पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३५८

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कहनि ६७४ कहनि५f- सच्चा नी० [हिं० फहन] दे० 'कहून' । उ०—कहै इत्यादि वस्तुएँ बनाते हैं। इसकी रनिश भी बनती है। तर तो जग तर, कहनि रहनि पिनु छार पर इसे अप आदि पर रनर यदि घाम या तिनके के पाने मा०, पृ० ३१ ।। ये तो उसे यहू चुपक की नर पकः नेता हैं । कहनी----सज्ञा स्त्री० [सं० *फयनिका, कथानक प्रा० अनिमा २ एक वडा सदविहार [६ जिन द रन या धूप । फहनी] १. कथा । फहानी । २ कयन । वात् ।। कहलाता है। कहनत-सज्ञा स्त्री० [हिं० फहना+ऊत (प्रत्य॰)] कहावत । विशेप- पे३ पपगी पाट को पहाड़ियों में वहृढे होता है। मसल । अहाना ।। इमे सफेद दमिर if ऊदते हैं। पेट से पोंछकर राल निकालने कहर--सज्ञा पुं० [सं० फहर] विपत्ति। अाफत । सट । गजर ।। हैं। तागन के तेल में यह अच्छी तरह घुल जाती है और उ०--जया कहूर है यारों जिसे आ जाय बुढ़ापा । प्राधिक वारनिया के काम में आता है। इन मात्रा भी बनती है। को तो अल्लाह ने दिखायें बुढ़ापा ---नजीर (शब्द०) ।। उत्तरी भारत में स्त्रियों में तेल में पकाकर टिकी चपाने मुहा०-फहर का = (१) कटिन । असह्य। मात्रा से अधिक है। या गोद उनानी हैं। अक वनाने में भी है। कहीं इन अत्यंत । जैसे,—केहर की गरमी, कहूर का पानी। (२) उपयोग होता है । भयानक । डरावना। (३) बहुत वा । महान् । कर फरना = | कहल -सा पुं० [देश॰] 1 उमन । भौम । व्या कुत करनेवाती (१) अत्याचार करना । जुल्म करना (२) अद्भुत कम । गरमी जो हुवा है उद इन पर होती है । २. ताप कष्ट । करना । ऐसा काम वरना जिससे लोगो को विस्मय हो । उ०—राज मानद का दहन पदध भयो कड़ि गो कृपेच अनोखा काम वरना । (३) अस भ्व को सभी करना । कोटि कन्भरी कहून को ।-रघुराज (शब्द॰) । अमानुष कृत्य करना । कहर टूटना = अफत ग्राना । देवी | कलना--कि० अ० [हिं० हत] कपक्षानी । प्रजाता। विपत्ति पड़ना । कहर ढाना: किमो के लिये स कट पैदा दहलना । उ॰--(क) कवि मग्न भने घुघरी अनके अपने करना । सकटग्रस्त वनाना। कहर मचना= भयंकर उत्पात वस काटन का हि । अझ (राजा वीरपत्र) । (शब्द॰) । मुचना । भयकर उपद्रव होना । (a) न कहलि परत पुरहूर हलि नजब्त फनफार छ । कहर-वि० [अ० पाहूहार अगम । अपार । घोर । भयकर । उ० गुमान (शब्द०) । (ग) कडूनि रोप १९ कमठ दिग्गज दस चिबुक सरूप समुद्र में मन जान्यो तिल नाव । तरन गयो दर मलि । धक धमकि नहि नकि जानि हस" कहा उ तह रूप कहर दरियाव ।—मुरारक (३०)। कहर नजर-~-सज्ञा स्त्री० [अ० को हर + नजर]कोप दृष्टि । उ०--फहर दति ।-रसकुसुमार (ब्द०)। नजर के छ|दि के मिहर नजर कू कीजै ।--प्रज० प्र०, कहलवाना--क्रि० स० [सं० फहना की प्रे० प] १ दुनरे के द्वारा कहने की क्रिया कराना। २. सदेसा भेजना। धृ० ४६ । कुहरना—क्रि० अ० [हिं० फराहना अथवा अनुध्व०] कराहना ।। कहलाना'--क्रि० स० [कहना का प्रे० रूप] १ दूसरे के द्वारा पीडा शाह शाहू से करना । ३० -श्रीपति सुकवि यो वियोगी । कहने को क्रिया कराना । २ सँदेमा भजन । कहरन लागे, मदन को शागि लहरन लागी तन में --श्रीपति । सयोः क्रि—भज्ञना । देना। (शब्द॰) । ३ उच्चारण कराना ! ४ नामजद होना। पुकारा जाना । कहरवा - सच्चा पुं० [हिं० प्रहार] १ पाँच मात्रामो की एक ताल । जैसे,—यह क्या कहलाती हैं जो क तुमने मुझे विशेप-इसमें चार गुण और दो अर्ध मात्राएँ होती हैं। इसमें | दिखलाया था। केवल चार अाघात होते हैं। इसके बोल यो हैं-धागे तेटे | कहलाना—क्रि० म० [हिं० फहलना]३० पहनना'। उन्हु तीने नाग दिन, धागे ते नाग दिन । धा । एकत वसत महि मयूर मग बाप । जगत तपोवन सो किय दीघ दाध निदाघ ---विहार २०, दो० १८६ । २ दादर! गीत जो कहरवा ताल पर गाया जाता है । विशेष—यह गीत प्राय नाच के अंत में पाया जाता है। कहलपु–स पुं० [दश०] एक प्रकार का नुय ।- रा, ३. वह नाच जो कहरवा ताल पर होता है । ४ कहा। १५॥१२ । का नाच । कहवत्त --क्रि० स० [हिं० फहना] वतनीत ! वार्तालाप । कही--वि० [हिं० फहर+ई (प्रत्य॰)] कहर करनेवाला । अाफत कथन । ढानेवाला । उ ०--लक से वक महागढ़ दुर्ग में ढाहिवे ढाहिवे को कहा - क्रि० वि० [हिं० फहाँ] दे० 'कहा। उ० –और विडे कहरी हैं ।—तुलसी (शब्द॰) । काम साइत जनि सोधे कोई। एक भरोसा नहि कुसल इव फुहरुवा–सञ्चा में० [फा० कहरुबा] १. वरमा की खानी से निकला से होई । —पटू०, भा० १, पृ० ३४।। हुमा एक प्रकार का गोद जैसा पदार्थ । कहवा-सज्ञा पुं० [अ० फहवा] १ पेड़ का बीज । विशेष ---यह रग में पीला होता है और झोपध में काम माता विशेष- यह पेड अर, मिस्र, हवस अादि देशों में होता है। है। चीन देश में इसको पिघलाकर माला की गुरियाँ, मुनाल । | इसकी खेती भी उन देशो में की जाती है। पेड़ सोलह से