पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३५४

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कसौदागो ६७० कजा कृमीदागो-व०[के ही रह +फ० गो] कसीद लिखने वाला । यौ० कसूरमद। कसूरवार । बैंकसूर । कसीर–वि० [अ०] अधिक । वहुत । ज्यादा। उ०—-आतिश की कसूरमद-वि० [अ० क सुर+फा० मद] दोष । अपराधी । | एक चिंगारी रुई के अबारे कसीर को खाक कर डा नती हैं। कसूरवार-वि० [अ० कुसूर+हि० वार( प्रत्य॰)] दो। अपरी । –श्रीनिवास ग्र०, पृ० ११७ ।। करौडी--सा ग्नी० [हिं० फसी, ने० फसदि) जपात्र । कसीस--सज्ञा पुं० [सं० फासीस] लोहे का एक प्रकार का विकार व०--तब वैष्णवन कहो, होरो काढिके जन प्रों में ते जो खानों में मिलता है । कीढयो ।--दो सौ बावन॰, भा॰ १, पृ० ७२ । । विशेष—यह दो प्रकार का होता है | एक हुरा जिसे धातु कसेरहट्टा---सज्ञा पुं० [हिं० फमेरा+हाट ३० ‘कमरहट्टा'। कसीस' अथवा हरा या हीरा कसीस कहते हैं, दूसरा पीला कसेरा--सा पुं० [हिं० फाँसा + एरा (प्रत्य०) ][स्त्री॰ कमेरिन जिमे पाशु या 'पुष्प कसीस' कहते हैं। कसैली वस्तु के कासे, फूल ग्रादि के बरतन ढालने और बेचनेवाला । साथ मिलने से कसीस काला रग उत्पन्न करता है अत यो०--फसेरहट्टा पो फसरहट्टा । यह गाई के काम में बहुत आता है ! तेजाव में घुले हुए कसेरु--संज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'कशेरु'। सोने को अलग करने के लिये हरा कसीस बड़े काम की है। कसैका --वश रत्री० [सं०] १० 'कशेरुका' । वैद्यक के अनुसार कसीस शीतल, कसे नीं, ने की हितकारी कसेरू-सा पुं० [सं० फोरू] एक प्रकार के माथे की ब ज तालों तथा विप, कोढ, कृमि और बुजली को दूर करनेवाला है । | और झीलों के किनारे मिलती है। कसीस—संज्ञा स्त्री॰ [ फा कशिश ] दे० 'कशिश' । उ०---भायौ विशेप-यह जड़ गोन गौ3 की तरह होती है चौर इसके काले पैचि कसीस करि वचन लगाया वान ।-सुदर में १, भा० १ छिनके पर काले रोएँ या वा होते हैं । कसैरू खाने में मौत पृ० २४७ । और ठंढा होता है। फागुन में यह तैयार हो जाता और प्रसाई कसीसना —क्रि० अ० [हि कतीस +ना (प्रत्य०)] १ आकर्षित तक मिलता है । सिंगापुर का कल अच्छा होता है। फसेः के करना । खीचना । उ०—बाम हाथ लीघ वाहू जीमणे कसीस पौधे को कही कही गोदला भी कहते हैं। जाह ।- र० रू०, पृ० ७६ । ३ तानना ।। कसया--सज्ञा पुं० [हिं० फसना] १ फक्नेवाला । जकड फर बाँधनेकसूब -सज्ञा पु० [सकुसुम्भ या कुसुम] दे॰'कुसुम' । उ० - वाला । ३०--मृतिराम कहै करदार के कलैया केवे, गाड़र जैसा रग कसूव का तैसा यहु संसार।—सत र०, पृ० १२६ । से भडे जग हमी को प्रसग भी ।—मति० ग्र०, पू• ३६५ । कसू भq-सा पुं० [सं० फुसुम्भ] दे॰'कुसु म । उ०-~-नु वे एक २. परतुनेवाला । जाँचनेवाला । पारखी। पन रहै रग कसे भ प्रमान -पृ० रा०, २५। ७३२। । कसैला--वि० [हिं० कमाव+ऐता (प्रत्य॰)] [स्त्री॰ कसैसी] कसू भी–वि० [सं० कुसुम्भ, हि कसू भ+ई (प्रत्य॰)] कुसुम के कपाय स्वदिवाला । जिसमें कसाव हो । जिसके आने से जीभ रग का अथवा कुसुम के फूलो के रग से रंगा हुमा । उ0 में एक प्रकार को ऐंठन या संकोच मालूम हो । जैसेसोनजुही सी बगमगति अँग जोवन जोति । सुरंग कसे भी अवला, हड वहेडा, सुपारी झादि । कचुकी दुरंग देह दुति होति ।—विहारी (शब्द॰) । विशेष--कसैला छह रसो में से एक है। कली वस्तुप्रो के उवाकसूत - सच्चा पु० [हिं० क (= कु) +सुत बुरा सूत । उलझनदार | लने से प्राय काला रंग निकलता है। सूत। उ०—पुजे नवग्रह देवना पिचर सतो अकूत । सहज कैसे। । कसैलापन--सच्चा पुं० [हिं० कसैला+पन (प्रत्य॰)] सुना होने सुलझिहे होइ रहो सूत कसूत ।- सहजो०, पृ० ४८ । का भाव । कसून-सज्ञा पु० [देश॰]कजी अखि का घोडा। सुलेमानी घोडा । कसली-- सवा स्त्री॰ [हिं० फसला] सुपारी । कसूम सज्ञा पुं० [सं० कुसुम] दे० 'कुसुम' । उ०—रि को कसदरीसमा स्त्री० [हिं० कसदा+ई (प्रत्य॰)] ‘कस जा' । हित ऐसो जैसो रग मजीठ ससार को हित जैसो कसूम दिन उ०----कनेर फसोदिय कंबर कोह। करोदिन कान्ह कइ कहु मोह । हुती को। पोद्दार अभि.०, ० पृ० १६५ । | --q० ० २, ३५५। कसूमर—सच्चा पुं० [स० कुसुम] दे॰ 'कुसुम' ।। कसोरा---सञ्ज्ञा पुं० [हिं० फांसी +मोरा(प्रत्य॰)] १. कटोरा । २ मिट्टी का प्याला । कुसूमी -वि० [हिं० फसूम + ई(प्रत्य॰)] कुसुम रग की। | कसजा–संज्ञा पुं० [सं० फासमदं, प्रा० कासमइ ]एक पौधा जो उ०—पहिरै कसुमी मारी, अंग अंग छवि मारी, गोरी गोरी बरसात में उगता है और वहुत बढ़ने पर आदमी के बराबर बाहुन में मोती के गजरा ।—नद ग्र०, पृ० ३५३ । ऊँचा होता है। कुसूर-सज्ञा पुं० [अ० के सुर] अपराध । दोष खता। उ०--- विशेप-पतियाँ इसकी एक सोके में आमने सामने लगती हैं और (क) मैण लाडे पालड़ा, वोल मोहि कसूर ।-वाँकी० ग्र०, चौडी तया नुकीली होती हैं। जाड़े के दिनों में इसमें चकवडे भा॰ २, पृ० ६६ । (ख) मैंने छोटी वडी भेडे का स्याल नहीं की तरह के फूल लगते हैं। छह सात अगुल लत्री, चिपटी किया, मेरा कुछ कसूर नहीं - भारतेंदु ग्र , भा० १, फलियाँ लगती हैं। फलियों के भीतर वीज भरे रहते हैं, जो पृ० ६६६ । एक भोर कुछ नुकीले होते हैं। लाल कतजा सदाबहार होता क्रि० प्र०—करना ।—होना । है और इसकी पत्तियाँ गहरे हरे रंग की कुछ लाई लिए। वि।