पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३४३

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कल्पवर्ष करमाप कल्पवर्प--सच्ची पु० [सं०] उग्रसेन के भाई जो देवक के पुत्र थे । अश्वमेधादि यज्ञो तक की विधि का विधान है, श्रौतसूत्र कल्पवास--संज्ञा पु० [१०] [वि॰ कल्पवासी, वि० स्त्री० कल्पवासिनी] कहलाते हैं, तथा जिनमे गृहस्थी के पंचमहायज्ञादि कृत्यो माघ के महीने में महीना भर गगा तट पर सुयम के साथ और गर्भाधान,दि सग्कारो की विधि लिखी है, वै गृह्यसूत्र रहना । कहलाते हैं। कल्पविटप-सज्ञा पुं० [सं०] कल्पवृक्ष । कल्पहिसा-सुज्ञा स्त्री॰ [सं०] जैन शास्त्रों के अनुसार व हिंसा जो कल्पविद् - वि० [सं०] कल्पसूत्रों का ज्ञाता [को०)। पकाने, पीसने अादि मे होती है । हिंदू इसे 'पचसूना' कहते हैं । कल्पवृक्ष- सज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणेनुसार देवलोक का एक वृक्ष कल्पांत-सज्ञा स्त्री॰ [स० कल्पान्न) प्रलय । जो समुद्र मंथने के समय समुद्र से निकला हुआ और १४ कल्पातीत'- सज्ञा पु[सं०] जैनियो के शास्त्रों के अनुसार देवतायो रत्नों में माना जाता है । यह इंद्र को दिया गया था । | का एक गण ।। विशेप-हिंदुओं का विश्वास है कि इससे जिस वस्तु की प्रार्थना विशेष--यह वैमानिक देवताओं के अंतर्गत है । इसके देवता दो की जाय, वही यह देता है। इसका नाश काल्पति तक नहीं प्रकार के हैं और इनकी संख्या १४ हैं-नौ ग्रं वेयक और होता। इसी प्रकार का एक पेड मुसलमानों के स्वर्ग में भी | पांच अनुत्तर। हैं जिसे वे तू कहते हैं । कल्पातीत–वि० जिसका त कल्प में भी न हो । नित्य । पय०–केल्पद्रम । कल्पतरु । सरतरु। कल्पलता। देवतस् । कृल्पाभी- सज्ञा पुं० [सं० में पारम्भिन्] प्रशंसा कराने के लालच | २ एक वक्ष जो संसार में सव पेडो से ऊँचा, घेरदार र से म क नेवाला । वाहवाही के लिये कुछ करनेवाला । दीर्घजीवी होता है। कल्पिक-- वि० [म०] योग्य । उपयुक्त को । विशेष–अफ्रीका के सेनीगाल [क प्रदेश में इसका एक पेड कल्पिन-- वि० [सं०] १ जिमकी कल्पना की गई हो । २ मन माना । है जिसके विषय में विद्वानो का अनुमान है कि वह ५२००। मनगढन । फ । वर्ष का है। यह पेड ४० मे लेकर ७० फुट तक ऊंचा होता यौ० कपोलकल्पित । है। सावन भादो मे यह पत्तो और फूलो से लदा हुआ। दिखाई देता है। फूल प्राय सफेद रंग के होते हैं और चार कल्पनोपमा--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] एक प्रकार का उपमालकार जिसमे छह इंच तक चौड़े होते है। इनसे पके सुतरो की महक आती कवि उपमेय के लिये कोई एक स्वाभाविक उपयुक्त उप मान ने है । फलो के भख जाने पर कद्द, के मकार के फल लगते हैं, मिलने से मनम न। उपमान कल्पित कर लेता है। इसे जो एक फुट लवे होते हैं। फल पकने पर खटमिट्ठे होते हैं। अमृतोपमा' भी कड़ते हैं। जैसे,— (क) ककनहार विविध जिन्हें वंदर बहूत खाते हैं। मिन्न देश के लोग फल का रस मूपण विधि रचे निज कर मन लाई ।—गजमणि माल बीच निकालकर और उसमें शक्कर मिलाकर पीते हैं। इसका गूदा भ्राजते कहि जात ने पदिक निकाई । जनु उड गन मडल व रिद पेचिश में देते हैं, इसके बीज दवा के काम में आते हैं। कही पर नवग्रह रची अथाई —तुलसी (शब्द०)। इसमें कहीं इसकी पत्तियों को बुकनी भोजन में मिलाकर खाते हैं। गजमुक्ता के हार के बीच में पदिक की शोभा के हेतु उपयुक्त इसकी लकही बहुत मजबूत नहीं होती, इसी से इसमें बड़े वडे उपमान न पाकर कवि कल्पना करता है कि मानो मेघौ के खोइरे पट जाते हैं। इसकी छाल के रेशे की रस्सी बनती हैं पर वैठकर नवग्रह ने प्रथाई रची है । (ख) राधे मुख नै और एक प्रकार का कपडा भी बुना जाता है । यह वृक्ष भारत छुटि अलक लगी पयोधर अाय । शशि मड न ते मेरु सिर लटकी वर्ष में मद्रास, बबई और मध्यप्रदेश में बहुत मिलता है । भोगिनी भाय (शब्द॰) । बरसात में बीज बोने से यह लगता है और बहुत जल्दी वळता कल्व–सच्चा पु० [अ० फत्व] १ हृदय । दिल । उ०- खोल कर दे है । इसे गोरख इमल भी कहते हैं। कबी सी मुल्के दिल मारत किया। क्या हिसारे कल्ब दिलवर कल्पशाखी-सृज्ञा पुं० [सं० कल्पशाखिन्] कल्पवृक्ष। उ०—जपति ने तले वदी लिया ।---- कविता को०, 'भा० ४ १ ० ४७ । २. संग्राम जय राम सदेशहर कौशल कुशल कल्याण भाखी। राम मन । ३ मध्यभाग, विशपत सेना का मध्य भाग । ४. १७व विरहाकै सतप्त भरतादि नर नारि शीतल करण कल्पशाखी - नक्षत्र । ५ खोटी चौदी या सोना । तुलसी (शब्द॰) । कलमप'-सज्ञा पुं० [सं०] १ पाप । अघ। २ मैन । मले। ३ पव। केल्पसाल-सा पु० [सं०] कल्पवृक्ष । उ०—-प्राक पल्पसाल को मेवाद । ४ एक नरक का नाम । ५ कलाई का निचला निसाक कहै क् हा माल मोहि ले पिनाकपानि सीस श्री वढाई 'माग (को॰) । हैं -दीन० ग्र०, पृ० १३० । कमप-वि० १ पपी 1 २ गई। 1 मलिन । ३ दुष्ट । बदमाश (को०]। कल्पसूत्र--संज्ञा पुं॰ [सं०] वह सूर्यग्र थे जिसमें यज्ञादि कर्मों या गृह्य । कल्माप-वि० [सं०] १ चित वर ।। चिरावण' । २ काला । कर्मों का विधान लिखा हो । यौ०–कलनापपाद । कल्माप कठ। विशेप-ऐसे ग्न थ वेदो की प्रत्येक शाखा के लिये पृयक पयक व माप- सज्ञा पुं० १ चितव व रग । २. काला रगे । ३ रासस । ऋपियों के वनाए ६ए हैं और बिपय भेद से इनके दो भेद हैं ४ . नि का एक रूप । ५ एक प्रकार का सुगंधित भौत और गृह्य | वे सूत्रगथ जिनमे दर्शपौण मास से लेकर चावल [को०] ।