पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३८६

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कृानेजर ६०२ कपिथ कानेजर- सज्ञा स्त्री॰ [फा० कानेजर ] सोने की खान । मिलाने से बनता है । यह रान के दूसरे पहर में गाया कानो–सच्चा पुं० [ हि० कने०= समीप, पाश्र्व ] किनारा । उ० जाता है। लूवा झडन मागीथी, लवी न कान लेह । बाँकी० ग्र० कान्हडी-सज्ञा स्त्री॰ [सं० फर्णाट] एक रागिनी जो दीपक राग की भा० १, पृ० ३४ ।। पत्नी समझी जाती है । कान-सज्ञा पुं० [ स० कर्दम, हि० कांदो ] दे० 'काँदो' । कान्हम--संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण + मृत् ( = मृत्तिका, मिट्टी) प्रा० कण्ट्स । यौ॰---पानीकानी । काला] भडौ च प्रात की वह काली मटियार जमीन जो कपास कान्यकुब्ज-- संज्ञा पुं० [सं०] १ प्राचीन समय का एक प्रात जो की पैदावार के लिये प्रसिद्ध है। वर्तमान समय के कन्नौज के अासपास था । कान्हमी--संज्ञा स्त्री० [हिं० कान्हम ] भौंच प्रात की कान्हम भूमि विशेप–इस प्रदेश के सबघ में रामायण में लिखा है कि राजप में उत्पन्न के पास ।। कुशनाभ को घृत,ची नाम की अप्सरा से १०० कन्याए हुई । कान्हर--संज्ञा पुं॰ [ स० कर्ण } कोल्हू के कार के छोर पर लगी " उन कन्या के रूप को देख दायु उन पर मोहित हो हुई वेड और टेढ़ी लकडौं । गया । कन्याम्रो ने जब वायु की वात अस्वीकार की, और विशेष—यह दोनों ओर निकली होती है और कोल्हू को कमर से कहा कि पिता की आज्ञा के विना हुम लोग किसी को स्वीकार लगकर चारो ग्रोर घूमती है । नहीं कर सकती, तव वायु देवता ने कुपित होकर उन्हें कुवधी कान्हेर -सज्ञा पुं० [स० कृष्ण, प्रा० कण्ह] श्रीकृष्ण जी । ३०-देखी कर दिया। पिता कन्या पर बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें कान्हर की निठुराई । कवडू पाती हू न पठाई ।- (शब्द०)। कापिल्ल नगर के राजा व्रह्मदर (चुलीय ऋषि के पुत्र) । कान्हरा- संज्ञा पुं० [ हिं० कान्हडा] दे० 'कान्हड़ा' । ३०-मुरलौ तान को व्याह दिया, जिनके स्पर्श से उनका कुबड़ापन जाता रहा। कान्हरौ गवत, सुननै गदै कान ।-नद० ग्र०, पृ० ३२७ | हृन सौग ने अपने विवरण में यह कया और ही प्रकार से कहा कान्हा-- सज्ञा पुं॰ [सं० कृष्ण भा० कण्ह ] श्री कृष्ण । - सझा पु° ! लिखी है । उसने सौ कन्या को कुसुमपुर के राजा ब्रह्मदा कान्हूड़q--सच्चा पुं० [हिं० कान्ह +ड (प्रत्य॰)] दे० 'कान्ह' उ०-- की कन्याएँ माना है और लिखा है कि महावृक्ष ऋGि ने कान्हू डे के रग में सूरदास की चोन -- पोद्दार अभि० । मोहित होकर उन कन्याओं में से एक को ब्रह्मदा से मांगा। पृ० १६७।। राजा सबसे छोटी कन्या को लेकर ऋपि के आश्रम पर गए। काप -सज्ञा पुं० [स० कृप, पा० कम्प] काट । कटाव । उ०-- पि ने कुपित होकर कहा--सबसे छोटी कन्या क्यों ? राजा कालेज बिचि व पि परहर तू फाटइ नहीं ।- दोला, ने डरते डरते कहा कि और कोई कन्या राजी नहीं हुई। दू० १८० ।। ऋषि ने शाप दिया कि तुम्हारी और सृव कन्याएँ कुवडी हो कपिट-वि० [सं०] [वि॰ स्त्री० कापफी ] घोवेवाज। धृतं । जाये । इन्ही कुबडी कन्या के माध्यान से इस प्रदेश का | कपटी [को०)। नाम कान्यकुब्ज पड़ा। कापटक---सज्ञा पुं०[सं०]1 चापलूस। खुशामद। २ विद्यार्थी की, २ कान्यकुब्ज देशों का निवासी । ३ कान्यकुब्ज देश का ब्राह्मण कापटिक'--वि० [सं०] [वि० ख० कापटि की कपट करनेवाला ! कनौजिया। | बेईमान । २ दुष्ट की। कान्सल-सच्चा पुं० [अ०] दे० 'काल'। कापाटिक—सा पुं० १. चापलुस २ विद्यार्थी । ग्रेध्याय (को०)। कान्सोलेट---सज्ञा पुं० [अ०] दै० ‘दुतावास' । कापट्य-संज्ञा पुं० [सं०] १ छल । २ दुष्टता (को०)। कान्स्टिट्य शन-सज्ञा पुं॰ [अ॰] दे॰ 'कास्टिट्यूशन' । कापञ्ज-- सय पुं० [सं० कपट, प्रा० कप्पड़ कपडा। कान्स्टेबल--सुज्ञा पुं० [अ० कान्स्टेब्ल] दे० 'कास्टेव' । उ०— यौ०--कुल कापड = वश और कपड़ा। एकाएक कान्स्टेबल ने कोचमैन को पुकारकर वग्गी खडी । कापडा –सुज्ञा पुं० [सं० कर्पटक प्रा० कप्पडप्र] दे॰ 'कपडा' ।। कराई।–श्रीनिवास ग्र०, पृ० ३८८ ।। कापडी'सज्ञा पुं० [सं० कोपट्टिक, प्रा० कम्पडि [ची कापडिन] १ कान्स्पिरेसी-सच्चा क्षी० [अ०] दे॰ 'कास्पिरेसी'। एक जाति को नाम २ बजाज । वस्त्र विक्रेता। उ०--- कान्जा --सज्ञा स्त्री० [स०] एक सुगंधित पदार्थ [को०)। और नागजी पु कापड़ी को भेख कर वह लाठी हाय में लं कान्हG--सज्ञा पुं० [सं० कृष्ण प्रा० कण्ह ] श्रीकृष्ण । उ०---पूरी के श्री गुसाई जी के पास श्री गोकुल को गोधरा सो भी गुसाई 8वाँ ऊपडे, जुध मिरदार जन्न् । कान्ह हरी साको कियो, जी, के इनार्थ चुले ]--दो सौ बावन, मा० १, पृ० ७ । उजवालियो उतन्न 1-० ०, पृ० १६६।। कापड़ी .-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० कादरी! एक तरह के घार्मिक यात्री कान्हडा---सज्ञा पुं० [सं० फणटि ] एक राग जो मेघ राग का पुत्र जो गगोत्तरी से कवर पर जन लेकर चलते हैं और उसे बल समझा जाता है । को सव तीर्थों में चढ़ाते हैं । उ०—कारी सन्यासी तीरथ विशेप--इसमे सातो स्वर लगते हैं। इसके गाने का समय रात भ्रमाया । न पाया नृवाण पद का भेव । गोरख०, पृ० ३३ । ११ ड स १५ दड़ तक है। कापथ-सज्ञा पुं० [सं०] कुभागे। बुरा रास्ता । १. उशीर । यौ०-कान्हड़ा नः = एक संकर राग जो कान्हड़े और नट के खस को०] ।