पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३५६

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कस्तुरी मल्लिक कहकहा दीवार छद अादि के लिये बहुत उपकारी मानी गई है, पर विशे कर कस्सर--सूज्ञा स्त्री० [हिं० फसनी, अ० कासर] नगर खींचना या द्रव्यो को सुगधित करने के काम में आती है । | उठाना ।—(लश०)। मुहा०---कस्तूरी हो जाना = किसी वस्तु का बहुत महंगा हो जाना क्रि० प्र०—करना ।-(लश०) । या कम मिलना । कस्सा-- सज्ञा पुं० [म० कषाय] १ वयूल फी छाल जिससे चमड़ा यो०- कस्तूरी मृग । उ०—-पागल हुई मैं अपनी ही मृदुगध से सिझाते हैं । २ वह मद्य जो चबूल की छाल से बनता कस्तुरी मुग जैसी ।—लद्र, पृ० ६६ ।। है । ठ ।। कस्तूरी मल्लिका--सज्ञा स्त्री० [सं०]१ एक प्रकार की चमेली । १. | कस्सा चना-सच्चा पुं० [हिं०] दे० 'केस' ।। । कस्तूरी मृग की नाभि (को॰) । कस्साव--संज्ञा पुं० [अ० कस्साब कसाई । उ०--कही मुर्गा है। कस्तूरी मृग-सज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का हिरन जिसकी नाभि से विस्मिल हाथ कस्साब !-—कबीर ग्र, पृ० ४७ ।। | कस्तूरी निकलती है ।। कस्साबखाना–सच्चा पुं० [अ० कस्साव+फा० खानहू] कसाईखाना । विशेष—यह ढाई फुट ऊँचा होता है। इसका रग काला होता यौ०-वकरसव= चिक । बूचड । है जिसके बीच बीच में लाल और पीली चित्तियाँ होती हैं । कस्सो-सज्ञा स्त्री० [सं० कर्षण = खरोचना, खोदन] मालियों का यह बहा दरपोक और निर्जनप्रिय होता है। इसकी टीमें बढ़त छोटा फावडा । । पतली और सीधी होती हैं जिससे कभी कभी घुटने का जोह कस्सो-सझा ली [सं० कशा = रस्सी जमीन की एक नाप जो कदम बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता। यह कश्मीर, नेपाल, असाम, | के दरवर होती है। तिब्वत, मध्य एशिया अौर साइवेरिया आदि स्थानो कहें --प्रत्य० [सं० कक्ष, प्रा० कच्छ के लिये । उ०---(क) में मे होता है । सह्याद्रि पर्वत पर भी कस्तूरी मृग कभी पयादेहि पाँव सिधाये । हम कहे रथ गेज वाजि वताए । कभी देखे गए हैं । तिब्बत के मृग की कस्तूरी अच्छी समझो तुलसी (शब्द॰) । (ख) तुम कहें तो न दीन वनवासू । करā जाती है। जो कहहि ससुर गुरु सासू 1--तुलसी (शब्द॰) । (ग) गयो कस्द-संज्ञा पुं० [अ० फस्व] सकल्प । इरादा । विचार । उ०—सब कचहरी को वह गृह कहूँ अहं मुनसी गन !--प्रेमघन॰, अशिको में हुमक मजदा है अविरू की 1 है कस्द गर तुम्हारे मा० १, पृ० १४।। दिल बीच इम्तिहाँ का |--कविता कौ०, भा० ४, | इम्तह का कविता का भी ० ४, विशेष---अवधी बोली में यह द्वितीया और चतुर्थी का चिह्न है। पृ० १३ ।। कह --क्रि० वि० [हिं० कहीं] दे० 'कहाँ' । । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०–कह लगिन कहाँ तक । उ०—कहें लगि सहिय रहिये मन कस्दन-प्रव्य० [अ० कुस्दन] जान बूझकर । निश्चयपूर्वक। मारे । नाथ साथ धनु हाथ हमारे 1---तुलसी (शब्द०)। कस्बी- सच्चा स्त्री० [अ० फस्व +f० ई० (प्रत्य॰)] वेश्या । रडी। कहॅरना५:१-क्रि० प्र० [हिं० फहरना) दे० 'कहरना' ।। उ०--उसे यही डर है कि कारखाना लगने से ताडी शराई केह--संज्ञा स्त्री॰ [फा०] घास । तृण । तिनका । 12-1* का प्रचार बढ़ेगा और गाँव मे कस्वियो आ बसेगी ।-प्रेम० नूर है हर शे में कह से कोह तक प्यारे। इसीसे कहके और गोर्की, पृ० ३३३ ।। हर हर तुमको हिदू न पुकारा है ।-भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ २, कस्मिया--क्रि० वि० [हिं० फसम] कधम खाकर । शपथपूर्वक । पृ० ८५२। कस्म--सूची बौ० [अ० कुसम) दे० 'कसम' । उ०—तुम मानो या न केही --वि० [सं० ] क्या । उ०---द्विज दोपी न विचारिये मानो हुम तो फिदा भई हैं । यह साँच जी में जानो हुम कस्म | कहा पुरुष कह नारि ।---केशव (शब्द०)। खा रही है ।--ब्रज० अ ०, पृ० ४१ । कहकशां-सच्चा पुं० [फा०] अाकाशगगा। कस्यप --सच्चा पु० [सं० कच्छप] दे॰ 'कच्छप' । उ०—महापिष्ठ कहकहा—सचा पुं० [अनु० अ० कहकहा अट्टहास । व्ा । जोर । | के घार धारी धरती । करी नामल कस्यप रूप कत्ती ।—पृ० ' की हँसो । रा०, २॥२०६। क्रि० प्र०-उड़ाना ।----मारना ।—लगाना । कस्यप –सच्चा पुं० [सं० कश्यप] एक जातीय उपाधि । काश्यप यौ9-कहकही वीवार । गोत्र । उ०—मो प्रभुदयाल कस्यप तृनय कहि नरहरि वदी मुहा०—कहल्ली उडना= हुँसी होना । उपहास होना । उ०—| चरन }---अकवरी०, पृ० ५६ ।। भर बरसात के दिन ये हैं। कही फिसल न पडे तो कहा । कृस्यपी--वि० [हिं० कस्यप कश्यप गोत्र का । कुश्यप । उ०—-दुज उड़े, गार लोगों को दिल्ली हाथ भए ।फिसाना,भा० १५ कनौज कुल कस्यपी, रतनाकर सुत धीर ‘भूषण अ ०, पृ० १।। पु० १८ । । कहकहा दीवार--संज्ञा पु० [फा०]१ एक काल्पनिक दीवार 1 उ०-~फुस्सुना —क्रि० स० [हिं० कसना] दे॰ 'कसवा'। उ०--पढ़ दिया पलटू दीवाल कह कहा मत कोउ झाकने जाय ।----पलटू, भा* प्रापस, सेव नरेव कुस्से व उत्तर --१० र ३१११ । १, १० २८ । ९