पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३७१

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काउ। ६६७ काकतीय काउG-सुज्ञा पुं० [हिं० कांवर] दे० 'काँवर'-२ । उ० झाउ का पाँणी दुनिर गिर पईस ।-गोरख०, पृ० १३५ ।। काऊ'--क्रि० वि० [स० कुह. या फुचे अथवा म० कदापि, प्रा० कदावि कप्रावि> काड, फाऊ] कभी । उ०--हिय तेहि निकट जाय नहि काऊ !-तुलसी (शब्द॰) । काळ-सर्व० [सं० किमपि या कोपि] १ कोई । २ कुछ। ---उ० (क) पये श्रम लेश कलेश न काऊ ।तुलसी (शब्द॰) । (ब) गुन अवगुन प्रभु मान न काऊ !-तुलसी (शब्द॰) । काऊ३-सज्ञा स्त्री० [देश॰] वह छोटी खूटी जो वरही के सिरे पर जोते हुए खेत को बराबर करनेवाले पाटे ५ हेगे में लगी रहती है। कानी । काए---वि० [हिं० का] दे० 'किस' । उ०—के दुख री तोइ मात पिता को, के तेरे मा जाए वीर, काए दुख डुवि जैएँ ।-. पोद्दार अमि० ग्र०, पृ० ६१६ । काएथ्य -सवा पुं० [सं० कायस्थ) दे० 'कायस्थ'। उ०--तवहु न। चुवकप एक्कयो शिरि के शव काएथ्य --कीति०, पृ० ७० । काएनात --सा चौ[अ० कविनात सृष्टि । ससार ।दुनिया । उ०— जिससे है कायम यह कुल कानात |--कवीर मं०, पृ० ४६ ।। काकदि-सज्ञा स्त्री० [सं० कान्दि] एक देश का प्राचीन नाम । आजकल इसे कोकद कहते हैं। किस्तान में कोकंद नाम की नगर जो समरकंद से पूरव है। काक-संज्ञा पुं० [सं०] [सं० काकी] १. कौआ । २ लेगडा व्यक्ति (कौ०) । ३ एक प्रकार का तिलक (को०) । ४ एक माप (को०)। ५ एक द्वीप (को०)। ६. कौयो की भाँति पानी में केवल सिर डुबाकर स्नान करना (को०)। ७ चूर्त व्यक्ति (को०)। ८. ढीठ या वृष्ट व्यक्ति (को०) । काक—सज्ञा पुं० [अ० फार्क] एक प्रकार की नमें लकड़ी जिसकी डाट | वोतलो में लगाई जाती है । काग । काकी-सज्ञा पुं० [हिं० काकादे० 'काक। उ०—पुनि कन्ह का | गोइद राई । परिपुर्न क्रोध जै लगत लाइ।-पृ० रा०, १४१४०। काककगु-सी पुं० [सं० फाककङ्ग,1 चेना । कैगनी 1 काकुन । 'काककला–स जी० [सं०] १ चतुर्दा ताल का एक भेद । २. काकजंघा नाम की ग्रोपधि । काकगोनक-खुश पुं० [सं०] कौए को अखि की पुतली। उ०- उनको हितु उनही बने कोऊ फरी अनेकु । फिरतु काकुगोलक भयो दुहू देह ज्यौं एकु ।-विहारी (शब्द) । विशेष---प्रसिद्ध है कि कौए की अाँखे तो दो होती हैं, पर पुतली एक ही होती है और वह जब जिस अखि से देखना चहवा है वव वह पुतली उसी अdि में चली जाती है । फाकचचकू -सा झी० [सं० फाकचिवा] दे॰ 'कारुचिचा उ० फाकचचकु कृनला गुजा करत प्रनाम ।-अनेकार्थ०, पृ० २८ । कोकचिचाG--वश स्त्री० [सं० काचिञ्चा] गुजा । घुघचन्नेि] । काफचप्टाचा स्त्री॰ [सं०] कौए के समान सावधान या चौकन्ना | रहना [२] । अकन्द -सा पुं० [सं०] १, ठाऊपञ्च । २. भजन । काकजंघा-सा रनौ० [सं० काकज] १ चफ से नी । मत । विशेप--इसका पौधा तीन चार हाथ तक ऊँचा जाता है। इसके डंठल में चार-पाच गुल पर फूली हुई गांठें होती है। गाठी पर उठल कुछ टेढ़ा रहता है जिससे वह चिडिया की टीम की तरह दिखाई देता है । प्रत्येक पुरानी मोटी गाठ के भीतर एक छोटी कीड होता है जो वच्ची की पसली फड़कने में दवा की तरह दिया जाता है । इसकी पत्तिया इव डेढ़ इच लबी होती हैं । वैद्यक में काजघा कफ, पित्त, खुजली, कृमि और फोड़े फुसी को दूर करनेवाली मानी जाती है । २. गुजा । घुइचो । ३. मुगौन या मुगवन नाम की लता । काकजवु-सज्ञा पुं० [सं० काकजम्बु] दे॰ 'काकाफला' [को०] । काकजात-सङ्गा पुं० [सं०] कोकिल । कोयल कौ] । काकडा'-सज्ञा पुं० [सं० कर्कट, प्रा० कपकड़] एक बेड पेइ जो सुलेमान पहाड तथा हिमालय पर कुमाऊँ श्रादि स्थानो में होता है। विशेष--जाड़े में इसके पत्ते झड़ जाते हैं। इसकी कडी लकड़ी पीलापन लिए हुए भूरे रंग की होती है और कुरसी, मेज, पलग अादि बनाने के काम में आती है। इसपर खुदाई का काम भी अच्छा होता है। पत्ते चौपायो को खिलाए जाते हैं। इसमें सीग के प्रकार के पोले वादे लगते हैं जिन्हें काकडासीगो कहते हैं। काकडा--सज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का हिरन जिसे सभर या साबर भी कहते हैं। काकडासीगी-सक्षा स्त्री० [सं० फर्कटशृङ्गी] हिमालय के उत्तरी पश्चिम माग मे काकडा नामक पेड़ में लगा हुआ एक प्रकार का टेढा पोला वादा जिसका प्रयोग औषधी में होता है । विशेष---यह रंगने और चमडा खिझाने के काम में भी आता है । लोहे के चर के साथ मिलकर यह काला नीला रंग पकडता है । वैद्यक में इसे गरम और मारी मानते हैं। खाने में इसका स्वाद कसा होता है। वात, कफ, श्वास, वातो, ज्वर, अतितार और अरुचि अादि रोगों में इसे देते है। अरकोल या लखिर नामके वृक्ष का वादा भी काकड़ासगी नाम से विकता है। काकण--संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कोई । विशेप–इस रोग में त्रिदीप के कारण रोगी के शरीर में गुजा के समान लाल रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं जिनमें बीच बीच में काले चिह्न भी होते हैं। ये चकत्ते पकत तो नहुँ, पर इनमें पीड़ा मीर खुजली बहुत अधिक होती है । काकणी-सी धी० [सं०] चुचची । काकतालीय-वि० [सं०] स योगवश होनेवाली । इत्तफाकिया । विशेप-यह वाक्य इस घटना के अनुसार है कि फिी ताद्ध है पेड़ पर एक कोया ज्या है। प्राकर बैठा त्या ही उनका एक पक फर लद वे नीचे टपक पडा । यद्यपि कौए ने फल को नहीं गिराया, तथापि देवनेवालों को यह धारणा होना सनव हैं कि झोप ने ही फख गिराया।