखमय विचार या सूझ को ।। प्रधान तीर्थस्थान भी है। वाराणसी । बनारस । । यौ॰—काव्यर्थचौर=किसी दूसरे की अच्छी सूझ को अपनी विशेष—-काशी शब्द का सबसे प्राचीन उल्लेख शुक्लयजुर्वेदीय | कविता में जड़ देनेवाला । शतपथ ब्राह्मण और ऋग्वेद के कौशीतक ब्राह्मण के उपनिषद् काव्यालंकार--सा पुं० [सं० काव्यालङ्कार] काव्यवधी अलकार । वे | भे पाया जाता है। रामायण के समय में भी फाशी एक बड़ी | अल कोर जिनका काव्य में प्रयोग मिलता है। समृद्ध नगदी थी । ईसा की ५वी शताब्दी में जव फाहियान कायापत्ति--सझा पुं० [सं०] अर्थापत्ति अलंकार । प्राया था, तब भी वाराणसी एक विस्तृत प्रदेश की प्रसिद्ध श' सञ्चार पु० [सं०] १ एक प्रकार को घास । कोस । २ खाँसी। नगरी समझी जाती थी। यह सात प्रसिद्ध तीर्यपुरियो में गिनी गई है। ३ एक प्रकार का चूहा । ४, एक मुनि का नाम । ६ शोभा । दीप्ति । उज्चलता(को॰) । काशीकरवट-सा पुं० [सं० काशी+सु० करपत्र, प्रा० करवत]काशरस्थ शि-अव्य० [फा०] दु ख और चाह मादि को व्यक्त झरनेवाला पद । एछ तीय स्थान जहाँ प्राचीन काल में लौंग पारे के नीचे कटकर मन्त इच्छा और प्रार्थना के स्थान पर र शम्द प्रयुक्त चोवा अपने प्राण वेना बहुत पुण्य समझ्वे थे। 'अवन'।