पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३५

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सुर्जेयरियों हुआ तो क्या हुआ जो रे वडा मति नाहि। जैसे फूल उजाड़ उजाला-सच्चा पुं० [सं० उज्ज्वल ] [ स्त्री० उजालौ ] १. प्रकाश । का मिथ्या ही झरि जाहि ।—जायसी (शब्द॰) । चाँदनी । रोशनी । जैसे, (क) उजाले में अग्रो तुम्हारा मुहै उजाड़–वि० १ ध्वस्त । उच्छिन्न । गिर पड़ा। तो देखें । (ख) उजाले से अंधेरे में आने पर योडी देर तक कुछ

  • क्रि० प्र०—करना ।—होना। उ०--अबहू दृष्टि मयी करु नाथ ।

नही सुझाई पडता । क्रि० प्र०---करना ।—होना । निठुर घर अाब, मदिर उजाड होत है नव के ग्राई बसावे । —जायसी ( शब्द०)। २ वह पुरुप जिमसे गौरव हो । अपने कुल और जाति में श्रेष्ठ । | २ जो अबाद न हो । निर्जन । जैसे—उस उजाड गाँव में क्या । जैसे-वह लड़का अपने घर का उजाला है। था जो मिलता। मुहा०—उजाला होना=(१) दिन निकलना । प्रकाश होना। उजाड़ना-क्रि० स० [हिं० उजडना] १ ध्वस्त करना । तितर । (२) सर्वनाश होना । उजाले का तारा = शुक्र ग्रह। वितर करना । गिराना पड़ाना । घेदना । २ उखाडना । उजाला--वि० [ स्त्री० उजाली ] प्रकाशमान । अँधेरा का उलटा । उच्छिन्न करना। नष्ट करना । खोद फेंकना । ३ नष्ट करना। यौ०--उजाली रात= चादनी रात । उजाला पाख, उजाले पाख= शुक्ल पक्ष । सुदी । बिगाड़ना । जैसे—-मैंने तेरा क्या विगाडा है जो तू मेरे पीछे उजालिका--सज्ञा स्त्री० [सं० उज्जालिका ] उजियाली रात । पड़ा है। उजाड-वि० [हिं० उजाड़ना ] उजाउनेवाला । नष्ट करनेवाला । , चाँदनी रात। उ०--मानहु सिसुमार चक उडुगन सह लसत उजायर -वि० [ स० युद्ध+स्थिर या प्रोजस्+स्थिर ] वीर । गगन । उदित मुदित पसरित दस दिसि उजालिका ---- बहादुर । उ०----एक ऊजायर कलहि एहुवा साथी सहू मारतेंदु ग्र २, मा० २, पृ॰ २६६ । आखाढ-सिंध --वेलि०, ६० ७४ । उजाली-सच्चा स्त्री० [हिं० उजाला ] चाँदनी । चद्रिका । उ०-उस उज़ान–क्रि० वि० [ स ० उद्= ऊपर+यान= जाना ] धारा प्रसन्न मुख में मोर खिली उजाली के चदमी में दोनों में नेत्र से उलटी मोर । चढाव की ओर ! भाटा का उल्टा । जैसे- धारियो की प्रीति समान रस लेनेवाली हुई ।-लक्ष्मणसिह नाव इस समय उजान जा रही है। (शब्द०)। उज़ार -वि० सद्म पुं० [हिं०] दे॰ 'उजाड'। उu--फलानो उजास-सा मुं० स उद्युत प्रा० उज्जो, अथवा मं० उदभास परगनो उजार पन्य है। दो सौ बावन०, मा०१, पृ० २०६। प्रा० उज्यास (= देदीप्यमान)] १ चमक । प्रकाश । उजाला। उजारना' -क्रि० स० [हिं० ] दे॰ 'उजाड़ना' । उ०--(क) उ--पिंजर प्रेम प्रकासिया अंतर मया उजास, सुख करि नाथ एक अावा कपि मारी । जेहि अशोक वाटिका उजारी । सूती महल मे बानी फूटी वास । कबीर ( शब्द० ) । ( ख ) --मानस, ५५१८ ( ख ) जारि डारों लकहि उजारि डारौं । पत्रा ही तिथि पाइए वा घर के चहुँ पास, नित प्रति पूनोई उपवन फारि वा वन को तो मैं हनुमत हौं । रहै आनन मोप उजास ।--विहारी र०, दो० ७३ ।। पद्माकर ( शब्द०)। क्रि० प्र०-- पाना = झलक मिलना । उ०—जलरंध्र मग अंगनु उजारना--क्रि० स० [हिं० उजालना ] जलाना ( दीपक ) । को कछु उजास सौ पाइ । पीठि दिऐ जग सो रह्यौ दठि प्रकाश करना । झरोखे लाइ !--विहारी र०, दो० २६३ ।—रहना ---होना । उजारा -सच्ची पुं० [हिं० उजाला ] उजाली ! प्रकाश । । उजासना--क्रि० स० [सं० उद्भासन, प्रा० उज्ज्ञासणे, हि० उजात उजारा--- वि० प्रकाशमान । कातिमान । उ०—( क ) जौं न होत से नान० ] १ प्रकाशित करना । बालना। जलनि । प्रज्व- असे पुरुप उजार । सुझि न परत १५ अंधियारा ।।-जायसी लित करना। २ उज्वल या स्वच्छ करना। ग्न, पृ० ४। (ख) हरि के गर्भवाम् जननी को वदन उजारयो उजासी--संज्ञा स्त्री० [हिं० उजास +ई ( प्रत्य॰)] उजाला लाग्यो हो । मानहु तरद चंद्रमा प्रगटयो सोच तिमिर तनु प्रकाश । यति। छटा । उ०--हामी त उजास जा 6 जगत भाग्यो हो ।-सूर (शब्द॰) । हुलासी हैं ।-भारतेंदु ग्र०, मा० १, २२१ । उजारी'Gf-सी जी० [हिं०] दे॰ 'उजाली'। इजिप्ररि+--वि० स्त्री० [सं० उज्ज्वल] उजली । गोरी । काति मत । उजारी+- सच्चा स्त्री० कटी हुई फसल का थोड़ा सा अन्न जो किसी उ०—–चाँद जैस धेन जिरि अही, भी पिउ स गहन असे | देवता के लिये अलग निकाल दिया जाता है । अगॐ। गेही ।—जायसी ग्र० ( गुप्त ), पृ० १७३। उजारी (+---वि० [हिं० ] ३० ‘उजाड़'। उ०—मोर वसत मो उजिर+---वि० [सं० उज्ज्वल ] उन ना । स । उ०-. पदमिनि वारी । जेहि विनु भयउ वसत उजारी। जायसी छालहि माड़ा और धी पाई। उनियर देव पप बोई ।- ग्र ९, १० ८७।। जायसी (शब्द॰) । उजालना-क्रि० स० [ स० उज्ज्वलन, प्रा० उज्ज़लए } १ गहना उजवरिया -सवा मी० [सं० उज्ज्वल ] चांदनी । प्रकाश । और हथियार आदि साफ करन । मैले निकालना । चमकाना। उजेना । उ०-- क ) ले पौडी प्रांगन ही मुत को छिटक रही निवारना। २. प्रकाशित करना । उ०—उन्होंने हिंगोट के ग्राछी उनियरिया। सूर स्याम कछु कहत कईत ही बस तेल से उजाली हुई, भीतर पवित्र मृगचर्म के बिछौनेवाली करि तीन्हे अाइ निदरिया–सुर०, १०२५६। (द) गगन कुटी उसको रहने के लिये दी ।-लक्ष्मणसिंह ( शब्द०)। ३ भवन म मगन भइ3 में, बिनु दीपक उपरिष से ।-जन लिना । जलाना । जैसे, दिया उजालना । श, भा॰ २, पृ० १०६।।