पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३६५

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गिनी ६१ काजी काँगनी--संज्ञा स्त्री० [हिं० कैंगनी] दे० 'कॅगनी' ।। उरग काँचली, कमल, हिम, सिकना, 'भस्म, कपास --के शव कागर--संज्ञा पुं० [फा० कगूरह] ३० कँगूरा' । उ०—जैसी (शब्द॰) । २ कंचुकी । चोली। उ०---रतन जडित की विधि कांगरेऊ कोट पर जैसी विधि देपियत बुदबुदाने काँचली औ कसी के चूवउ परउ हो सुमड़ -वीरासो, नीर में ।-सृदर ग्रे ०, भा॰ २, पृ॰ ६५० । पृ०६६।। झगरू--व्रज्ञा पुं० [अ० कगू] दे० 'कंगारू'। का चा –वि०[सं० कषण या कषण अथवा कुपक्व, प्रा० कुपच्च काँगालq--सच्चा स्त्री॰ [हिं० कागारोल] दे॰ 'कागारौल' उ०--- कुपञ्च, कच्च, कच्चा] [ी० कांची] १. कक्चा । अपक्व । २ आया है कालू का दौर घरो घर काँगरौिल, पौर पौर ठौर ठौर अदृढ । दुर्बल ! अस्विर ! पाप वेलि जागी है ।--पोद्दार अभि० ग्र ०,१० ४३३।। महा-काँचा मन= जो शुद्धता और भक्ति मे ढढ़ न हो उ०कागुनी संज्ञा वी• [हिं० कॅगनी] दे० 'कॅगनी'। उ०—निपजे | जप माला, छापा तिलक सरे न एक काम । मन काँचे नाचे | छेत्र कांगुनी धान । तिनहि निरखि हरखे जु किसान --नद० वृथा सांचे राँचे राम ।—विहारी (शब्द॰) मन काँचा ग्र २, पृ॰ २६ । होना = जी छोटी होनी । उत्साह और दृढ़ता न रहना । १०काग्रेस-संवा ब्रो० अ० काँग्र स] दे०काँग्रेस' । । समय सुभाय नारि कृर साँचा । मगल महँ भय मन अति का च'- सय ली• [सं० कक्ष, प्रा० कच्छ] १. धोतो का वह छोर कांचा तुलसी (शब्द॰) काँचो मति या वुद्धि= अपरिपक्व | जिसे दोनों जाँघो के बीच से ले जाकर पीछे खोसते हैं। लाँग । बुद्धि । खोटी समझ ! उ०-ठकुराइत गिरिधर जू की साँची । क्रि० प्र०- वाँघना !-खोलनी । हरि चरणारविंद तजि लागत अनत कहूँ तिनकी मति मुहा०—कच बोलना = (१) प्रसग करना । उ०—कामी से कुत्ता काँची । सूरदास 'भगवत भजत जे तिनकी लोक चहू युग खाँची । भला रितु सर खोले काँचे । राम नाम जाना नहीं भावी जाय । —सूर (शब्द॰) । न बाँच-कबीर (शब्द॰) । (२) हिम्मत छोडना । साहस या ची -वि० [हिं० काँचो दे० 'बच्चा' । १०- काया काची काँच छोडना विरोध करने में असमर्थ होना । ३ गुर्देद्रिय के सो, केचन होत ने वार !-दरिया० वानी, पृ० ६ । भीतर का भाग) गुदाचक्र । गुदावतं ।। का चु -सज्ञा औ० [स० कञ्चुके, प्रा० कच, कंचु] ३० 'कचकी'। क्रि० प्र०—निकलना = कांच का वाहर आना । उ०-गलि पइहयो टंकावलि हरि पहिरि, पदारथ काच विशेप--एक रोग जिसमें कमजोरी आदि के कारण पाखाना वड -वी० रासी,१०११३ । फिरते समय का च वाहर निकल आती है । यह रोग प्राय कचुरी —संशा स्त्री० [हिं० काँचरी] दे० 'कोथी' । उ०—जैसे सर्प दस्त की बीमारीवाले को हो जाता है। काँचुरी जानै काया को ऐसे करि माने ।--कवीर सा०, पृ० मुहा०—काँच निकलना=(१) किसी श्रम या चोट के सहने में ६५७ । असमर्थ होना 1 किसी ग्राघात या परिश्रम से बुरी दशा होना। का चू –संज्ञा पुं० [सं० कञ्चुल] केंचुल। जैसे--(क) मारेंगे कोच निकल आवेगी। (ख) इस पत्थर । का चूने--वि० [हिं० कांच जिसे कोच का रोग हो । को उठा तो काँच निकल आवे । काँच निकलना = (१) । का छ–सझा स्त्री॰ [हिं० कांच] दे० 'काँच'। अत्यत चोट या कष्ट पहचाना । वेदम करना । (२) बहुत काछना-- क्रि० स० [हिं० कायना] दे० 'काछन।' अधिक परिश्रम लेना। का छा –स स्त्री० [सं० काङ्क्षा ] अभिलाषा । का च-सज्ञा पुं० [सं० काच] एक मिश्र पदार्थ जो बालू और रेह या | का ज}---सज्ञा पुं० [सं०कार्य, प्रा० कञ्ज, अप०, कज]३०'कार्य' । का जए खारी मिट्टी को आग में गलाने से बनती है और पारदर्शक उ० - वडि साति छोटाहु कोज, कटक लटक परम वाज । होती है। उ०—कांच किरच बदले सेठ लेही। कर हैं डारि कीति० पृ० ६८। परसमणि देहीं ।—तुलसी (शब्द॰) । काजी-सज्ञा स्त्री० [सं० काजि क]एक प्रकार का खट्टा रस जो कई विशेप–इसकी चूडी, बोतल, दर्पण अादि वहुत सी चीजें वनती प्रकार से बनाया जाता है और जिसमें प्रचार ओर बड़े अादि हैं। यह कडा और बहुत कडकीना होता है। इमसे थोडी चोट से भी पड़ते हैं । भी टूट जाता है। इसे बोलचाल में शीशा भी कहते हैं। विशष—यह पाचक होता है और अपच में दिया जाता है। इसके की चरि -सा [हिं० कांचरी] दे० 'कचारी' । उ०- तजौ बनाने की प्रधान रीतिया' ये हैं,--(क) चावल के मह को | देह जिमि कचरि चांपा |--कवीर सा०, पृ० ८५।। मिट्टी के बर्तन में तीन दिन तक राई में मिलाकर का चरी-इवा खो० [सं० कञ्चुलिको, हि० काँचली] ३०'को चली। रखते हैं और उसमें नमक मादि डालते हैं। (ख) राई को ३० जौ लगि पौन चलै जग में सिय जीवित है विनु राम पीसकर पानी में घोलते हैं मौर फिर उसमे नमक, जीरा, सोंठ आदि मिलाकर मिट्टी के बर्तन में रखते हैं । उठने या खट्टा होने संघाती । तौ लगि देह को यो तजु रे जैसे पन्नगी का चरी को के पहले वड़े और अचार उसमें डालते हैं। (ग) दही के पानी तजि जाती --हनुमान (शब्द॰) । में राई नमक मित्राकर रख देते हैं और उठने पर काम में फा चली५)---सुज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुलिका = प्रावरण] १ साँप को लाते हैं । (घ) चीनी और नीबू का रस अथवा सिरका केचुली। उ०-वल, वक, हीरा, केवरा, कौडा करका, कस।, मिलाकर पकाते और किमाम बनाते हैं।