पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३७६

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कीची द६३ काज' में ते प्राधा श्राधा पाव कौंचे चना मनुष्य पाछे सोझ को मिलते पहनी हुई धोती जिसकी दोनों लागे पीछे खींनी जाती हैं। हैं ---दो सौ बीवन०, भा० १, पृ० १२६ } २ अनित्य । फछनी । असार । मिथ्या । उ०--समझ्यौं मैं निरघार, यह जग की चो क्रि० प्र०--फसना ।—काछना । -- बाँचना । --मारना। कोच सो । एकै ह्वप अपार, प्रतिबिवित लखियत जहाँ । —लगना । विहारी (शब्द०)। काछी'----सज्ञा पुं० [सं० कच्छ = जलप्राय देश] १. तर कारी वोने काची-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा दूध रखने की होडी । और बेचनेवाला । २ उक्त कार्य करनेवानी एके जाति । काची-सच्चा स्त्री० [हिं० फच्चा] तीखुर, सिंघाडे या कुम्हडे अादि काछी - वि० [सं० फच्छ] फच्छ देश का । कच्छी । उ०— | का हलुवा ।। काछी कर हु विथूमिया', घडिय3 Sोइए जाई । हुग्णाली जउ काच्या-वि० [हिं० काँचा दे० 'कच्चा' । उ० -कुभ काच्या नीर हँसि कह३, अाणिसि एथि विमाई --ढोला०, १० २२३।। भरिया विनसत नहि वार रे ।--दक्खिनी॰, पृ० ३१ ।। काछी३.- सी पुं० कच्छ देश का घोडा । ३०-पेत्र सुरगी घाघरा, काछ--सज्ञा पुं० [सं० कक्ष प्रा० फच्छ] १ पेड और जाँघ के जोड ढाके मत धर छात्र काछी चढ़ प्राछी फहू' हैजा भीजण पर की तथा उसके कुछ नीचे तक की स्थान । २ घोती का हाले । मी० ग्र०, भा० २, पृ० ८ । वह भाग जो इस स्थान पर से होकर पीछे खोसा जाता है। काछुई-: सण सौ० [सं० कच्छप, प्रा० कच्छवी} ६० 'कछु' । लौंग । उ०---(क) कसि कुछ दिए घंघरी की कसे कटि सो उ०—प्रड, पालै काकुई, विने यन वे पोके । यों करता उपरोनिय भाँति भली ।-रघुनाथ (शब्द॰) । (ख) चतुर सबकी करे, पानी त नउ रोक ।--कवीर सा०, पृ० ८१ । काछ काछै जब जैसा । तब तहँ नाच दिखावे तैसा ।—विश्राम काछ-सज्ञा पुं० [सं० फच्यप, कच्छर] दे॰ 'कछुवा' । उ०—(शब्द॰) । चेला पट न छाडहि पाछु । चेला मृच्छ गुरु जिमि कीछु।-- क्रि० प्र०—-फसना । -- फाछन ।--सोलना । —देना ।। जायसी (शब्द०)। ---बाँधना - मारना।- लगाना । कुछे-क्रि० वि० [सं० कक्ष, प्रा० पच्छ] नियट | पसे । नजदीक । ३ अभिनय के -िये नटो का वेश या बनाव । उ००-नाहि फह्य सु दे नउ हरि को मैं गावनि हौं पर्छ । काछना- क्रि० स० [सं० कक्ष, प्रा० फच्छ] १ कमर में लपेटें | वैमहि फिी मूर के प्रभु १ जहा' कुन गृह काछे:- सूर (श'०)। हुए वस्त्र के लटकतै भाग को जाँधी पर से ले जाकर पीछे काज-सज्ञा पुं० [सं० कार्य प्रा० कक्ष] १ प्रगन ] कि उद्देश्य कसकर वाँधना । २ बनाना । सँवारना । पहनना । उ० को निद्धि के लिये किया जाय । कामं । म । कृत्य । १०-- (क) गौर किशोर वेप वर काछै । कर शर वाम राम के (क) ज्ञानी लोम करत नहि कह लो विगारत काज - पाछे ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) ए ई राम लखने जे सूर (शब्द०)। (ख) घाम, धूम, नीर श्री रामर मिले पाई मुनि सँग अाए हैं । चौतनी बोलना काछे सखि सोही अागे देह ऐसो घन क से दूत काज भुगतवैगो ।-नक्षण (शब्द॰) । पाछे ।--तुलसी (शब्द॰) । क्रि० प्र०--करना । --कराना । - चलना । --चलान । काछना--क्रि० स० [सं० फषण = घिसना, चलाना] हथेली या --निकलना 1- निफालना । --भूगनना |-- भुगताना । चम्मच आदि से किसी तरल पदार्थ को किनारे की ओर खीच --सँवारना ---सरना । सारना।। कर उठाना या इकट्ठा करना । जैसे, पोस्त से अफीम काछना, महा०–के काज = ने हेतु । निमित्त । ये । उ०—पर स्वारये

  • के काज मीस ग्राने धरि दोजे ।--गिर' (शब्द०)। होरसे पर मे चदने का काछन ।

३ व्यवसाय । धा । पेशा । रोजगार । जैसे, (क) इन लड़के काछनि -सज्ञा स्त्री० [हिं० फाछनी] दे० 'काछनी । उ०— को अब किसी काम काज में लगाझो । (ख) अपने घर का कम्ल दल नि की काऊनि काळे, बातु विचित्र चित्र वृन काज देखो । ३ प्रयोजन । मत ब ! उद्देश्य । अयं । उ०— अछे ।-नद० ग्र ०, पृ० २९३ ।। (क) रोए कन न वह त रोए का काज ?--जायसो काछनी--- खुल्ला सी० [हिं० फाछन] कसकर और कुछ ऊपर (शब्द०)। (ख) विन फाज अाज महराज नाज गइ मेरो । चढ कर पहनी हुई धोती जिसकी दोनो लगे पीछे खोसी जाती (त), (शब्द०)। ४ विवाह संवेधे । उ०—यह घामले राजकुमार सखी, दर जानकी जोगह जन्म नयो । हैं । कछन । उ०--(क) काछनी कटि पीत पट दुति कमल रघुराज तथा मिथि नपुर राज काज यही जो न काज केसर खड 1--सूर (शब्द) । (ख) भीम मुकुट कटि काछनी, भयो ।-रघुरज (शब्द॰) । कर मुरी उर मलि ।- विहारी (शब्द॰) । क्रि० प्र०—फसना ।—होना ।—भरिना । क्रि० प्र०----फरना ।—होना । ६. घाघरे की तरह का एक चुनावदार पहनावा जो अ।धे जथे ५ बालक अवस्था से बड़े या किसी बूढे अादमी के मर जाने का भोज । काम । तक होता है और प्राय जाघिए के ऊपर पहना जाता है । क्रि० प्र०—करना ।—पड़ना। - हो । अाजकल मूतियो के ऋ गार और रामलीला अदि में इस काज.. सच्चा पुं० [पुर्त० काजा, दणी काज़] छेद जिसमे वटने पहनावे का व्यवहार होता है। हाल फर फंसाया जाता है । वन का घर । काछा–सच्चा पुं० [हिं० काछना] कसकर और कुछ पर चढ़कर क्रि० प्र०--वनाना ।