पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४११

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लेत्रिी : कालांतरित पुण्य के ४ दई, शुक्रवार को तीसरा भाग अर्थात् ६ देह के बाद के ४ कालशाक---या पु० [सं०] १ पटु नाग । २. फरेनू ।। दह र शनिवार को पहला और ग्राठवाँ भाग अयत पहले कालसकप–सच्चा सी० [सं० कालमर्या] नौ वर्ष की वालिफा जो ४ दंड और अंतिम ४ द। यह हिसाव ३२ दंड की रात के घामक उत्सव में दुर्गा बनाई जाती हैं [को०] । लिये हैं। यदि रात्रि इससे कम या अधिक हो तो उन दडों कालसकप–वि० [ स० काल से कविन काल का सक्षिप्त करने के प्रठ सम, मग करके उसी क्रम से हिसाब बैठा लेना वाला (जसे मन्न } [को०) । चाहिए । कालसग-वि० [सं० फालसग विलंय (को॰) । ५ दीवाली की अमावस्या । ६ दुर्गा की एक मूति ! ७. यमराज कालसंपन्न-वि० [स० फलिसम्पन्न] तिथि या दिनाक सहित चै०] । की बहन जो सव प्राणियों का नाश करती है ! ८ मनुष्य को कालसरोघ-संज्ञा पुं० [सं०] १ दीघंकाल तक कि उना। ३ स्नायु में वह त जो सतहत्तर वें वर्ष के सातवें महीने के सातवें दीर्घकाल बीतना (को॰) । दिन पड़ती है और जिसके बाद वह नित्य कर्म अचि से मुक्त कालसदृशं-- वि० [सं०] समय नुिकूल कि॰) । समझा जाता है। कालसमन्वित, कलि समायुक्त--वि० [सं०] मृत (को०) ।। कालरात्री- सज्ञा स्त्री० [सं०] दे॰ 'कालरात्रि'। कालसर-संज्ञा पुं० [हिं० फालसिर] दे॰ 'कालसिर । कालरुद्र- संज्ञा पुं॰ [सं०] रुद्र देव, जिनसे उत्पन्न अग्नि सृष्टि का कालसर्प-संज्ञा पु० [सं०] काला और अत्यंत विषेला साँप (को०)। सहार कर देती है (को॰) । कालसार--सज्ञा पुं० [सं०] कृष्णसार नाम का मृग । २ पीतवर्या काललोह, काललौह-संज्ञा पुं० [सं०] इस्पातु नाम का लोहा [को०]। का चुदन (को॰) । कालवलन--सूझा पुं० [सं०] कवच | तनुत्राणि । वारवाण । जिरह कालसार-वि० काली कनिका या पुतलीवाला [को॰] ।। बलर (को०)। कालसर--- संज्ञा पुं० [हिं० काल+सिर] जहाज के मस्तूल का सिर । कालवाचक-वि० [सं०] कलि या समय का प्रवोधक । समय की कालसूक्त–सज्ञा पुं॰ [सं॰] एक वैदिक सूक्त का नाम जिसमें काल | ज्ञान करानेवाला। | का वर्णन है।। कालावाची–वि० [सं० फालवीचिन्] समय का ज्ञान करानेवाला । क्वालसूत्र-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ २८ मुख्य नरको में से एक नरक । जिसके द्वारा समय का ज्ञान हो। २ काल (यम या समय) का सूख (को०) । कालवादी-वि० [सं० कालवाविन काल (समय)को माननेवाल।। कालसूत्रक- सहा पुं० [स०] १ एक नरक । २ काल का सूत्र (को०) ३०- वैसे पिक शास्त्र पुनि फालवादी हैं प्रसिद्ध पत जनितान्त्र कालसर्य-संज्ञा पु० [सं०] कल्पात के समय का सूर्य । माहि योगवाद लयो है ।' सु दर रा ०, भा॰ २, पृ० ११६। कालसेन--संज्ञा पुं॰ [सं०] पुराणानुसार उस डोम का नाम जिसने कालविपाक-संज्ञा पुं० [सं०] समय को पूरा होना । किसी काम के । राजा हरिश्च३ को मोल लिया था। पूर्ण हो जाने की अवधि । उ०--डर न टरे नींद न परे हरे कालस्कद- संज्ञा पुं॰ [स० कोलस्कन्द वमल वृक्ष (को॰) । न काल विपाक । छिन कि उछर्कन फिरि खरो विपनी छवि कालहर-संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महेश (को॰) । छाक - विहारी (शब्द०)। कालहरण---सज्ञा पुं॰ [सं०] ३० 'कालक्षेप' (को॰) । कालविप्रकर्प-संज्ञा पुं॰ [सं०] कालक्षेप1 कालयापन (को॰) । कालहान--सज्ञा अ० [सं॰] विल व 1 देर (का०)। कालविभक्ति-सुज्ञा स्त्री० [अ०] समय का विभाग या अंश '[को०] । कालाग-वि० [सं० फालाङ्ग] काले अगवाला (खड्ग आदि) (०] । कालवृत्त--सेवा पुं० [सं० कालवन्त कुल्था (को॰] । कालाजन--संज्ञा पुं० [स० कलाञ्जन] झाला सुरमा । अंजन- कालवृद्धिसच्च) • [सं०] वह व्याज़ जो वढते बढ़ते दूने से अधिक विर्य (को॰) । हो जाय । यह स्मृति मे निदित कहा गया है। कालाजनी--सण पुं० [हिं० कात + अजनी भरमा । नेकपास । कालवेला--- सच्चा स्त्री॰ [सं०] ज्योतिष में वह योग या समय जिसमें कालाजनी-सुज्ञ ० [सं० फालञ्जिनी] प्रोपधि के काम माने किसी कार्य को करना निपिङ हो । वाली एक छोटी झाड़ी (को०)। विशेष—इसमें दिन और रात के दंडो के भाई माठ सम विभाग | कालातर--संज्ञा पुं० [सं० कालान्तर अन्य समय 1 बाद का काल । किए जाते हैं और फिर एके एक वार के लिये कुछ विशेष समय का अ वराल । उ०—-महाकश है नही दृगों में देखें विशेष विभाग अशुभ ठहराए जाते हैं, जैसे- रहा हू कालावर भी, तव नयन की गहराई में है यग युग के रविवार को ---दिन मा पाँचवी और रात को छठा भाग महुद तर मी पलक, पृ॰ ७६ । समवार को--,, , दुसरः ॥ ॥ चौथा भाग कालातर विष--ज्ञा पुं॰ [स० कालान्तर विव] ऐस जंतु मगल ,, , , छठी ) , दुसरा ) | जिनके काटने का विष तत्काल नहीं चढ़ar, कुछ समय के } तीसरी ॥ ॥ होतो बृहस्पति --- । । सातव ॥ पोचवा । उपरात मालूम होता है । जैसे, चुहै। प्रादि । १।२ -- ।। ।। चोथा । । वीरा ॥ कालातरित पय--संज्ञा पुं॰ [सः कालान्तरित पप बहुत का अनिवार-- ,, ,, पहला, माळवी, पहला, मादी भाग पहले का बना माले। बुध