पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३७९

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काठडा--सज्ञा पुं० [हिं० फाठ+डा (प्रत्य०)] [स्त्री० काठड़ी] काठ यौ–काठ कठगर == निस्सार वस्तु । निस्तत्व पदार्थ । उ०- का बना हुम्रा बरतन । कठीना । ससय काठ कठगरा तास काटत लगे न वार ।-मीखा काठनम--संज्ञा पुं० [हिं० काठ+नीम] एक प्रकार का वृक्ष जिसे श०, पृ० ८६ । काठ कवाड़= लकडी का बना भामान जो टूट । गधेल भी कहते हैं। वि० 'गधेन' । फुटकर वेकाम हो गया हो । काठ का उल् = जड । वज्जे मूर्ख । घर अज्ञानी । काठ की घोडी = अस्तित्वहीनता का अाधार। काठबेर--संज्ञा पुं० [हिं० काठ + बेर] दे० 'घुट' (वृक्ष) । काठवेल-सज्ञा स्त्री० [हिं० काठ+वेल इद्रायन की तरह की एक शून्याघ्रार । उ०-चारगजौ चरगजी मंगाया, चढ़ा काठ की वेल जो हिदुस्तान के खुएक हिस्सो में तथा अफगानिम्तान और घोडी -कवीर श०, पृ० ६। काठ की हाँडी = धोखे की फारस में होती है । चीज । ऐसी दिखाऊ वस्तु जिसका धोखा एक बार से अधिक विशेप-इसके फूले इंद्रायन के फल के समान ही कडए ते न चल सके । उ०—जैसे,—हाँडी काठ की चढे न दूजी वार ! हैं । इनके बीज से तेल निकलता है जो जलाने के काम में काठ का घोडा = वैसाखी । काठ कटीअल बाँसुरी = अमिनोली । अाता है। कोई कोई इसका व्यवहार दवा में इंद्रायन के स्थान की तरह का एक खेल जिसमे लडके किसी काठ को छु छूकर पर करते हैं। इसे कारित भी कहते हैं । अते हैं। काठ होना=(१) साहीन होना । चेतनारहित होना । जडत् काठमांडू-सच्ची पुं० [सं० काष्ठ, प्रा० कट्ठ + मंडप, प्रा० मड़व] नेपाली की राजधानी । होना । स्तव्य होना । जैसे--सिपाही को सामने देखते ही वह विशेष- इस नगर मे काठ के मकान अधिक होते हैं, इसी से इसका कार्ट हो गया । (२) सूखकर कडा हो जाना (वस्तु के लिये) । यह नाम पड़ा। काठ कोड़ा चलना=(१) काठ में पैर देने और कोड़ा मारने का काठमारी-वि० [हिं० काठ+मोरना] जिसे काठ मार गया हो। अधिकार होना । दड देने का अधिकार होना ! अ वसन्न । सज्ञाहीन । विशेप-यौगिक शब्द बनाने में कठि' को 'कठ कर देते हैं । जहे-कठफोडवा, कठपुतली कठघोड़ा, कठफूमा, कठमलिया। काठिन-सज्ञा पुं० [सं०] १. कठोरता । कडापन । २ खजूर का फल को०)। ऐसे पेडो के नामों में भी 'कठ' लगाते हैं जिनकै फल नीरस । काठिन्य-सुज्ञा पुं० [सं०] कड़ापन् । कठोरता । सनी । अौर विना गूदे के होते हैं, जैसे,-कठजामुन, कठगुन्नर, कठवेर । पुं० [हिं० काठ = समुद्रतट +चाद्ध- द्वार] २.ई घन् । जुलाने ही लड़ी ३ शहतीर । लक्कड । लडाकुठियावाड़-सुज्ञा की वडी तar ॥ लकड़ी की बनी हुई बेडी। कलदरा । | भारतवर्ष का एक प्रति जो अब गुजरात देश का पश्चिम उ०—कोतवाल का करि वाँध्यौ छूट नहीं साँझ अरु भोर । भाग है । सु दर अ , भा॰ २, पृ० ५५७ ।। । विशेष—यह कच्छ की खाड़ी और ख भात की खाडी के बीच मे विशुप - यह वेडी वास्तव में दो वरावर तराशे हुए लक्कडी से। है । इस प्रात के घोड़े प्रसिद्ध होते है जिन्हें लोग काठी कहते बनती है। दोनों के बीच मे छेद होता है। इसी छेद में अपराधी हैं । यह प्राचीन काल में सोराष्ट्र मंडल के अतर्गत था। | का पैर डाल देते हैं और दोनो लक्कडो को पेंच से कस देठे है। | काठियावाडी'—वि० [हिं० काठियावाड़] काठियावाड से सवधित । मुही-काठ पहनाना, फाठ मारना=अपराधी को काठ की वेडी काठियावाडे का । पहनाना । काठ में पौद देना=(१) अपराधी को काठ की वेडी काठियावाडी- सज्ञा पुं० काठियावाड की वोली । पहनाना । कलदरे में पांव डालना । (२) जान बूझकर स्वय | काठी'सच्चा स्त्री० [हिं० काठ] १. घोडो की पीठ पर कसने की वघन मे पडना । उ०—फूले फूले फिरत है। होत हमारो व्याव।। जीन जिसमे नीचे काठ लगा रहता है। यह प्रागे और पीछे की तुलसी गाय वजाप के देत काठ म पाँव —तुलसी (शब्द०) । ओर कुछ उठी होती है । उ०—कोड़े पर अच्छी चमडे की कठी ५. अचेत दशा । सञ्जाहीन की स्थिति (६.कामस्वधो के विपय लगी हुई थी -- किन्नर, पृ० ३८। में वेदव । जैसे--काठ झोरत, काठ मर्द । क्रि० प्र०—कसना ।—धरना। काठq--संज्ञा पुं० [हिं० काठ की पुतली का सक्षिप्त रूप दे० २ ऊँट की पीठ पर रखने की गद्दी जिसके नीचे और ऊपर के उठे। 'कठपुतली' । उ० -केत चिरहँटा पंख लावा । कतहुँ पबडी । हुए भागों में काठ रहता है । ३ तलवार या कटार का काठ काठ चावा 14-जायसी (शब्द॰) । कृा म्यान जिसपर चम डा या कपडा चढ़ा रहता है। काठक-संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण यजुर्वेद का एक शाखा 1 उ०—-तैत्तिरीय काठो-सज्ञा सी० [सं० कायस्थिति, प्रा०कायट्टिवा अयवा सुं० फायस्यि, सहिता और कठिक संहिता से भी प्रगट होता है कि प्रा० फा ]ि शरीर की गठन । अँगलट । जैसे,—उसकी आंदो की गणना भी समाज के अगों में होती थी ---हिंदु० सभ्यता, पृ० ८६ ।। काठी बहुत अच्छी है । उ०-तेरी पूजी सेवा ये रे प्रोजी पाई काठी दे रे !-—दक्खिनी ० १० ३६।। 9-काठगह्यसूत्र=एक सूर्य थ का नाम । काठक सहित =कृयजुर्वेद का एक भाग या शाखा । झाठकपनिषद् - काठी-वि० [फाठियावाड़) काठियावाड़ का (घोड़ा) । उ०-- कठोपनिपद् । दल सुध दान दिया, काठी घाटी कवियण ।-बाँकी० अ०, काठकवाड़ सी पुं० [हिं० काठ+कैवाई (अनु०)] लकड़ियो अादि भर० । ११ १५। के दुढे फुचे और निकम्मे दुई । अग, खम् । = कठपुतली' । यता बंद का