पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४०५

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२१ कार्यक्षेत्र फार्मण' विशेप- इसमे पदमासन से बैठकर दाहिने हाथ से बाएँ पैर की कार्मण'----संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री॰कार्मणी मूल कृमें जिनमें मंत्र और मौषध प्रादि से मारण, मोइन, वशीकरण अादि किया जाता दो उंगलियों और वाएँ हाथ से दाहिने पैर की दो उँगलियाँ कहते हैं । है। मंत्र तंत्र आदि का प्रयोग । | ११.एक प्रकार का यंत्र या साधन जो धनुष के आकार का होता यौ॰—कामंण कर्म =(१) जादू । इद्रजाल । (२) वशीकरण । है (को०) ११. समुद्र या नदी तट पर स्थित एक प्रकार का कर्मणु-वि० [वि॰ स्त्री० कार्मण] १ कर्म में दक्ष । कर्मकुशल । | गाँव (को॰) । २.कर्म पूर्ण करनेवाला (को॰) । कर्मणत्व--संज्ञा पुं० [सं०] जादू । वशीकरण मंत्र [यै] ! काम कर-रवि० [वि॰ स्त्री० कामु को] कर्म कुशन ! कर्मदक्ष [को०] । । । कार्मर्णयक—सा पुं० [सं०] एक देश का नाम ।-वृहत०, पृ० ८५। कार्य-सच्चा पुं० [सं०] १ काम 1 व्यापार। बंधा । ३ वह जो कारण कामंणोन्माद-सा पुं० [सं०][वि० फार्मणोन्नादी, कामणोन्नादिनी] से उपन्न हो । वह जो कारण के विकार हो अथवा जिसे एक प्रकार का उन्माद । लक्ष्य करके कर्ता क्रिया करे। जो कारण के बिना नै हो । विशेष—इसमें कंधा पौर मम्तक भारी रहता है, नाक अख, ३ फल । परिणाम । प्रयोजन । ४.ऋण आदि सबंधी हाथ, पाँव मे पीड़ा होती है, वीर्य न्युन हो जाता है, रोगी विवाद । रुपए पैसे का झगडा । ५ ज्योतिप में जन्मलग्न दुबला होता जाता है और उनके शरीर में सुई चुभने की सी से दसवी स्थान । ६ आरोग्यता । ७ घfमक कृत्य या पीडा होती है। लोगों का विश्वास है कि यह जन्पाद जादू, आर्म (को०) । ८ अ व । आबश्यकता । अवसर । १. टोना, प्रयोग ग्रादि से होता है। नाक का अतिम फन (को०)। १० करने योग्य या करणीय कार्मना -सञ्ज्ञा पुं० [सं० फार्मण] १ मत्र तत्र का प्रयोग । कृत्या। कर्म (को०)। ११.अचरण (को०)। १२.किसी कारण का २ मंत्र | वैत्र । उ-जैवि पर मंत्र यंत्रभित्राग्क ग्रन कार्मना अनिवार्य फन या निष्पत्ति (विलोम कार ण) (को०)। १३ मूल कूट कृत्याहिता । किन माकिनी पृननप्रत थैनाल भूत उद्गम (को०)। १४ शरीर । देहे (को०)। प्रयम जूय जता --तुलसी (शब्द॰) । | कार्य-वि० १ करने योग्य। २ वनाने योग्य को०) । कार्मातिक-सच्ची पुं० [सं० कान्तिक) १ शिल्पाला । २. कार्यकर---वि० [म०] १ उपयोगी । उपादेय । लामप्रद । २ काम शिल्प कर्म का निरीक्षक । उ०--पुरोहित के अलावा कृरनेवाला [को०] । मुख्य मंत्री, सेनापनि, कानतिक इत्यादि ।—हिंदु० सम्थता, कार्यकरण-सज्ञा पुं॰ [सं०] काय य । दफ्तर ! (को०) । पृ० ३२६। कार्यकर्ता-सच्चा पुं० [स० कार्यकतृ] १ काम करने वाला कर्मचारी । फार्मार-सज्ञा पु० [सं०] १ कलाकार । २ शिल्पी । ३ लुहार !४ २ मित्र । हितकारी (को॰) । कर्मकार कौ०] ! कार्य-कारण-माव-सच्चा पु० [त०] १ कार्य यौर कारण का सेवघ। कार्मारक--सा पुं० [सं०] १ शिल्प कर्म । २ लुहारो का २ किमी कार्य का विशेष कारण (को॰) । कार्य-कारण-सवध- सा पुं० [सं० कार्य कारण-सम्वन्ध कार्य प्रौर | काम कि०] ! कार्मारिक--सज्ञा पुं० [सं०] मूल । 'माला [को॰] । कारण का पारस्परिक योग ।। विशेप-मीमासा में इसका प्रतिपादन अन्वयव्यतिरेक सिद्धात कामिक'–संझा पुं० [सं०] १ वह वस्त्र जिसमे वुनाबट में ही शव, द्वारा किया गया है, जिसका सूत्र है-अद्भावे भाव तद् भावे चक्र, स्वस्तिक आदि के चिह्न बने हो। २.रंगीन सूत मिल अभाव | इसकी प्रथम अधिव्यक्ति शाबर भाष्य में हुई है। गोटे का काम (को०) ।। कामिक-वि० [वि॰ स्त्री० फामको] १ कर्म शील । काम करनेवाला । जिसके होने पर जो हो 11 है और न होने पर नहीं होता है, वही कार्य-कारण-संवघ की स्थिति होनी है। यह उन नैयायिक २.निमिव । कृन । बनाया या तैयार किया हुआ (को०) । ३ कार्य-कारण सवध सेभिन्न है जिसका प्रयो। वे न्याप्ति की सिद्धि बीच बीच में रंगीन सूत मिला गोटेदार (कडा) (को०)। के निये करते हैं। ४.अनेक रंगों या डिजाइन के योग में बुना हुआ (को०) । कामय—सा पं० [भ] क्रियाशीलता। कमें पन्नता । परिश्रम [को]। कार्यकाल - संक्षा पु० [सं०] १ काम करने का समय ।" सुअवसर । । ३. किसी पद या स्थान पर रहने को समय या काल[को०] । काम'क'--सज्ञा पुं॰ [स०] १ धनुष ।। यो०-फामू कोपनिपश्=धनविद्या । काभुकभृत = (१) धनुराशि । कार्यक्रम-सम्रा पुं० [सं०] कायं की सूची । किए जानेवाले पा होने वाले काम फा क्रम या व्यवस्था । प्रोग्राम । उ०—-निश्चित (२) धनुर्धर । सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम ।-अपरा ०, पृ० ५५ । २ परिधि का एक भाग । चाप । ३ इंद्रधनुष । ४ बसि । ५. कार्यक्षेत्र-सज्ञा पुं० [सच्चा] कर्मभूमि । वह भमगि जिमके भीतर सफेद खंर । ६ बकायन ! ७ एक प्रकार का शहद । ८. रहकर कोई व्यक्ति उसके हित के लिये काम करता है ।उ०धनुराशि । नवी राशि । ६ दई धुनने की धुनको । १० योग किंतु ब्रज को विशेष रूप से अपना कार्यक्षेत्र बनाया।-पोद्दार मे एक प्रासन । अमि० ग्र०, पृ० ६३ । = -= -=