पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३८७

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कार्पन ९०३ काँपुरस कापना –क्रि० स० [स० क्लुप, प्रा० कप्प] काटना । छेदना ! कापान--सज्ञा स्त्री० [सं०] १ मुडमाला । कपालो की माला । २ उ०-क्रन वन सोनो कापियौं, विणही लुका वक ।'–वकी० चतुर स्त्री [को०] । मा० १, पृ० ५४। कोपिक-वि० [सं० [वि॰ स्त्री० कापिको] वदर की शलवाला या कपर (G)-सुज्ञा पुं० [स० कर्पट = चन्ने, प्रा० फप्पड़] कपडा । वस्त्र । बंदर के जैसा व्यवहार करनेवाला [को०]। ३०--(क) हस्ति धोर औ कापर, सवै दीन्ह वड साज। मये कापिल'--वि० [स०] १. कपि 7 सबधी । कपिन का । २ भूरा । गृहस्थ सव लखपती, घर घर मानहु राज ।—जायसी (शब्द॰) । कापिल-संज्ञा पुं० [सं०] १ वह दार्शनिक सिद्भात जिसके प्रवर्तक (ख) कादहू कोरे कापर हो अरु काढौ घी को मौन । कपिलाचार्य थे। सांख्य दर्शन । २. कपिल के दर्शन का जाति पति पहिराई के सृव समदि छतीसौ पौन ।—सूर अनुयायी । ३ भूरा रग । (शब्द॰) । कार्पिश–सधा पु० [सं०] एक प्रकार का मद्य जो माधवी के फूलो से कापर प्लेट–सञ्चा पु० [अ०] छापेखाने में काम आने वाला तवे की । बनता था। चद्दर का एक टुकड़ा जिसपर अक्षर खुदे होते हैं । कापिशायन-सज्ञा पु०[सं०] १ मदिरा । २ एक देवी का नाम[को०)। विशेष- इस पर एक बार स्याही फेरी जाती है और फिर पोछ कापिशी - सज्ञा स्त्री० [सं०] एक देश जिसका नाम पाणिनि की की जाती है जिससे खुदे अक्षरों में स्याही भरी रह जाती है। अष्ट्राध्याय में प्राया है। यहाँ का मद्य अच्छा होता था। और शेष भाग साफ हो जाता है। फिर इसको प्रेस में रखकर कापिशेय-संज्ञा पुं० [सं०] भूत प्रेत । पिशाच [को०] । इसके ऊपर से कागज छापते हैं । जहाँ चित्र अादि वनाने होते कापीशेयी--वि० [सं०] काबुन की । अगूरी। उ०--कापिशेयी सुर हैं वहां तेजाव आदि रासायनिक द्रव्यो से काम लिया जाता है । को हमारे पाणिनि वीवा ने अपने सूत्रो में स्थान दिया कोपर प्लेट प्रेस--संज्ञा पुं०[अं॰] एक प्रकार का प्रेस या छापने की है --किन्नर०, पृ० ७२ ।। कल जिसमे प्राय दो बेलन होते हैं और जिसमें कापर प्लेट की कापिशेयी-संज्ञा बी० [सं०] कपिशा की वनी मदिरा [को०] । छपाई होती है। कापिसाखु-वि० [स० कपिदा अथवा कापिश] दे० 'कपिश'। ३०कापाल'-- सच्चा पु० [सं०] १. एक प्राचीन अस्त्र । उ०—-बारुनास्त्र । | हरि मन कुमुद प्रमोदकर व्रज प्रकासिनी वाम । जयति कापिसा । झचास्त्र हुयग्नीवास्त्र सुहावे । ककालहु कापाल मुसल ये दौऊ चद्रिका, राधा जी को नाम l-- भारतेंदु ग्र०, मा ०२,१०५। ये ।--पद्माकर (शब्द॰) । ३ वायविडग । ३ एक प्रकार कापी--सुच्चा जी० [अ० कॉपी] १ नकल । प्रतिरूप । की सधि जिसे करनेवाले पक्ष एक दूसरे के समान स्वत्व क्रि० प्र०--उतारना ।—करना ।—होना । को स्वीकार करते हैं । ४ कापालिक (को०)। ५ एक प्रकार यौ॰—कापीराइट। का कोढ़ (को०) । २ लिने की सादी पुस्तिका । ३. वह लिखा या छ हुआ। कापाल–वि० १ कपालसवंधी । २. भिक्षुक का सा । भिक्षुक मैटर जो छापेखाने मे कपोज करने के लिये दिया जाय । सवधी [को०] । जैसे,---कपोज के लिये कापी दीजिए, कपोजीटर वैठे हुए हैं । कापालिक’--संज्ञा पुं०[स०]१ शैव मत का तान्त्रिक साधु । उ०—कदने ४ लीयो की छपाई मे पीले कागज पर तैयार की हुई प्रतिलिपि की अविश्यकता नहीं कि कौल, कापालिक अादि इन्हीं वज्रया जो छापने के लिये पत्थर या जिक प्लेट पर लगाई जाती है। नियो से निकले - इतिहास, पृ० १३। । कापी-सुज्ञा स्त्री० [अ० कंप] घिन । गडारी ।- (लश०) । विशेप-ये मनुष्य की खोपडी लिए रहते हैं, और मद्य मासादि महा०---कापी गोला या कापी फा गोला= वह ढाँच। जिसमें खाते हैं । ये लोग रव यो शक्ति को बलि चढाते हैं। | जहाज की चरखी की गडरी वैठाई जाती है। २ तत्रसार के अनुसार वग देश की एक वर्णसहर जाति । ३ एक कापीनवीस--संज्ञा पुं० [अ० कॉपी +फा० नवीस = लिने प्रकार का कोढ़। १ वह जो किसी प्रकार की प्रतिलिपि प्रस्तुत करता हो। विशेष—इसमें शरीर की त्वचा रूखी, कठोर, काली या लाल लेखक । २ लीयो के छापेखाने का वृह कर्मचारी जो छापने होकर फट जाती है और दर्द करती है। यह कोढ़ विषम होता। के लिये बहुत सुंदर अक्षरों में पीले कागज पर लेख अादि है और बडी कठिनाई से अच्छा होता है। प्रस्तुत करता है। कापी लिखनेवाला । (इसी को लिखी कापालिक-वि० १ कपालवावधी, २. भिखारी या मगन जैसा । हुई कापी पत्यर पर जमाकर छापी जाती है। | मिखा या मगन संबधी [को०] । कापीराइट-सज्ञा पु० [अ०] कानून के अनुसार वह स्वत्व जो कापालिका–चा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल का एक वाजा जो मुहै। ग्र थकार या प्रकाश के को प्राप्त होता है । | से बजाया जाता था। विशेष—इस नियम के अनुसार कोई दूसरा आदमी किती ग्र य कापली-संज्ञा पुं० सं० कापालिन्] [स्त्री० फापालिनी] १. शिव। को ग्रे यकर्ता या प्रकाशक की अाज्ञा विना नही छाप सकता। कपुरस--सज्ञा पुं० [सं० कापुस्प] दे॰ 'कापुरुष' । उ०—कापुरस २ एक प्रकार का वर्णन कर। ३ कपालो की नाल । मुडमाल फिर काय, जोवण लातच यहि ।-को० ग्र०, भा०१, (को०)। बायत्रिग (को॰) । १० १ ।