पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३६०

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कहा ६७६ कहीं कहा—वि० क्या । जैसे,—कहा बस्तु । कहाउति–संज्ञा स्त्री॰ देश० दे० 'कहावत' । कहाकही-सुन्नी सी० [हिं० कहना] दे० 'कहासुनी'। कहाणी -सला सी० [ह, कहानी] दे० 'कहानी' । उoपुरा । कहाणी पिन कहहु सामिन सुनो सुहेण ।-कीति०, पृ० १६। | कहना' -सज्ञा पुं० [हिं० कथन, हि० कहुन या कहना] कहाने का ढग । उ०—सीखि लीन्हो मीन मूग खंजन कमल जैन सीखि लीन्हीं जमु औ प्रताप को कहानो है इतिहास पृ० ३८४ । कहाना--क्रि० स० [कहना का प्र० रूप] कहलाना । कहानी--सज्ञा स्त्री० [सं० कथानक, कथानिका, प्रा० कहनी, हि० कहानी] १. कया। किस्सा । माख्यायिका। २ झूठी वात् । गढ़ी बात ! क्रि० प्र०.-कहना !-सुनना ।—सुनाना । २ वृत्तात । ४ किसी घटना या परिस्थिति के आधार पर गद्य में लिखी उपन्यास के तुग की छोटी रचना । मुहा०-कहानी जोड़ना= कहानी बनाना । अखियायिका रचना।। यौ०- राम कहानीः= लदा चौडा वृत्तात । कहार-सज्ञा पुं० [सं० क = जल+हरि या सं० स्कन्धभारक] एक हिंदुओं की जाति जो पानी भरने और डोली उठाने का काम करती है। उ०-लगै सग छत्ती फुटटै पुदिठ पच्छी । कि कंघ कहार कट्टै जोर मच्छी |–१० रा०, ७॥६० । कहा—सझा पुं० [सं० स्कन्धमार] बड़ा टोकरा । बड़ी दौरी । कहाला संज्ञा पुं० [सं० कोहल एक प्रकार का बाजा। उ०-- मजीर मुरज उमग वेण मृदंग सलिल तरग १ वाजत विशाल कहाल त्यो करनाल तालन संग !-रघुराज (शब्द॰) । कहाली -सच्चा औ० [सं० कहल] मिट्टी का एक वर्तन। उ० चपनी ढकन सराव गगरिया कलश कहालो नानी घाट - सुदर ग्र ०, भा० १, पृ० ७३ । कहावत--सच्चा स्त्री० [हिं० yकह से] १ बोलचाल में बहुत आने वाला ऐसा वैधा वाक्प जिसमे कोई अनुभव की बात संक्षेप में और प्राय अलंकृत भाषा में ही कहीं गई हो। कहनुत । लोकोक्ति । मसल । जैसे,—ऊँची दुकान के फीके पकवान । क्रि० प्र०—कहना ।—सुनना ।। २ फहीं हुई बात । उक्ति। उ०—भरत कहावत कही सोहाई ।तुलसी (शब्द॰) । ३ वह सँदेशा या चिट्ठी जो किसी के मर जाने पर उसके घरवाले अपने इष्ट मित्रो या सवधियों को इसलिये भेजते हैं कि वे लोग मृतककर्म में किसी नियत तिथि पर आकर समिलित हो। क्रि० प्र०—ाना - भेजना। कहावना--क्रि० स० [हिं० फहाना] दे॰ 'कहानी'। उ० हमहू निरखि सकें छवि नैसुक, छैल कहावत निज मुख | दोऊ 1-पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० २६४।। कहासुना सझा पुं० [हिं० कहना + सुनना] अनुचित कथन और व्यवहार । भूल चूका । जैसे,हमारा कहा सुना माफ करना। कहासुनी-सच्चा सौ० [हिं० कहना+सुनना] वादविवाद । झगड़ा । तकरार । जैसे,—फल उन दोनो से कुछ कहासुनी हो गईं। कहा-सा पुं० [सं०] महिष । मैसा ।। कहि ---प्रत्य० [हिं०] दे॰ 'को'। उ०—वक समय पातमा वन, मृगया कहि मन किन्न |-हम्मीर रा०, १० ३४। कहिनी--सज्ञा स्त्री० [हिं० कहना कहानी। कहने । वात् । उ०-फरमान भेल कोण चाहि, तिरहुति लेलि जेन्हि साहि, हरे कहिनी कहए प्रान 1-कनि०, १० ५८। । कहियाँ' –प्रत्य० [हिं० कहू'] 'क' । उ०---पुनि विहरन लागे ब्रज महियाँ ? देने लगे सुख अपनहु कहियां - -नंद० प्र०, १० २५५ । कहिया' —क्रि० वि० [सं० कुह] किस दिन । कव। कहिया–सभा पुं० [हिं॰ गहना = पकड़ना] कनईगरों का एक | औजार जिससे राँगा रखकर जोड़ मिनाते हैं। विशेष----यह दस्त लगा हुप्रा लोहे का छड होता है जिसकी एक नोक कौवे की चोंच की तरह झुकाई हुई होती है। इसी नोक को गरम करके उससे बरतनो पर गिर रखकर रजते हैं। कहिलाना -क्रि० अ० [हिं० कहलाना] दे॰ 'कहलाना' । कही--क्रि० वि० [हिं० कहीं किसी अनिश्चित स्यान में । ऐसे स्थान में जिसका ठीक ठिकाना न हो। जैसे,--वे घर में नहीं। हैं, कहीं बाहर गए हैं। मुहा०—कहीं और दूसरी जगह । अन्यत्र । जैसे,----कहीं और मौगो । कहीं कहीं =(१) किसी किसी स्थान पर। कुछ जगहो में । जैसे—उस प्रदेश में कहीं कही पहाडे भी हैं। (२) बहुत कम स्थानों में । जैसे--मोती समुद्र में सर्व जगह नही, कही कहीं मिलता है। कहीं का=न जाने कहाँ का। ऐसा जो पहले देखने सुनने में न आया हो। बड़ा भारी । जैसे,—उल्लू कही का। कहीं का न रहना या होना= दो पक्षों में से किसी पक्ष के योग्य न रहूना । दो भिन्न भिन्न मनोरयो में से किसी एक का भी पूरा न होना। किसी काम का न रहना । जैसे,—वे कमी नौकरी करते, कभी रोजगार की धुन में रहते, अत में कहीं के न हुए। उ०—बूढ़ी अादमी हैं, इस वुढ़ौती में कलंक का टीका लगे तो कही का न रहू - फिसाना, भा० ३, १० ११६ । कहीं ने कहीं = किसी स्थान पर अवश्य । जैसे,—इसी पुस्तक में ढूढ़ो, कही न कही वह शब्द मिल जायगा । कहीं का कहीं= (१) एक ओर से दूसरी ओर दूर। जैसे,—वह जंगल में 'भटककर कही के कहीं जा निकले । (२) (प्रश्ने रूप में मौर निषेधार्थक) नही। कभी नही । जैसे,—(क) कही भोस से भी प्यास बुझती है ? (ख) कहीं बड्या को भी पुत्र होता है ? (अशिका और इच्छासूचक) (३) कदाचिन् । यदि । अगर । जैसे,—(क) कही वह आ गया तो बड़ी मुश्किल होगी। (ख) ईस अवसर पर कही वे आ जाते तो वडा नद होता । कहीं "न= (अशिका और पाशा सूचित करने के लिये) ऐसा न हो कि । जैसे,—(क) देखना, कही तुम भी न वहीं