पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४१८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कवि कालिग फावा--सञ्ज्ञा पुं० [फा०] घोड़े को एक वृत में चक्कर देने को किया । प्रकार का होता है, गद्य गरि पर्छ । पद्य काव्य के महाकाय क्रि० प्र०-काटना -खानी ।—देना ।---मारना। और खंडकाव्य दो भेद कहे जा चुके हैं । गद्य काव्य के भी दो मुहा०—कावा फटना = (१)एक वृत्त में दौड़ना। चक्कर खाना । भेद किए गए हैं । कथा और अख्यायिका। चपू. विरूद और चक्कर मारना । (२) अखि बचाकर दूसरी ओर फिर निकल कर भग्न तीन प्रकार के काव्य और माने गए हैं । जाना । कावा देना = वृत्त में दौडाना । चक्कर देना । २ वह पुस्तक जिसमें कविता हो । काब का प्रथ। ३ शुक्राचार्य । (घोडे को) कावे पर लगाना=(घोडे को) कावा या चक्कर ५ रोला छद का एक भेद, जिमुके प्रत्येक चरण की ११ वी । देना ।। मात्रा लव पड़ती है। किसी किसी के मत से इसकी छठी, कावार-सा पुं० [सं०] शैवाल । सेवार [को०]। आठवीं और दसवीं मार पर यति होनी चाहिए। जैसे-- कावारी–सा फी० [सं०] बिना डडे की छतरी मा छाता [को०] अजनि सुत मह दशा देखि मत्रिशै रिसि पाग्यो । बेगि जाय लब कावुक--सच्चा पुं० [सं०] १ कुक्कुट । ताम्रचूर्ण । मुरगा । २ चक्र निकट शिला तुरु मारन लाग्यो । खडि तिन्हें सियपुत्र तीर वाक । चकवा पक्षी [को॰] । कपि के तन मारे । वाने सकल करि पान कीश नि फन कर कावेर-संज्ञा पुं० [सं०] केशर [को०] । डारे । कावेरी--सा जो° [सं०] १ दक्षिण की एक नदी जो पश्चिमी घाट काव्य--वि० १. कवि की विशेषताओं से युक्त ! २. प्रसनीय । से निफ्लकर वगाल की खाड़ी मे गिरती है। २. संपूर्ण जाति । कथनीय (को०) ।। की एक रागिनी । ३ वेश्या । ४ हल्दी। काव्यचौर-सच्चा पुं० [सं०] किती के काव्य को अपना कहकर प्रकट काव्य-सच्चा पुं० [सं०] १ वह वाक्य रचना जिससे वित्त किसी रस करने वाला व्यक्ति (को०) । या मनोवेग से पूर्ण हो । वह कला जिसमे चुने हुए शब्दों के काव्यतृत्व-सज्ञा पुं॰ [सं० फाव्य+तत्व कविता की तत्व! काव्य द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है । का मूल प्ररक तत्व । उ०—टलिस्टाय के, मनुष्य मनुष्य में विशेष--रसगंगाधर में 'मणीय' अर्थ के प्रतिपादक शन्द को मातृ-प्रम-स चार को ही एक मात्र काव्यतत्व कहने का बहुत “काय' कहा है । अर्थ की रमणीयता के अनंत शब्द की कुछ कारण सांप्रदायिक था ।-रत०, पृ० ६६ ।। रमणीयता (शव्दान कार) भी समझकर लोग इस लक्षण को दष्टि-सबा सी० [सं०] कवि की दृष्टि । रसमय साहित्यिक स्वीकार करते हैं। पर ‘अर्थ के रमणीयता' कई प्रकार की दृष्टि । उ०---जब तक वे इन मूल मार्मिक रू) मैं नहीं लाए हो सकती है। इससे यह लक्षण वहुत स्पष्ट नहीं है । साहित्य जाते तबतक उन पर काव्य दृष्टि नहीं पडती ।-रस० पृ० ७॥ दर्पणकार विश्वनाथ का लक्षण ही सबसे ठीक ऊँचता है ।। काव्यप्रकाशकारसा पुं० [सं०] मम्मट भट्ट जिन्होंने काव्नकाश उसके अनुसार ‘रसारमक वाक्य ही काव्य है' । रस अर्थात । नाम का काव्यशास्त्र विषयक ग्रंथ लिखा। उ०-वास्तविक मनोवेगो का सुखद संचार ही काव्य की आत्मा है। काव्य- प्रकाश में काव्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, ध्वनि, गुणीभूत बात तो यह है कि काव्य प्रकाशकार का विचार उनके प्रभाव से प्रभावित है !--रस के०, पृ० २३ । व्यग्य और चित्र | इवनि वह है जिसमें शब्दों से निकले हुए, काव्यभूमि--सच्चा स्त्री० [सं०] काव्यक्ष थे। कविता का आधारभूत अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुअा अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान विषय । उ०हमे उस काव्यभूमि का वर्णन करना है जिसमें हो । गुणीभूत व्यग्य वह है जिसमें यग्य गौण हो । चित्र या आनद अपनी सिद्धावस्था में दिखाई पड़ता है ।--रस०, अलकार वह है जिसमे विना व्यग्य के चमत्कार हो। इन १० ७३ । तीनो को क्रमश उत्तम, मध्यम, और अधेम भी कहते हैं। कामरीति--सही स्त्री० [सं०] काव्य को पद्धति या शैली । काय काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान सवधी नियम । उ०--काव्य रीति का निरूपण थोडा पडता है, रस के उद्रेक पर नही । काव्य के दो और भेद किए | थोड़ा सब देशो के साहित्य में पाया जाता हैं ।-रस०,५०६४ । गए हैं, महाकाव्य और खंड काव्य । महाकाय सगंवद्ध र कार्यालग--सा पुं० [सं० कार्यालग] एक अर्यालकार जिसमें किसी उसकी नायक कोई देवता, राजा या धीरोदात्त गुण संपन्न कही हुई वात का कारण भाने वाले वाक्य के युक्तिपूर्ण अर्थ क्षत्रिय होना चाहिए । उसमे शू गार, वीर या शात रस मे द्वारा या पद के अर्थ द्वारा दिखाया जाय । जैसे—-(क) से कोई रस प्रधान होना चाहिए । वीच बीच में करुण, हास्य (वावयार्थ द्वारा) कृ नया कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकार्य। इत्यादि मौर और रस तथा भौर भौर लोगो के प्रसग मी वह खाए वोरात है, यह पाए बौराय । यहाँ पहले धरण आने चाहिए । कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए । महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्र, रात्रि, प्रभारी, मृगया, पर्वत, वन, ऋतु, मे सोने की जो अधिक मादकता घतलाई गई, उसका सागर, स योग, विप्रलंभ, मुनि, पुर, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह कारण दूसरे चरण के ‘बह पाए बौराय, इस वाक्य द्वारा आदि का यथास्थान सन्निवेश होना चाहिए । फाव्य दो प्रकार दिया गया । (ख) (पदार्थता द्वारा 7 जनि उपाय और कारों को मानी गयी है, दृश्य, मौर थव्य । दुपये काव्य वह है जो यह राखु निरधार । हिय वियोग तम रिहैं बिधुबनी अभिनय द्वारा दिखलाया जाये, जैसे, नाटक, प्रहसन, प्रादि जो वह नार। इसे दोहे मे वियोगरूप व दूर हौने । पढ़ने मौर सुनने योग्य हो, वह श्रव्य है। धव्य काव्य दो झारण विधुवदनी' बस एक पद के अर्थ द्वारा वा गया।