पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३४६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कविता' ८६२ कवीठ कविता'-सज्ञा स्त्री० सं०] मनोविकारो पर प्रभाव डालनेवाला कविप्रसिद्धि-सज्ञा स्त्री० [सं०] काव्य में प्रचलित रूढ़ियाँ जो सत्य न रमणीय पद्यमय वर्णन | काव्य । होने पर भी सत्य की भांति ही काव्य मे वरिंगत हुई हैं। क्रि० प्र०करना -जोड़ना !-पढ़ना ।-रचना। कविसमय । कविरूढ़ि जैसे, केले से कपूर निकलना या चकवा कविता-सञ्ज्ञा पुं०, वि० [सं० कवित] दे० 'कवि'। उ०—(क) चकई का दिन मे साथ साथ रहना और रात में मलग हो वरने नय की उपमा कविता। सु जरे मनु कुदन मुत्तियता । - जाना, मादि। पृ० रा०, २१ । ६६ । (ख) दिन फेर पिता वर दे सविता कविर्मनीषी सखा पुं० [स] श्रेष्ठ कवि । महान् कवि । कर दे कविता कवि शकर को। कविता को०, भा०२, चिंतक कवि ।-अपरा, पृ० २००१ पृ०६३। कविराज–सञ्ज्ञा पु० [स०]१ श्रेष्ठ कवि। उ०--इतमें हम महाराज कविताई-सा स्त्री० [सं० कविता] दे० 'कविता'। हैं उतं पाप कविराज :- अक्वरी०, पृ० १२६ । २ भाट । कविताना-क्रि० स० [स० कविता से नाम०] पद्यवद्ध करना। ३. वगाली वैद्यो की उपाधि। . र छद की जोडजाड़ करना। कविरामायण--सचा पुं० [सं०] वाल्मीकि (को०] । कविताव्रत-वि० [सं०] काव्यरचना का व्रत लेनेवाला। उ० हुए कविराय --सज्ञा पुं० [सं० कवि+हिं० राय] दे. 'कविराज'। कृती कवितावत राजकवि समूह।-अनामिका, पृ० १४२। उ०--प्रकवर ने इन्हे कविराय की उपाधि दी यो।- कवित्त--सचा पुं० [सं० कवित्व] १ कविता। काव्य। उ०-निज अकवरी०, पृ० ८४। कवित्त केहि लाग न नीका ।—तुलसी (शब्द०)।२ दडक के - कविलास--सञ्ज्ञा पुं० [सं० फैलास, प्रा० इलास, कविलास १ • अंतर्गत ३१ अक्षरों का एक वृत्त । कैलास । २. स्वर्ग । उ०—सात सहस हस्ती सिंहली। जनु विशेष---इसमे प्रत्येक चरण में ८, , ८, ७ के विराम कविलास इरावत चली। जायसी (शब्द०)। से ३१ अक्षर होते हैं। केवल अत् मे गुरु होना चाहिए। कविलासिका-सहा स्त्री० [2] एक प्रकार की वीणा। शेष वर्गों के लिये लघु गुरु का कोई नियम नहीं है। कविलीg--वि० हिं० कावुली]. 'कावुली'। उ०—बत्तीस - जहाँ तक हो, सम वर्ण के शब्दो का प्रयोग करें तो पाठ सहस कविली करूर। जम जोर जोध नजरियर।- मधुर होता है। यदि विपम् वर्ण' के शब्द माएं तो दो पृ० रा०, १३॥ १३ ॥ एक साथ हो। इसे मनहरन मोर घनाक्षरी भी कहते हैं। कविवाणी--सज्ञा स्त्री० [सं०] कवि की वाणी । कविता । काव्य, जैसे,—कूलन में, केलि मे, कछारन,मे, कुजन में, क्यारिन में उ.--कविवाणी के प्रसाद से हम ससार से सुख दुःख, मानद कलिन कलीन किलकत है। कहै पद्माकर परागन मे, पौनह क्लेश का शुद्ध स्वार्थमुक्त रूप में अनुभव करते हैं।--रस०, मे, पातन में, पिक में, पलासन पगत है। द्वारे मे, दिसान में पृ०२४। दुनी में, देस देसन में, देखो दीप दापन में, दीपत दिगत है। कविशेखर--सपा पुं० [सं० १संगीत मे ताल के ६० मुख्य भेदा में वीथिन मे, ब्रज मे, नवेलिन मे, वैलिन मे, बनन में, वागन मे, से एक । २. उत्तम कवियो को प्रदत्त एक उपाधि (को०)। बगरयो वसत है !--पद्माकर नं०,,पृ० १६१ । कविशेखर-वि० श्रेष्ठ कवि [को०] । ३. छप्पय छद का एक नाम । कविसमय-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] काव्य में प्रचलित रूढियो । कविप्रसिद्धि । कवित्व-सज्ञा पुं० [सं०] १ काव्य-रचना-शक्ति। २ काव्य का गुण , कविसम्राट-सहा पै० सं०१. कवियो की श्रेष्ठतासूचक एक यौ०-कवित्वशक्ति। उपाधि । २. महान कवि । श्रेष्ठ कवि ।.. । कविनाथ–सचा पुं० [सं०] कविश्रेष्ठ । कवियो का स्वामी। श्रेष्ठ । कविसम्राट-वि० कवियो' में श्रेष्ठ । अच्छे कवियो मे अच्छा या' कवि । उ०-प्रक्रमातिशय उक्ति सो कहि भूपन कविनाथ।- उत्तम । उ०-आप उच्चकोटि के कविसम्राट् भी हैं और भूपण ग्र०पू० ८२॥ प्रशस्त काव्याचार्य भी।-रस क०, प०३1 कविपरपरा-सशा त्री० [सं० कविपरम्परा] कवियो की परपरा । पूरा कविसमूह या सप्रदाय । उ०—जिसका विधान कविपरपरा कवीद्र-सञ्ज्ञा पुं० [स० कवीन्द्र श्रेष्ठ कवि । बड़ा कवि। " ' ' वरावर करती चली आ रही है उसके प्रति उपेक्षा कविय-समय पुं० [सं०] 'कविक' [को०] । . प्रकट करने का जो नया फैशन टाल्सटाय के समय से चला कवो'-वि० [अ० कवी] बलवान् । शक्तिशाली। मजबूत । दृढ़ । है वह एकदेशीय है।-रस०, पृ० ६४ ॥ उ०-दलालत यो सही कुरान सू है । कवी इसलाम के ईमान कविपुगव-सज्ञा पुं० [सं० कविपुङ्गव] श्रेष्ठ कवि । बडा कवि। सूहै। दक्खिनी०, पृ० १६३१ , उ०--इस प्रत्यक्षवादिता के लिये साप्रतिक राजनीति सवलित कवी --सचा पुं० [स० कवि] दे० 'कवि'। उ०-किवलो पिच्छू कविपुगवो और साहित्यिको से अधिक प्रशसा के भाजन अवश्य हैं।-पोद्दार अभि० ०. पू. ८६! कहें लहू लघु अक लहावें। गिणं वद बस गुरू,कवी लघु चार कवियुग-सज्ञा पुं० [सं०] १ भृगु के एक पुत्र का नाम 1 २. कहावें।--रघु० रू०, पु० ५। शुक्राचार्य। कवीठ-सबा पुं० [सं० कवोष्ट, प्रा० कविठ्ठ] कैया। कैथ ।