पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३५९

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कहवाना ६७५ कहा अठारह फुट तक ऊँचा होता है, पर फल तोड़ने के सुभीठे के। कही का नहीं । जो नहीं है । जैसे,—(क) वे कहाँ के हमारे लिये इस अाठ नौ फुट से अधिक वडने नहीं देते और इसकी दोस्त हैं ? (ख) वे कहाँ के वड़े सत्यवादी हैं ? कहां का कहाँ = फुनगी कुतर लेते हैं। इसकी पत्तियाँ दो दो आमने सामने होती वहुत दूर । जैसे,—हम लोग चलते चलते कहाँ के कहीं जा हैं। पैड का तना सीधा होता है जिउपर हलके भूरे रंग की छाल निकले । कहाँ का " : कहाँ छ। *•••=(१) वही दूर होती है। फरवरी मार्च में पत्तियों की जड़ों में गुच्छे के गुच्छे दूर के। जैसे,—यह नदी नावे सयोग है, नहीं तो कहां के फेद लेंवे फूल लगते हैं, जिनमें पांच पड़ियां होती हैं । फूल हम ग्रौर कहाँ के तुम । (२) यह सत्र दूर है । यह सब की गघ अच्छी होती है। फूलों के झड़ जाने पर मकोय के नहीं हो सकता । जैसे,—जब वे यहां आ जाते हैं तब फिर कहाँ वावर फल गुच्छो में लगते हैं। फल पाने पर लाल रग के का पढना और कहाँ का लिखना । इस अर्थ में 'कहाँ का हो जाते हैं। गूदे के भीतर पतली झिल्ली में लिपटे हुए वीज के अागे मिलते जुलते अर्थवाले जोड के धब्द अाते हैं, जैसेहोते हैं । पकने पर फल हिलाकर ये गिरा लिए जाते हैं । फिर आना जाना, पढ़ना लिखना, नाच रग)। कहां का कहाँ उन्हें मलकर वीज अलग किए जाते हैं। फिर चीजों को भूनते पहुच जानी = ऐसी उन्नत दशा को प्राप्त कर लेना जिसकी हैं और उनके छिलके अलग करते हैं। इन्ही वीजों को पीसकर कल्पना तुक न हो । उ०—ौर तू सिडिने हैं। अगर राहे गरम पानी में दूध आदि मिलाकर पीते हैं । अरव आदि देशो मालूम होती तो अव तक क्या जानें कहां की कहीं पहुंच गई। में इसके पीने की वहुत चाल है। यूरोप में भी चीय के पहुँचने के होती है--सैर०, १० २७ । कहाँ की वार=यह बात ठीक पूर्व इसकी प्रथा थी। हिंदुस्तान में इसका वीज पहने पहल नही है । यह बात कही नही हो सकती । जैसे,—ग्रजो कहीं दो ढाई सौ वपं हुए, मैसूर में वावा बूढन लाए थे। वे मक्का की वात, बह चदा यो ही कहा करते हैं। कहां तक =(१) गए थे, वहीं से सात दाने छिपाकर ले आए थे। अव इसकी कितनी दूर वृक। जैसे,—वह कहाँ तक गया होगा । (२) खेती हिंदुस्तान में कई जगह होती है। इसके लिये गरम देश कितने परिमाण तक । कितनी संख्या तक। कितनी मात्रा की वैलुई दोमट भूमि अच्छी होती है तया सब्जी, हड्डी, खली वा । जैसे,—(क) हम आज देखेंगे कि तुम कहाँ तक खा आदि की बाद उपकारी होती है । इसके बीज को पहले अलग सकते हो। (ख) उन्हें हम कहाँ तक समझायँगे ? । (ग) वोठे हैं। फिर एक साल के बाद इसे चार से प्राठ फुट की यह घौडा कहाँ तक पढेगा ?। (३) कितनी देर तक । दूरी पर पक्तियो में वैठाते हैं। तीसरे वर्ष इसकी फुनगी कपट कितने काल पर्यंत । जैसे,—हम कहाँ तक उनका असर दी जाती है जिससे इसकी वाढ बंद हो जाती है। इसके लिये देखें ? कहाँ : कहाँ=इनमें बड़ा अतर है। उ०—कहाँ अधिक वृष्टि तथा वायु हानिकारक होती है । वहुत तेज धूप राजा भौज, कहाँ गंगा तेली ! (दो वस्तुओं का वड'भारी में इलें वाँसो की टट्टियों से छा देते हैं या इसे पहले ही से बड़े अतर दिखाने के लिये इस वाक्य का प्रयोग होता है) । बड़े पेड़ के नीचे लगाते हैं। सुमात्रा में इसकी पत्तियों को चाय कहाँ से = क्यो। गायें । नाहक । जैसे,—कहां से हमने यह की तरह उबालकर पीते हैं। मुख्खा का कहवा बहुत अच्छा काम अपने ऊपर लिया ! (जवे लोग किसी बात से घबरा माना जाता है। भारत में कहवे की खेती नीलगिरि पर होती जाते या तग हो जाते हैं, तव उसके विपय में ऐसा कहते है। भारत के सिवाय लका, ब्राजील, मध्य अमेरिका आदि में हैं) । (२) कभी नहीं। कदापि नही । नाही । जैसे, भी इसकी खेती होती है। कहवा पीने में कुछ उत्तेजक होता है । (क) अब उनके दर्शन कहाँ । (ख) अब उस वूद से भेंट ' ३ कहवे का पेई । ३. कहवा के बीजों से बना हुआ शरबत । कहाँ ? (यह अर्थ काकू अलकार से सिद्ध होता है)। । यौ –कहवरदान । कहाँ-सद्यां पुं० [अनु॰] तुरत के उत्पन्न बच्चे के । रोने का शब्द । कवीना- क्रि० स० [हिं० फहनी का प्रे० रूप] दे॰ 'कहलाना' । उ०—'कहाँ कहाँ हुरि रोवन लाग्यो ।—विश्राम (शब्द॰) । उ०-- जैसे उग्र ऋन कहवाया मिट गयो ल्प भेप न कहाँहु -क्रि० वि० [हिं० कहा+हैं (प्रत्य०)] कहीं भी। उ० माया [-केशव अमी०, पृ० ६ । ए सखि अपुरुव रोति कहाँहु न पेखि अइसनि पिरोति ।कववि--सज्ञा पुं० [हिं० फहना]संदेशो 1 कयन । उ०--कहखावे विद्यापति, पृ० ३९४ । कियो नृप अप्प चीम् । तुम तो न हम िचकिरह काम - | कहा"f-सज्ञा पुं० [स० कयन, प्रा० कहन, हि० कहना] कथन । , पृ० रा०, ५।२७ । कहना। बात । अाज्ञा । उपदेश । उ०—-जासु प्रभाव जान कहवंया- वि० [हिं० फह + (ना) वैया (प्रत्य)] कहनेवाला (पुरुष)। कहाँ-क्रिः वि० [वैदिक मै० फुह या कुत्र, या कुत्य स्थान मारीचा। तासु कहा नहि मानेउ नीचा -तुलसी(शब्द॰) । अवध में एक प्रश्नवाचक शब्द । किस जगहू ? किस स्थान कहा- क्रि० वि० [सं० कपम्] कैसे। किस प्रकार के । उ०— पर ? जैसे,—तुम कहाँ गए थे ? कहा लडे ते दृग करे परे लाल बेहाल कहु मुरली कहु पत मुहा०——–कहाँ का=(१) न जाने कहाँ का ? ऐसा जो पहले और पेट कहू मुकुट वनमाल -विहारी (शब्द०)। | सारी कहा --सर्व० [सं० फ] क्या । (ज) । ---(क) नारद जैसे,—कहाँ के मुख से आज पाला पड़ा। (ख) उल्लू कहाँ कर में फहा विगारा। भवन मौर जिन वसत उजार । का ! ( इस अर्य में प्रश्न का भाव नहीं रह जाता ) । (२) तुलसी (शब्द०) । (ख) कहा करो लालच भरे चपङ नैन चलि जति ।-विहारी (शब्द॰) ।