पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३७७

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जिरे काटने म काजर-मुज्ञा पु० [स० कज्जल [हिं० कजिन ] ६० 'के जल महा०—-काजर केरी कोठरी = दे० 'काजर की कोठी । उ०काजर वेरी कोटरी काजर ही का कोट । वलिहारी वा दास की, है नाम को ऋोट - वीर सा० स०, भा० १ पृ०२२ । काजरिषु-संज्ञा स्त्री॰ [ स० कज्जल हिं० काजरो ] काले रंग की | गाय । उ०—टेर सुनहि तव जव होहि तियरी ! दूर गई वे का जरि पियरी। नद० ग्र०, पृ० २८७ । काजरी--संज्ञा स्त्री॰ [स० कज्जली ] वह गाय जिनकी अखिो किनारे कावा घेरा हो । उ०——वह उचाइ काजरी घौरी गैयन टेरि बुलावेत ।- सूर (शब्द॰) । काजरु--सा पु० [हि काजर ] दे॰ 'काजल, । उ-कजरारी | अंखियान में भूली काजरू एक 1--मति० ग्र०, पृ० ३३३ । काजल-संज्ञा पु० [सं० कज्जल ] वह कालिख जो दीपक के धुएँ के । जमने से किसी ठीकरे आदि पर लग जाती हैं और अखिो मे लगाई जाती हैं। क्रि० प्र०—देना ।--पारना ।—लगाना । मुहा०—काज घुलाना, डालना, देना, सारना = (अखिो में) काजल लगाना । काजल पारना= दीपक के धुएं की कालिख को किती वरतन में जमाना । काजल की ग्रोवरी या कोठरी= ऐसा स्थान जहाँ जाने से मनुष्य दोप या कलेक से उसी प्रकार नहीं बच सकता जैसे काजल की कोठरी में जाकर काजल लगने से । दोष या कृल क का स्थान । उ०--(क) यह मथुरा काजल की अोवरी जे अविहि ते कारे ।—सूर (शब्द०)। (ख) काजल की कोटरी में सहू सयानो जाये एक लोक काजल की लागै प लागे री ( शब्द०)। या काजल का तिल = क जिले की छोटी बिंदी जो स्त्रियाँ शोभा के लिये गालो पर लगाती हैं। काजलिया –वि० [सं० झज्जल, हि० काजल +इया (प्रत्य॰) दे० ‘कजनीवाली' । कजली शी । उ०—जई तू ढोना नावियउ, काजलियारी तीज, चमक मरेसी माखी, दख खिवत बीज । ढोला०, ६० १५० । काजली--सा जी० [हिं कजली ] दे० 'कजली--६' । उ०— रमई सहेली काजली, धरि धरि कामिनी मड़ई छइ खेल --- वी० सो, पृ० ४८ । न -क्रि० वि० [सं० किम ] वयो । उ०—कोकिल काजि सतावह कान्ह --विद्यापति, प० ४१५ ! फाजिव–सच्चा पुं० [अ० कानिब झूठ बोलने वाला । झूठा । । उ०—-झूठ की किश्ती चढे झूठ को काजिव तारे |--कवीर म०, १० ३७५। काजो-सा पुं० [अ० काजी ] मुसलमानो के धर्म और रीतिनीति के अनुसार न्याय की व्यवस्था करने वाला । मुसलमानी समय का न्यायाध्यक्ष । ३०--(क) काजी जी दुवो केयो , तर के अ देरी से । (ख) रौशन जमीर वेचू साना साफ काजी कादिर।। -पलटू°, १० ८३ । काजू-सज्ञा पुं॰ [ शक० काजु ] १. एक पेइ जो मदरास, केरल, उटt३ मीर उनवरिम आदि स्थानों में देता है । विशेप-इसकी छाल बहुत खुरदरी और लकडी नूडें होती है। जिससे सुदूक और सजावट के सामान तैयार होते हैं। इसके फलो की गिरी को भूनकर लोग खाते हैं । मीन निकाली हुई गुठलियो के छिलको से लोग एक प्रकार का तेन भी निकालते हैं जो वेजाव की तरह तेज होता है। इसके शरीर में लगते ही छाले पड़ जाते है । यह तेल पुस्तको की जिल्दो मे लगा देने से दीमको को डर नहीं रहता। २. इसे वृक्ष का फल । ३ इस वृक्ष के फन की गुठली के भीतर | की मीगी या गिरी। काजू भोज़--वि० [हि काज+भोग ] ऐसी दिखाऊ वस्तु जो अधिक काम न मा मके। कमजोर या मामूली चीज । काट---संज्ञा स्त्री॰ [स० कतं, ग्रा० कट्ट ] १ काटने की क्रिया । काटने का काम । जैसे—यह तलवार अच्छी काट करती है । क्रि० प्र०—करना ।--- होना । यौ०-काट छाँट =(१) मारकाट । लड़ाई । (२) काटने से बचा खुचा टुकडा । कतरन । (३) किसी वस्तु में कमी वेशी। घटाव बढ़ाव। जैसे--इस लेख में बहुत काँटछाँट की अावश्यकता है । काट कूट =३० कांट छांट। मारकाट = तलवार अादि की लडाई । २ काटने का ढंग । कटाव । तराश । कतरब्यो है । जैसे,—इस अंगरखे की झाट अच्छी नहीं है। यौ०-फाँट छट=रचना का ढग । तुजं । किता। ३. कटा हुअा स्यान । घाव । जन्म । क्रि० प्र०—करना । ४ छरछराहट जो घाव पर कोई चीज लगने से होती है । ५। ढुंग 1 कपट | चालवाज । विश्वासघात । जैसे,—वह समय पर काट कर जाता है । क्रि० प्र०—करना । यौ6--काट कर्पट = चोरी छिपे किसी चीज को कम कर देना । काट छट = ढग । जोड तोड । छक्का पजा । जैसे,—वह वडी काट छाँट का आदमी है। काट फांस =(१) जोड़ तोड। फसाने का ढग। (२) इधर की उधर लगाना । लगाव वझाव । ६ कुश्ती में पेंच का जोड ! ७ चिकनाई अौर गर्द मिली मैले । तेल, घी आदि का तलछट। काट-सज्ञा स्त्री॰ [सं० किट्ट= मैले] वह मैन या तलछट जो तेल के पात्र में नाच जम जाता है। क्रि०प्र०-वैठना । काटकी-सज्ञा स्त्री० [हिं० फाठ+ फी] लकडी या छडी जिसे हाथ में लेकर कलदर बदर या भालु नचाते है। काटन-सज्ञा पुं० [हिं० काटना] किसी काटी हुई वस्तु के छोटे छोटे टुकड़े जिन्हें वैकाम समझकर लोग फेंक देते हैं । कतरने काटन-वृद्धा पुं० [अ० कटन १, कासे । रूई । २ ई छ। कपड़ा । जैसे,- काटनै मिरस । । काटन-क्रि० स० [सं० कतंन प्रा० फट्टण] १. किसी धारदार चीज की दाज में रगड़ से दो टुकड़े करना । शस्त्र अदि की यार धेमफिर किसी वन्तु के दो जई करना । जैन,-ने। झादन, विर छादन। as iss a । । ।