पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३७३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

झाकुम शकली विशेप---इसके सिर पर ?ढी चोटी होती है । इस चोटी को यह संगीत में वह स्थान जहा मूक्ष्म और स्फुट स्वर लगते हैं ५. ऊपर नीचे हिला त कता है। इसका शव्द बड़ा फर्कश होता है घुघची। गुजा । ३ क ची (को०) । ७ हुलकी ध्वनि का वाद्य और सुनने में 'क के तु अ' की तरह मालूम होता है । यह पक्षी जिसको चोरी करते समय चोर यह जानने के लिये बजाते हैं। जावा, वोनियो ग्रादि पूर्वी द्वीपसमूह के टापुयों में होता हैं । कि लोग सोए हैं या नही (को॰) । यौ०-- काकलीद्राक्षा । काकातुप्रा--सज्ञा पुं॰ [हिं०काकातु ] दे० 'काकातुग्रा' । उ०— काकता महर गहू के द्वार का भी दुखी था । 'भूल जाता काकनी–वि० [ स० काकलिन् ] जिसे काकली या घंटी हो । सकल स्वर था उन्मता हो रहा वा ।—प्रिय०, पृ० ५१ । काकलीक---सज्ञा पु० [ स० ] मद मधुर स्वर (को०] । काकनीद्राक्षा---सज्ञा स्त्री॰ [ ० ]१. छोटा ग्रेगु । ककिदिनी माझी स्त्री० [सं०] १ को प्राठोठी । २ नफेद ध धवी । विशेष—इनमे वीज नहीं होते और इसे मुखाकर किशमि हो । काकायु-मज्ञा पुं॰ [ त०] स्वर्ण व नी (ले०) । | बनाते हैं । काकोर–वि० [ सु० ] जन डिन या फे नेला [को०] । २ किशमिश । काकारि-सज्ञा पुं॰ [सं०] उल्लू [को॰] । काकली निपादि---संज्ञा पुं॰ [सं०] एक विकृत स्वर । काकाल-सुज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'काकन (को०) । विशेप-यह कुमुद्दी नामक श्रुति से प्रारम होता है और इसमें काकाप्ट-सधा पु० [ मं०] पर्य क । खाट (को०] । चार श्रुतियाँ होती हैं । काकिण, काकिणिका --संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'काकिणी' [फो०] । काकवीरव-संज्ञा पुं० [सं०] [जी० काकलीरा] कोयल । काकिणिक-वि० [सं०] दे० 'काकिणीक' (को०] । काकशीप-सझा पुं० [ सुं० [ अगस्त को पेड या फूल । कपुq । काकिणी-सवा सी० [म०] १ घुघनी । गुजा। २ पण का चतुर्य हथिया । | भाग जो पाँच गई कोडियो का होता है । ३. माशे का चौथाई काकसेन--संज्ञा पुं० अ झाकस्वेन ] वह पुरुष जो किमी अफसर भाग ४, कौडी ।। की मातहती में रहकर जहाज और मजदूरों की निगरानी करता काकाणीक-वि० [सं०] काकिण्वाला ! अल्पत म धनवाना [को॰] । हो।-( ल . ) ।। काकिनी-सच्चा स्त्री० [सं०] दे० 'काकिणी' । उ०—साधन फल सति काकागा, काकागो-संज्ञा स्त्री॰ [स० काका, काकाङ्गोकाक जा। सार नाम तो भवसरिता कहें देरी । मोड पर कर काकि । | मनी (को०] ।। | लाग सठ वेचि होत हठ चेरो —तुलसी (शब्द॰) । काकाची—सा स्त्री॰ [ मं० काकाञ्ची ] काकजचा (क्यै) । काकिल-- सज्ञा पुं॰ [सं०] १. कंहार । कठमणि । २ गरदन का काका--सुवा श्री सि०] १ काकजधा। मुसी। २. काकोली ।। ऊपरी भाग (को०) । ३ घुघवी । ४ कठूमर । कठगूलर । ५ मकोय ।। काकी-सा • [स] कौए की मादा । काका-सज्ञा पुं० [फा०] [स्त्री० काफी ] १. बाप का माई ।। काकी-सज्ञा स्त्री० [फा० काका) चाची । चुची । चाचा । २. चमारो के नाच में करिगे का वह सायी काकू--संज्ञा पुं० [सं०] १ छिपी हुई चुटी भी बात । पंग । तनज । जिससे वह व्यग्य और हास्यपूर्ण सवाल जवाब करता । ताना। उ०—(क) राम विरह दशरथ दुबित कहत केकयी है। इस काका को फोकली काका भी कहते हैं । उ-काका | काकु । कुसमय जाय उपाय राव केवन कर्मविपाकु !-- उसका है सायो नट, गदके उसपर जमा पटापट, उसे टोकतt तुलसी (शब्द॰) । (ख)–विनु समझे निज अघपरिपाक । गोली खाकर, ख जायगी क्यो वे नटखट? 'मुन न जायेगा जारिज जाय जननि कहि काकू ।—तुलसी (शब्द॰) । २. मुनगे सी झट : ।--ग्राम्पा , पृ० ४५ । मलकार में वको वित के दो भेदो में से एक जिममे शब्दों के काकाकोग्रा-सी पुं० [हि* काका + फौआ ] दे॰ 'काकातुग्रा' ।। अन्यायं या अनेकार्य में नहीं बल्कि ध्वनि हो से इन काकासिगोलके न्याय- चा पुं० [सं०] एक शब्द या चाय की उलट अभिप्राय ग्रहण किया जाए। जैसे,—क्या वह इतने पर भी न फेरकर दो भिन्न भिन्न अय में लगाना ।। अवेगा ? अति आवेगी । उ०—प्रालफुल कोकिल कविन विशेप-5ोगो का विश्वास है कि कौए को एक ही ग्राख हो यह ललित वसत बहार । कहु सखि । नहि ऐ है कहा प्यारे है जिसे वह इच्छानुसार दाहिने या बाएँ गोलक में लाकर अपना अवह अगार (शब्द॰) । ३. अस्पष्ट कथन (को०)। ८. जिहा काम चलाता हैं। इसीलिये संस्कृत में कौए को एक्ष भी (को०) । ५ जोर देना। वन देना (को॰) । कहते हैं। जिस तरह एक अप को कोप्रा कभी दाहिनी और काकुत्स्य - सवा पुं० [३०] १ क कुत्#प राजा के वश में उत्पन्न पुरुप । केनी बाई र ले जाता है, उसी तरह किनी शब्द या वाक्य | २ रामचः । फा यथेच्छ वा उलटा अर्थ करने का का कानिक न्याय काकुद–धश पुं० [सं०] तालु (०] । फाकुन -सा पुं० [मे० के ३ नी] ६० 'ॐगन' । पुं० [नु० कम तानार देश के ठे? भागों में होने काकातुप्रसिद्धी पुं०[मला० ] एक प्रकार का बड़ा ताना जो प्राय ककुमसा वाती एक प्रकार का नवला । सफेद रन का होता है ।