पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३७५

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कागत ८६१ काचा कागतीश पु० [अ० कागज, हि० कागद] दे॰ 'कागज' । उ० - कागावासी-सच्चा पु० [सं० झाक+भासी] एक प्रकार का मोती जो ऐन संग्रम होत ने कबहू देख्यौ नरी, दुति को दुति लेखन कुE काला होता है। ऋगत !-पोद्दार अनि० ग्र०, पृ॰ ३६० । । कागारोल---सा पु० [हिं० फाग = कौआ + रोर= शोर] हल्ला । कागद-सज्ञा पुं० [अ० फागज़ ]१. कागज । उ०—सत्य कहीं लिखि | हुल्लई। शोरगुन । कागद कोरे ।—तुलसी (शब्द॰) ) २. किती कार्यालय का कागिया--सज्ञा स्त्री॰ [देश०] तिव्वत देश की एक प्रकार की भेड। शिप रजिस्टर | खाता । वही । उ० ---सायी हुमरे चल विशेप---इसका सिर बहुत भारी और टॉमें छोटी होती हैं । जए, हम नी चालनहार । कागद में बाकी रही तार्ने लागी वार । इसका मान बहुत स्वादिष्ट होता है। लोग इसे ऊन के लिये कवीर सा० सं०, पृ० ७९ नहीं, मान के लिये ही पालते हैं। क्रि० प्र०—प्रीती |--काटना ।—खोना ।—हिरानी । कागिया-सज्ञा पुं० [हिं० काग+इया (प्रत्य॰)] काले रग का एक यौ--कागदपत्र, कागदपत्र = दे० 'कागजपत्र' । | कोडा जो बाजरे की फसल को हानि पचाता है। मु०–कागट फटना=(१) किसी की मृत्यु होना । (२) मरने क्रागिल- तुझा पुं० [हिं० काग] काग । फौग्रा ! उ०—कागिल का लक्षण प्रकट होना। कागद खोना= दीर्घजीवी व्यक्ति का गर फाँदियाँ, बटेरे बाज जीता -कवीर ग्र ०,१० १४१। कप्टमय जीवन लंबा होते जाना । कागोर--संज्ञा पुं० [सं० काकवलि] पितृकर्म में कव्य का वह भाग जो कागदगर---संज्ञा पुं० [हिं० फागद+फा० गर (प्रत्य॰)] कागज कौए के लिये निकाला जाता है। काकवलि । लिखनेवाला । उ०—तक अपवित्र कर मानिए जैसे कागद- काच'-- वि० [हिं० कच्ची या काचा,] १ कच्चा । उ०—-प्रागे गर करत विचार ।--१० बानी०, पृ० ३७ । । पीछे जो करे सोई वचन है काच –१० दरिया, पृ० ३। कागदो -वि० [हिं० कागद +ई (प्रत्य॰)]केवल कागज पर लिखने २ जी का कच्चा । कायर । हेरपोक । । वाना, व्यवहार न करनेवाला। उ०--कागद लिखे तो कागदी काच-सज्ञा पुं० [सं०] १ शीशा । कवि । २ अव का एक रोग को व्योहारी जौब । मातम दृष्टि कहाँ लिवै, जित देवै तित जिसमें दृष्टि मंद हो जाती है। ३ वारी मिट्टी। ४. काला पीव।—कबीर सा०, पृ० १५ । नमक । ५. मोम । ६. जुए के भार को से भालनेवाली रस्सी । कागभुसु डि, कागभुमु डो –उ पुं० [सं० काकभुशुण्डि) | ७ तराजू की डोरी [को॰] । | दे० 'काकभुशुङि' । काचक- -सज्ञा पुं० [सं०] १ शीशा । कोच । २. पत्यर। ३ खारी कागमारी-सजा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की नाव जिसके आगे पीछे मिट्टी [को०] । के निश्के लवे होते हैं । कचिड़गारा--वि० [स० कच्चर+ कार]बुराई करनेवाला। उ०~गर -सज्ञा पुं० [अ० फागज] १. कागज। उ०—(क) तुम्हरे । काचडगारा ऊपर रामतणी है रीसे । काचडगारा कूबडा वगई देश कागर मसि खूटी। प्यास अ६ नीद गई सब हरि के बिना विसंवा वीम --बाँकी० ग्रं॰, भा॰ ३, पृ० ७५। विरह तन टूटी --सूर (शब्द॰) । (ख) कविते विवेक एक | काचडा--सज्ञा स्त्री० [सः कच्चर-बुरा, नीच चुगलो । उ०—नहि गेरें । सत्य कहों लिखि कागर कोरे -मानस. १५६।। मुख ग्रोडी रे माहिले, पर कोचहा पुरीष ।--वाँको ग्र०, २ पव। पर। उ०—(क) कौर के कागर ज्यो नपचौर वि भूपन मा० २, पृ० ५७ ।। उप्पम अगनि पाई 1—तुलसी (शब्द॰) । (ख) कागर कीर ज्यों भूपन चीर सरीर लस्यो तुज्यो नीर ज्यो काई । —तुलसी काचन, काचनक- सज्ञा पुं० [सं०] सामान, कागज के बइल अथवा (शब्द०)। हस्तलेख के पन्नों को बांधने की डोरी [को०)। कागरी -वि० [हिं० फागर= फागज ] तुच्छ । हीन । उ०- नेट काचमणि-संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक । नागर गुनन के अागर में प्रीति वाड़ी गाडी नइ प्रतीति जगी चिर -सज्ञा स्त्री॰ [हिं० कचरी] दे० 'कचरी' । उ०--फोग केर राति मई का गरी 1--रघुराज (उब्द॰) । | काचर प्ली, पापड गेधर पाते --बाकी० ग्र॰, भा॰ २, कागलपु-- सज्ञा पुं० [हिं० फागर] दे॰ 'कागर' । उ०—कागल पृ॰ ६७ ।। नहा कनमें नहीं, नही कलेवणहार ।--ढोला०, ६० १३० । काचमल--सा पु० [सं०] काचलवण ! लोपु)---वि[हिं० कागरी} दे० 'कागरी' । उ०—-जीवन घडीय है न वि रहुई । जणिसु कली हु वेहार —बी० , काचलवण-सा पुं० [सं०] काचिया नोन । काला नोन। सोचर | नोन । कागाईभ पुं० मि० की, फान] २० 'का' ।। काचरी -सद्ध श्री० [हिं० रुचिलो दे० 'का'चरी' । का दुवानी-संज्ञा स्त्री० [सं० फाफ+वदित (बोली या बोलने की काचली---सी चौ॰ [हिः कचिली] दे० 'का'चनी। उ०—-साप समय अपवा हि० फागवासो] नगि जो नवेरे कग्रा वोनते काचली छाडे बीच ही न छोड़े। उदक में बर्फ ध्यान माई। मिय छानी जान । सुवेर के समय को भाँग । उ०—प्राप माल मन छ ने उ भोरहि कागवानी --हरिश्चंद्र (शब्द॰) । --दग्विनी०, १० ३५ । चा- , ० काँचा] १. 'इच्चा' । उ०-इनको राजदार