पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३६७

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कांड़ी ਟਿr ६६३ =

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१२ नाक में पहनने को एक ग्राभूपण । कील । लौंग । १३. पजे क्रि० प्र०----गाड़ना ।—लगाना -ठोंकना जडना । के आकार का धातु का बना हुआ एक बार जिनचे अग्रज २ वह छोटी तराजु जिमकी डी पर काटा लगा हो । ऐसी लोग खाना खाते हैं। १४ लूकही का एक ढाँचा जिममे किसान तराजू मुनार लुहार अादि रखते हैं । ३ झुकी हुई छोटी कील । घाम भूसा उठाते हैं । वैशाखी । अखानी । १५ सूञा । मूजा । अँकु । ४ साप पकड़ने की एक लेडी जिसके सिरे पर १६. घडी की नूई । १६. गणित में गुणन के फल के लोहे का अँकुडा लगा रहता है । ५. वेडी । शुद्धाशुद्ध की जाँच की एक क्रिया जिसमे एक दूसरे को महा०—कांटी खाना= कैद काटना । जैन काटना । कैद हुन । काटती हुई दो लकर बनाई जाती हैं। | (जुअरिया की वन)। विशेष—गुण्य के अका को जोड़कर 8 में भाग देते हैं अवदा एक ३. वह ई जो घुनने के बाद विनोना के साथ रह जाती है । ७ एक अक लेकर जोडते और उसमें से ९ घटाते जाते हैं। फिर लड़को का खेल जिसमें वे डोरे में कड़ बाघकर नदाते जो बचती है, उने काटनेवाली लकीरों के एक सिरे पर रखते हैं लगर।। हैं। फिर इसी प्रकार गुणक के अको को लेकर करते हैं, मुहा०—–काँटी लड़ानी=लगर लड़ाना । जो फल होता है, उसे लकीर के दूसरे सिरे पर रखते हैं, काठा-सा पुं० [स० कण्ठ] १ गला । उ०----वाधा कठ पर जरि फिर इन दोनों आमने सामने के सिरों के अंको को गुणते काठा। विरह क जरा जाई कहें ना ।—जायसी प्र० (गुप्त), हैं और इसी प्रकार के से भाग देकर शेप को दूसरी लकीर के पृ० २७० । २ वह लाल नीली रेखा जो तोते के गले के एक सिरे पर रखते हैं। अब यदि गुणन फत्र के अक्रो को किनारे मडनाकार निकलती है। उ०-- हीरामन ह तेहिके लेकर यही क्रिया करने से दूसरी नकोर के दूसरे मिरे पर परेवा । काठ फूट करत तेहि सेवा ।—जायसी (शब्द०)। रखने के लिये वहीं अक आ नाय, तो गुणनफल ठीक समझना ३ किनारा । तट । उ०—(क) भाई विभीपन जाइ मिल्यो चाहिए। जैसे,— प्रभु ३ परे सुनि सायर की हैं। तुलसी (शब्द॰) । (ख) २८४४१२= ३४०८ परीक्ष्य । दरिया का का। --(लश०), ४ पाश्र्व । बगल । काठा—संज्ञा पुं॰ [स० काप्ठ] जुलाहों का लकडी का एक बालिश्त २+६+४=१४:६= शेष लवा पतला छ । ------६ ५ लकीर के एक सिरे पर । विशेष—इसमे जुलाहे बाना बुनने के लिये रेशम लपेटते हैं । यदि १+२=३ (९ का भाग नहीं लगता) दूमरे | ताना वेदिले का होता है तो काठे ही ही बुनते भी हैं। सिरे पर ।। का ठी सज्ञा स्त्री० [हिं० काठो] दे० 'काठी'। ५४३= १५६ शेप ६, दुसरी लकीर के कोडना -क्रि० स० [सं० कण्डन (</कड़ि= दमा, नृसी एक सिरे पर । अलग करना)] १. रौंदना ! कुचलना। २. घान को कूट कर ३+४+६=१५-६, ६ दूसरे सिरे पर। चावल और भुनी अलग करना । कूटना । ३०-उदधि अपार उतरतहू ने लागी वार केसरी तो अडड ऐसो डा डिगो । १८ वह क्रिया जो किसी गणित की शुद्धि की परीक्षा के लिये वाटिका उजारि अक्ष रक्ष कनि मारि भट मा भारी विरे की जाय । १९ वह कुन्ती जिसमें दोनों पक्ष मिलकर न लडे, के चाउर चे का डिगो ! तुलसी ग्रे ०, पृ० १३८ । ३. लात बल्कि प्रतिद्वद्विता के भाव से लडे । २०, दरी की विनावट गाना ! नृत्र पटना 1 मारना । में उसके बेल बुटे का एक भेद जिसमे नोक निकली होती है। काइली- सज्ञा ली० [सं० काण्ड लोनी । कुलफा । २१. एक प्रकार की आतशबाजी । २२. झाड या फानूस टाँगने । या लटकने की उसी की तरह बर्ड कटिया । २३ मछली का इा'ची पु० [सं० फणक] १ पेडो का एक रोग जिसमें उनकी लकी में कीड़े पढ जाते हैं । ३ लकड़ी का कीड़ा। ३. दाते को हड्डी । का कीड़ा । का टा}-- सज्ञा पुं० [३० प्ठ, या उपकण्ठ हि० कांठा ] जमुना के किनारे की वह निकम्भी भूमि जिसमें कुछ उपजता नहीं। काडा--सज्ञा पुं० [नं० फाग] काना । का दावोस--- पुं० [हिं० काँदा + चाँत] एक प्रकार का कंटोला काडी--संज्ञा स्त्री० [५० काण्डनी प्रयया हि० फाँडा १ ओखल वस । मगरयास । नीलवन । कटबाँसी । का वह गड्ढr जिनमें धान यदि डालकर मूसल में कूटते हैं। विपि-- यह मध्य प्रदेश, पूर्वी बंगाल अोर प्राचाम को छोड़कर २ भूमि में गड़ा हुप्रा लकडो या पत्यर का टुकड़ा जिसमें धान माय चैप मारे भारत में जगनी रूप में पाया जाता है। अौर उगाया भी जाता है। तवायर प्रायः इन्नो की गधे से कटने के लिये गड्ढा बना रहता है। ३ हाच का एक निकलता है । रोग नि सने उसके पैर के तनावे में गहू घाव हो जाता है। का टी-सी स्त्री०[हिं० फाँटी फी अपा०]१ छोटा छोटा। कील । र उमको चलने फिरने में वडा कष्ट होता है । घाव में छोटे ३०-३रिया कोटी लोहे की, पारस पर सोय--दरिया छोठे कोई भी देते हैं । चा, पृ० ३३। काडी-सा श्री० [सं० काण्ड] १. लक का डंडा जिससे भारी जो वो ढके दवे, ऊपर चढ़ावे तया और प्रकार से हटाते हैं।