पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चैकुन ५५२ उ०—वह धुंए उझकै विझुके न घर पलिका पग ज्यो रति भीति । रूप की उझिले अछे अानन पें नई नई तैसी तरुनई तेह अपो है ।-सेवक (शब्द॰) । | अरुनई हैं --धनानद, पृ० ३१ ।। २ ऊपर उठना । उभइन् । उमडना । उ०—नै उझके से नैन उझिलना-क्रि० स० [हिं० 1 दे० 'उझलना' ।। इन्विा को विरुझे से दिझ ही सी भौहे उझके से डर जात हैं। । उझिला--सज्ञा झी० [हिं० उझिलना] १ उबटन के लिये उवाची दि -केशव ( शब्द०)। ३ ताकने के लिये ऊँचा होना । झाँकने हुई सरसो । उबटन का सुगवित सामान जिसमें तिल, सरसो, के लिये सिर उठाना। झाँकने के लिये सिर बाहर निकालना । | नागरमोथा आदि पडता है। २ खेत के ऊँचे स्थानो से खोदी ३० •- (क) जहें तहँ उझकि झरोखा भकिति जनक नगर की हुई मिट्टी जो उसी खेत के गड्ढो या नीचे स्थानों में खेत चौरस नार । चितवनि कृपा राम अवलोकत दीन्हो सुख जो अपार। करने के लिये भरी जाती है । ३ अदाव या टपके हुए महुए - सूर (शब्द०)। (ब) सूने मवन अकैली में ही नीक उझकि को पिसे हुए पोस्ते के दाने के साथ उबालकर बनाया हुया निहारयौ ।- सूर०, १०।२६६३ । ( ग ) मोहि भरोसौ एक प्रकार का भोजन । fझहै उझकि झाँकि इक बार |–विहारी र०, दो० उझोना--संज्ञा पुं० [ देश० ] जलाने के लिये उनले जोडने की क्रिया । ६८२ । ( ५ ) फिरि फिरि उझकति, फिर दुरति, दुरि, दुरि। अहरा ।। उझरुति जाइ 1--विहारी र०, दो० ५२७ । ( ३ ) अचरज क्रि० प्र०—लगाना । कर मूलि मन रहै । फेरि उझककर देखन चहै।--चल्लू० । ( शब्द०)। ४ चंचल होना । सजग होना। चौंकना ! उ०- उदगा, उटु गरे---वि० [सं० उत्त झ] वह कपडा जो पहनने मे ऊँचा या छोटा हो । वह कपडा जो नीचे वहाँ तक न पहुचता हो (क) देखि देखि मुगलने की हरमें भवन त्यागें उझकि उझकि जहाँ तक पहुंचना चाहिए। ओछ। कपड़ा। उठ बहुत बयारी के । भूपण ( शब्द०)। ( ब ) हैरत हो जाकै छ पलहू उदाकि सके न । मन गहने धरि मीत ६ उटगन-सझा पुं० सं० उ = घास + अन्न 1 एक घास ।। छवि मद पीवत नैन ।।-रसनिधि ( शव्द०)। विशेष---यह 3डी जगहो में नदी के कछारों में उत्पन्न होती है। उझकुन-सा पुं० [हिं०] दे॰ 'उचकन'। और तिनपतिया के प्रकार की होती है, पर इसमे चार पत्तियाँ उझपना- क्रि० स० [हिं० झरना 1 खुलना । पलको का बद । होती हैं। इसका साग खाया जाता है। यह शीतल, मलरोधक, न नि । त्रिदोपघ्न, हुलकी, कसली अौर स्वादिष्ट होती है और ज्वर, उझर -वि० [ देशी० उज्झल = वल ]= वनिष्ठ । उ०—हैं। वीस तथा प्रमेह आदि को दूर करती है ।। इन् जाम उद्दव उझर मिति चिहु चपिय बड़े गर ।--पृ० पर्या०--सुनिषक । शिरिरि। चौपतिया। गुठुवा। सना। ।०६।२०३ । उटगा-वि० [हिं०] दे० 'उदंग' । । उझरना -क्रि० स० [सं० उत् +सरण] ऊपर की ओर उठाना। उट-सज्ञा पुं० [सं०] पत्ती । घास । तृण । [को॰] । ऊपर रिमकाना । उ० --- क उठाइ घूघट करत उझरत पटा१o-xa or देसज 1 अनमान करना । अटकल लगाना। गु झरौट, सुख मोटे लूटी ललन तखि न उना की लौट । अदाजना। उ०—-'भूस्खन बसन विलोकत सिय के । बरने --विहारी र०, दो १२८ ।। तेहि अवसर वचन विवेक वीर रस विय के । धीर वीर सुनि उझरना - क्रि० अ० [ हि० उजडता 1 उजड़ना। समाप्त होना । समुझि परमगर बल उपाय अटकत निज हिय के —तुलसी उ०—क कवीर नट नाटिक थाके मदना कौन वजावै । गये (शब्द०)। पथनिन उझरी बाजी, को काहू के प्रावै ।---कवीर ग्र थ० (° उटकना--क्रि० अ० [हिं० अटकना ] गाय भैंस आदि का दुध

पृ० ११७ देते देते बीच मे रुक जाना। उनलन/-क्रि० स० [सं० उज्ज्ञरण ] =(जनरे। किसी द्रव पदार्थ को ऊपर से गिराना । उटक नाटक-- वि० [ हि० उठना ] ऊँचानी ची। ऊबड़ खाबड उनलुना?--क्रि० प्र० उमडना । चढ़ना । उ०——वह सैन दरेरन । अडवर्ड। देति चली । मनु मावन की सरिता उझनी । सुदन । उटक्कर –सुज्ञा पुं० [हिं०] १ ३० टक्कर' । ३०-सीमन को ( शब्द॰) । टक्कर लेत उटवकर घालत छक्कर लुरि लपटें 1-पद्या ग्र०, उन्नौकना--क्रि० स० [हिं० उ + सकिना ] झाँकना । उचककर | पृ०, २६ । १३ मतमाना। इधर उधर का। दैन । उ०-- होऊ धडो द्वार को ताक । दोरी गलियन । यौ॰—उटककर फातिहा= दे० 'उटक्करलेस' । फिरत उझोके 1--नल्लू ० (शब्द॰) । उटक्करलेस–वि० [हिं० अटकल + लसना] अटकलपच्चू । मनमाना। उन्नटिना - क्रि० स० [भु० उसे छोडना । गिराना। उ०---- अडवड । विना समझा बुझा। जैसे,तुम्हारी सव वाते गऊ पर प्रीटिंग घार उन्झटि । घरे भरि भोजन मिश्रिय उटक्करलैस हुमा करती हैं। उ०—-निदान विना किसी ठोर चटि ।—1 • ६३ । १०६ । ठिकाने टक्करलेस इधर से उधर और उधर से इधर । झालना--झि० त० [ हि० ] दे॰ 'उझनना' । प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ० १५६ । इनिर --- धी० [ सू० क्विल्प] कात्रि । दीप्ति । उ०- उट्ञ--सज्ञ, पुं० [सं०] * पी। कुटी।