पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३८१

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कादंवरि तरि आतरिf- तुझा मी० [हिं० फातर ] दे॰ ‘कारी' । उ०—कातरि कात्यायन-- ज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कात्यायनी] १ कत झुप के केतर गिरत बैल चकत उरत दोउ ।—प्रेमघन, भा० १, गोत्र में उत्पन्न ऋपि जिसमें तीन प्रसिद्ध हैं-एक विश्वामित्र के वंश, दूमरे गोभिल के पुत्र और वीनरे चोमदत्त के पुत्र वररुचि कात्यायन ।। कातरोक्ति--सचा स्त्री० [ मुं० 1 दुख या संकट में कही जानेवाली | दीनता भरी बातें । विशेप-- विश्वामित्र वंशीय प्राचीन कात्यायन के बनाए हुए कातयं-सुद्धा पु० [ सु० ]कातरता ! 'श्रौतसूत’ और ‘प्रतिहारसूत्र हैं। दूसरे गोभिलपुत्र कात्यायन कालो पु० { सू० ] एक वही मछली (ो०] । हैं जिनके बनाए ‘गृह्यसत्रह' और 'दोपरिशिष्ट' या 'नर्मप्रदीप काता- तवा पुः [ हि० कातना ] छाता हुआ सूत । तागा । हो । हैं। तीसरे वरचि कात्यायन हैं जो पाणिनि सूत्रों के वातक- बुढ़िया का काता- एक प्रकार की मिठाई जो बहुत महीन ककर प्रसिद्ध हैं। सूत की तरह होती है। २ एक वौद्ध अाचार्य । कता--सच्ची पुं० [ मु• तृ, केत, प्रा० कुत्ता ] बाँस काटने वा । विशेप-इन्होने 'अनिवार्म-ज्ञान-प्रन्थान' नामक ग्रंथ की रचना की। लने की धुरी । है । नेपाली बौद्ध ग्रयों में पता लगता है कि ये बुद्ध से ४५ वर्ष कतिवारी--सज्ञा दौः | सु० ते ( काटना, वौच से दो भागों में पंछे उत्पन्न हुए थे। वा देना)+हि वारी ( वाली)] वह पउली काँडी जो जहाज ३ पाती व्याकरण के कर्ता एक वौद्ध ग्राचार्य जि है पा 7 ग्रंयो पर वेंडी घरनों के बीच लगी रहती है और जिसके ऊपर | में 'इच्चायन' कहते हैं। तृत जहा जाता है। कात्यायनी - सञ्चो नी० [सं०[ १ का गोत्र में उत्पन्न स्त्री । २. काति--वि० [ १० ] इच्छुक (को॰] । कात्यायन ऋवि की पत्नी । ३. कपाय वस्त्र धारण करनेवाली कार्तिक'-सा पु० [न० कातिक वह महीना जो शरद ऋतु में पवार अधेड विधवा स्त्री । ४, कल्प भेद से कन गोत्र में उत्पन्न एक के वाद पड़ता है। कान । दुई । ५ याज्ञवल्क्य ऋषि की पत्नी । ६ पार्वती (को०)। वैदिक-सङ्ग मुं० [हिं० ] हरे रंग का एक प्रकार का बहुत | यौ०–कात्यायनीपुत्र कात्यायनीसुत = कार्तिकेय । वडा तोना । । कात्याय--वि० [सं०] कात्यायन ऋयि द्वारा रचित ग्रंथ ।। कातिगः- सुझा पु० | स० कातिक ] दे' 'कातिक' । उ॰--सबत काय+- सूज्ञा पुं० [हिं० कन्या (सं० दिर)] दे॰ 'त्या' । ई० --- जहै। अठारह इक्यावन वरख मास, कतिग डैन्यारी तित्रि पचमी वीर तेहै चून है, पान सुपारी काय }--जायसी (शब्द॰) । सृहाई है। --ब्रज ग्र०, पृ० १३७ ।। काथ -संज्ञा पुं० [हि कत्या] एक प्रकार की खैरा रंग । उ०—कातिकी--वि० [ पुं० कार्तिकी ] दै० कार्तिक केचित रेंगहि काय महि केप । करि प्रपच वैठहि अति कातिकी --मुवा पु० [ वै० कातिक ] ३० कातिक' । उ॰---में लुप |--सूदर ग्र०, भ? ० १ ० ६२ । कातिकी सरद सखि उवा । वहरि गैगन रवि चाहै छुवा --- कोथG):--सज्ञा स्त्री० [स० कट्या दे० 'कथा' । ३०--रक्त पीत वायवी ग्र० ( गुप्त ), पृ० ३४६ । स्वेतविरों का रखें पुनि जैन |--सुद र ३ ०, भा० ३, कातिकृG--सुझको मु० [ सं० फातिक ]६० 'कातिक' । उ०-- कार्तिक | पृ० ७३५ माह जसो हाव । तजि अन्न फन भव पाउ !--१० काथरी--सा स्त्री० [हिं० कयरी] दे० 'कबरी' । रा०, पृ० ११ । । काथा--सज्ञा स्त्री॰ [सं० कन्या, दि० काय] ३ 'कया' । उ०---- काजिद-ज्ञा पुं० [अ० ] जिवनवाला । लेखक । माला पहिरै तिलक वैनवे काया गुदर नाव --गुनान०, | पृ० ३१ ।। तिल-वि० अ० | कातिल | १ प्रग लेनेवाला । घातक । काथिक---सज्ञी यु०[सं०] १ कहानि । कहुनेवाला । २ कहानियाँ कातिल--सुज्ञा १० कत्ल या वध करनेवाला मनुष्य । हून्य । । लिखनवाला को । काती-सवा झी० नं० झत्र प्रा० फ 1१ केची ! ३ मुनारों का कादंव-वि० [सं० कादम्द] १ कद३ सेवघी २ समूह सबंधी। कतरनी १३ चाकू । छ । ४ छोटी तलवार । कती ।। | कादब–सुज्ञा पुं० १. कदम का पेड़ या फल फून १ २ एक प्रकार का ३०--यह पाती ने छाती में काती भेरी, हमारी मुनि बुद्ध गरी हैन । कलहंन । ३ ईख १४ वाण । ५ दक्षिण का एक सो गरी । -नट०, पृ० २६ । प्राचीन राजवग। ६. शरीव । मदि । कदव की बनी हुई। कतयि–वि [ मु० ] कत्र यि संबंधी । कायायन इवघी । कादवक-सूझा पुं० [० कादम्वक ] वाणि (को०)। कातीय-मू पुं० कात्यायन का छात्र । कादवर---सच्चा पु० [न० कादम्बर] १ दही की मलाई । २ ईख छ। कालु-सको पुं० [ १० 1 ॐ अ [को ! गुई। ३ कदम के फन की शराब । ४ मदिरा । शरावे । कात्य-चि० । चु० } कृत ऋषि सूत्रधी । ५ हायी के मद । कायचज्ञा पुं० १ ने पिके गोत्रज ऋषि २. कात्यायने ।। | कादेवरि--सूज्ञा ली० [सं० कादम्बरी ] सं० कादरी' । उ० --- कारबाइनी-- सुद्धा श्री० [ तु० फात्यापिनी 1 दै० कात्यायनी। कांच मास कबहु कर मोवा, के,दंपरि से नाहित लोमन् ।-- उ०-भवा भवाना, मृदा, मृडानी । काली कात्याइनी, हिमानी। --नंद० ग्र ०, पृ० २२४ । काति०, पृ० ६,०।