पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३७०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

पृ० २७० ।। कौसा ६५६ काई के अत मे फुलता है। फूल जीरे में सफेद रूई की तरह लगते जिस दूसरे शब्द का सवध होता है, यदि वह स्त्रीलिंग होता है। हैं। काँस रस्सियाँ बटने और टोकरे अादि बनाने के काम तो 'का' के स्थान पर 'की' प्रत्यय अाता है। में आता है। इसकी एक पहाडी जाति वनकस या बगई का —सवं० [सं० क , या किम् या किमिति] १. क्या । उ०—का कहलाती है जिसकी रस्सियाँ ज्यादा मजबुत होती हैं और दाति लाभ जीर्ण बनु तोरे । —तुलसी (शब्द॰) । २ व्रत जिससे कागज भी बनता है। भाप में कौन को वह रूप जो उसे विभक्ति लगने के पहने विशेष-- कोई कोई इस शब्द को स्त्रीलिंग में भी वोलते हैं । प्राप्त होता है। जैसे,—काको, कासो । उ०—कही कोशिश, मुहा०—-फाँस मे तैरना = असमंजस में पहना । दुविधा में। छोटो सो ढोटी है काको ?---तुलसी (शब्द॰) । पडा । कास मे फैसना= सकट पड़ना । का सज्ञा पुं० [हिं० काकी का सक्षिप्त रूप] ३० 'काका' । कासासज्ञा पुं० [सं० फास्य] [वि० फाँसी] एक मिश्रित धातु जो उ०-पचे राइ पचाल,, लिन्न वैराट उद्धार । जैतसिह महा ताँबे मोर जस्ते के सयोग से बनती है। कसकुट । मरत । भुअल को कन्ह नहि नर |--पृ० ०, २१ । ५५ ।। उ०—-काँसे ऊपर बीजुरी, पर अचानक प्राय । ताते नि भंय । काअथ-सा पुं० [सं० फायस्थ] 'कायर्य' । उ०—वहुल ब्रह्मण ठीकरा, सतगुरु दिया वताय ।—कबीर (शब्द०)। वहुल काग्रय राजपुत्त कुल बहुत बहुल ।—कीति०, पृ॰ ३२ । विशेष---इसके बरतन और गहने ग्रादि वनते हैं । काअर -वि० [स० कातर दे० 'कार'। उ० --- पुइट्ठे यौ॰—कॅसभरा=कसे का गहना बनाने और बेचनेवाला ।। का सा—सा पुं० [फा० कासा] १ 'भीख माँगने का ठीकरा या | जीना तीन फायर काज 1-कोति०, पृ० २० । । | खप्पर। २ प्यालो । काइG-सज्ञा स्त्री० [सं० काय] दे० 'काया'। उ०—सुप्त निर्वास्ति का सागर--सज्ञा पुं० [हिं० फाँसी+फा० गर (प्रत्य॰)] कसे का। | काई क कर यो । रहुत बहुरि कहा घी परच द ग्र० | काम करनेवाला । काँसार--संज्ञा पुं० [सं० कास्यकार] कसे का बरतन बनानेवाला । काइ - क्रि० वि० [सं० फ इति या किमिति, हिं०] 'क्य' । उ०— कसेर। दादू मझि लूव मैला, तोडे वीयान काई ड्रे • ७ि, का सी -सुज्ञा स्त्री० [सं० काश] धान के पौधे का एक रोग । क्रि० प्र०—लगना। काइथ —सा पुं० [सं० फायस्थ) दे० 'कायथ' । ३०बुल्लि का सी- संज्ञा स्त्री० [सं० कास्य ] कसा ।। सुजान करेय दिवानह । काइय सुव लायक बुधवानहू --पः का सी-सज्ञा स्त्री० [सं० फनिष्ठा या कनीयसी] सबसे छोटी स्त्री । रास, पु० २० । | कनिष्ठा ।। काइम -वि० [अ० कायम] दे॰ 'कायम' । उ०—(क) दिखाई को सुला–सज्ञा पुं० [हिं० काँसी] कोसे का चौकोर टुकडा जिसमें दीदार मौज वदे को काइम करो मिहाल ।-दादू०, पृ० ५६७ । * चारो ओर गोल गोल खड्ढे या गड्ढे बने होते हैं। केसुला ।। (ख) मरदूद तुझे मरना सही। फाइम अकल करके कहीं । विशेष—इसपर सुनार चाँदी सोने आदि के पार रखकर गोल --संत तुसी०, पृ० ४१ ।। करते हैं और कठा, घुडी श्रादि बनाते हैं। काइर –वि० [सं० कातर, प्रा० फायर] दे० 'कायर' । उ०— का)—प्रत्य० [सं० के, जैसे-वासुदेवक, स्थानिक अयवा सं० कृते, इस अपमं भी सुधाइन वीर । कृपे काइर वीर रप्यो प्रा० कैर, केरक, अप० ग्रिप० कर, भोज० क, कर' अदि सुधीर ।-पृ० ०, ६। १५२। । अथवा सै० कक्षे या कक्ष, प्रा० कच्छ, कवख, अप० फछु, फह काइया'- वि० [हिं० फांइय] दे० 'काइया"। आदि] सेवघे या षष्ठी का चिह्न, जैसे,—राम का घोड। काई-सज्ञा सी० [सं० कावार] १ जल या सीड में होने वाली एक उसका घर । प्रकार की महोन चीन या सूक्ष्म वनस्पतिजन । विशेष--इस प्रत्यय का प्रयोग दो शब्दो के बीच अधिकारी विशेप-काई भिन्न भिन्न प्रकारो और भिन्न भिन्न गो को होती अधिकृत (जैसे,—राम की पुस्तक),अधार आधेय (जैसे,--देख है । चट्टान या मिट्टी पर जो काई जमती है, वह महीन सुत का रस, घर की कोठरी), अगगी (जैसे,--हाथ की उगलो), के रूप मे और गहरे या हलके रग की होती है। पानी के कार्य कारण (जैसे,—मिट्टी का घडा), कतृ कर्म (जैसे, ऊपर जो काई फैलती है, वह हल्के रग की होती है और विहारी की सतसई) आदि अनेक भावों को प्रकट करने के उसमे गोल गोल बारीक पत्तियां होती हैं तया फल भी लगते हैं। लिये होता है । इसके अतिरिक्त सादृश्य (जैसे,—कमल के एक काई लवी जठा के रूप में होती है, जिसे सैवार कहते हैं । समान), योग्यता (जैसे, यह भी किसी से कहने की बात। क्रि० प्र०-जमना !-- लगना । है ?', समस्तता (जैसे,—गाँव के गाँव बह गए) आदि मुहा०--काई छुड़ाना=(१) मैल दूर करना । (२) दुःख दिखाने के लिये भी इसका व्यवहार होता है । तद्धित प्रत्यय दारिद्रय दूर करना । फाई सा फट जाना = तितर बितर हो ‘वाला' के अर्थ में भी पष्ठी विभक्ति अाती है, जैसे, वह नहीं जाना । छैट जाना । जैसे,—-बादलो का, भीड का इत्यादि । आने का । पष्ठी विभक्ति का प्रयोग द्वितीया (कर्म) और २ एक प्रकार का हरा मुर्चा जो तावे, पीतल इत्यादि के बरतनो तृतीया (करण) के स्थान पर भी कही कही होता है, जैसे, पर जम जाता है । ३. मल । मैले । उ०--जब दर्पन लागी रोटी का खाना, बदूक की लड़ाई। विभक्तियुक्त शब्द के साथ फाई । तव दरस कहाँ ते पाई ।—(शब्द॰) ।