पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४१७

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कानीमिट्टी वनी विशेष—इसकी पत्तियां दो तीन इंच पंवी होती हैं और इसपे कालोज-सज्ञा पुं० [सं०] कौवा 1 काक (को०)। फागुन चैत में छोटे छोटे फल लगते हैं जो कुछ हरापन पि कालौंछ-सुज्ञा स्त्री० [हिं॰ काला+ो छ (प्रत्य॰)] १ कापन ! होते हैं । वैसाख जेठ में यह नता फनती है। गह समस्त स्याही । कारिख । इ०–मुख्य अर्थ इस शब्द का कालिमा, उत्तरी और मध्य भारत तथा आसाम आदि देशो में। कालौछ वा कानिख है।—प्रेमघन॰, भा० २, ५० ३३३ । २. बरावर होती है । आग के धुएँ की का िनव जो छत, दीवार इत्यादि में लग जाती कालीमिट्टी-! हि० झाली+ मिट्टी] चिकनी करेल मिट्टी जो लीपने है। रहू । ३. काला जाला जो रसोई घर में या भाड़ या भट्टी | पोतने या सिर मलने के काम आती हैं। के ऊपर लगा रहता है। काली मिर्च-सच्चा स्त्री० [हिं० फाली+मिर्च] गोल मिर्च। दे० काल्प-वि० [सं०] कल्प सबछी (को॰] । | "मिर्च' ।। काल्प---सद्मा पुं० कचूर [को०] । कालीय-सुज्ञा पुं० [सं०] काला चंदन । काल्पक--चचा पु० [सं०] चूर। कचूर (को०] । कालीयक--सच्चा पुं० [सं०] १ पीला चदन । २ फाला अगर । ३. काल्पनिक'-.-सम्रा पुं० [सं०] कल्पना करनेवाला। काला चंदन । ४. दारु हृल्दी । ५ केसर (को०)। काल्पनिक–वि० १ कल्पित । फुन । मनगढ़ तु । २ कल्पना कालीसर- संज्ञा स्त्री० [हिं० फाली+सर ] एक प्रकार की लत। संवधी । । ' विशेष—यह सिक्किम, आसाम, वर्मा आदि देशो में होती है। काल्या--सज्ञा पुं० [सं०] प्रभात । भोर । उ०-फोहि काल्य सुनेंगी | इसके पत्ते मे नीला रंग निकाला जाता हैं। के सासुर, सुन हो जसोमति माय ।—पोद्दार अभि० प्र०, १० काशीतला-सा ० [हिं० काली+सुं० शीतल] एक प्रकार ३०७ ।। | की शीतला या चेचक । काल्य–वि० १ शुन। कल्याणकर । २. समयानुकून । ३. विशेष—इसमें कुछ काले काले दाने निकलते हैं और रोगी को । अविरुद्ध । अनुकून । ४. प्रमात काल का। प्रभात मुबवी (बो०] वडा कष्ठ होता है। काल्या-सच्चा खी" [सं०] १. सांडे या वृषभ के पास ले जाने योग्य काली हरे-सवा श्री० [हिं० कालो +हरं] जगी हुर। छोटी हरं ।। गाय । २. पति के पास जाने योग्य स्त्री [ये०] । कालुरुय--सा पुं० [सं०] १. कलुपता। मलिनता । उ०—और काल्याणक - सम्रा पुं० [सं०] कल्याणमयता [को०)। निकल आती है फिर हर बार काल के मुख से, नई चारुता काल्हनिं० वि० [सं० फुल्य अर्थवा काल्य) ६० 'कृ' । लिए, शीर्णता का कालुष्य बहाकर, पावक में गदकर सुवर्ण झाल्हF५-० वि० [सं० शल्प, अथवा फाल्य] दे० 'कल' । 'कालि' । उ०—कहहि आजु छ योर पयाना । काल्हि फ्यान ज्यौं नया रूप पाता हो ।--नील०, पृ० ५४ 1 २, निष्प्रम । ३ असहमति । मतभिन्नता । दुरि है जाना—जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० १३३। कालू-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] सीप की मछली । सीप के अंदर का कीड़ा। काल्हेड़ो--सबा पुं० [हिं० कालिगड़ा] दे॰ 'कालिगडा'। उ०--पदो | लोना कीड़ा । सियाल पोका । मे जो काल्हेडों रागिनी दी है यह कालगढ़। छा बिगड़ा नाम कालेवा–सुझा पुं० [सं० कालेय, प्रा० कालिज्ज] दे० 'कलेजा। | है --सु दर ग्र०, मी० १, पृ० १७४। कुर्वंच-सा लो० [देश॰] केवाच। उ०--रैदान तू काच फनी ३०-भेड़ा रहे बाग अली जा । काढि नित खात कालेजा । । —तुलसी० स०, पृ० २४७ । | तुझे न छापे कोई 1----२० वानी, पृ० १।। कालैय–वि० [सं०] कलियुग सवधी [को०] ! • कावचिक वि० [सं०] वि० सी० कावचिको १ कवच संबधी । २. कालेय-समय पुं० १. दैत्य । कालकेय ! कालकज । प्रा० भा० प० । कवचयुक्त (को०] । पृ० ६६।२ यकृत को०]। ३. काला चंदन (ो०] । ४ केसर कृावाचसा पु० [सं०] कवचधारियों का समूह [को॰] । [को०] । ५. कृष्ण यजुर्वेदीय सप्रदाय का एक नाम [को॰] । कावड़-सा पु० [स० कापटिक ६० 'कवि' । झालेयक संज्ञा पुं॰ [सं०] १ एक प्रकार की सुगंधित लकडी । २ कावर--सच्चा पु० [देश॰] एक छोटी बरछी जो जहाज की माँग या | काला चदन) ३ हुलद।। ४ पीलिमा नामक रोग । ५ गलहों में बंघा रहता है और जिससे वे आदि का शिकार | शिकारी कुत्ता [को०] । करत हैं--(लय०) । लव-सच्चा पुं० [सं०] १ कुरा । २. एक प्रकार का चदन(को॰) । कावरि कालशु-सा पुं० [सं०] १. शिव । २. सूर्य (को॰) । -संवा स्त्री० [हिं० कांवर ३० 'कविर' । चp-हि कावर वोच-सा स्त्री० [हिं०] ‘कलछ' । कालापन । उ०—बाख्द | कान्हू कर सिव सिव हि जीव सच्चन में विप साने ।-स० और धुए ने दोनों के चेहरे और हाथ काले कर दिए । नित्य दरिया, पृ० ६१ । है। ऐसा हो जाता था । उस दिन काच कुछ और अधिक कावरी सज्ञा पुं॰ [देश॰] रस्सी का फंदा जिसमें माई चीज alin च गई थी ।—सी०, पृ० ३६६ । जाय । मुर्छ। --(२०) । विनियल-वि० [अ० कॅलोनियस कालोनी या उपनिवेश संबंधी । विशेप--यहूदा रस्सियो को ढीला चटकर बनाया जाता है । , घौपनिवेशिक । जैसे, कालोनियल सेक्रेटरी । और बहुज में काम आता है। लानी-सी भी |में • कालोनी] एक देश के लोगों की दूसरे वैये कावली-न-सा छो• [देश॰] एक प्रचार की मछ- जो wिrt 4 ३ बस्ती पा पाडाद । उपनिवेम। Bी नदियों में होती है ।