पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३४१

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फलेवार ६५५ उ०—-छाने मगन प्यारे लाल कीजिए कलेवा }----सुर कलौंजी----सज्ञा पुं० [न० कालज्ञिानी] एक पौधा जो दक्षिण भारत और नेपाल को तराई में होता है । मैंगरेला । क्रि० प्र०—करना । होना । विशेप--इसकी खेती नदियों के किनारे होती है । दोमट या मुहा०—-वलेवा करना= निगन्न जाना। खा जाना । उ०— बलुई जमीन में इसे अगहन पूस मे बोते हैं। इसका पौधा डेढ़ जिन भूपन जग जीति वधि जम अपनी वह बनायो । तेक दो हाथ ऊँचा होता है । फुन्न भई जाने पर कलियाँ लगती हैं। कान्न कलेवी कीन्हो तू गिनती कव अायो ?--नुलसी जो ढाई तीन अगुल लवी होती हैं और जिनमें काले काले (शब्द॰) । दाने भरे रहते हैं । दानो से एक तेज गंध आती है और इसी २. वह भोजन जो यात्री घर से चलते समय बाँध लेते हैं। से वे मसाले के काम में आते हैं । इन बी से तैन भी पायेय । संवत्र। ३ विवाह के अनतर एक रीति जिनमें वर निकाला जाता है, जी दवा के काम में आता है। तेल के अपने सखा के साथ ससुराल में भोजन करने जाता है । विचार से यह दो प्रकार का होता है। एक का तेल काला खिचडी । वासी । मौर सुगधित होता है, दूसरे का तेल साफ रेडी के तेल का सा । विशेप---यह रीति प्राय विवाह के दूसरे दिन होती है। होता है। यह सुगघित, वातघ्न तथा पेट के लिये उपकारी कृलेवार --सूज्ञा पुं० [स० कलेवर] कलेवर । शरीर। उ०— और पाचक होता है । वगाल में इसी को काज जीरा भी कलेवार पेत ढरं दुअचेत । उभे सुर झुनझे उर्भ साहि हेत कहते हैं। पृ० रा०, ६।१५३ ।। ३. एक प्रकार की तरकारी । मरगल ।। कलेस)---सज्ञा पुं० [सं० वलेश दे० 'क्लेश' । उ०—कत हम धेरज विशेप--इसके बनाने की विवि यह है कि करले, पखेर, भिडी, बघि सजनि तृनि दिनु सत्र कलेस ।-विद्यापति, पृ० ५०८। वैगन आदि का पेटा चारकर उनम धनिया, मिर्च, अादि ममाले कलेसुर--सा पु० [हिं० कलसिरा] ३० 'कलसिरा'। खटाई नमक के साथ भरते हैं, और उमे तेल या घों में तल कलैया-सच्ची जी० [स० कला सिर नीचे और पैर ऊपर कर लेते हैं । | उलट जाने की क्रिया ( कलावाजी । कलौंस'--वि० [हिं० काला + स (प्रत्य॰)] कालापन लिए । क्रि० प्र०—खाना-मारना। सियाही मायल।। कलौंसर- संज्ञा स्त्री॰ १. कालापन | म्याही । कालिख । २ कलक। कलाई वौडा- सज्ञा पुं० [इश०] एक प्रकार का बड़ा साँप या कलौथी - सज्ञा पुं० [सं० कुलत्य] मैं गरी चादल । अजगर जो वगाल में होता है। कलौन(पु)-सा पुं० [हिं० फलोल) दे० 'कलोल' । उ०----इनमे करे कलोपनता-संज्ञा स्त्री० [सं०] मध्यम ग्राम की सात मुर्छनाग्रो मे से कलील सदाई करे भोग जीवन भर माई ।—कबीर सा०, १० दूसरी मूर्छन । ८४० । कलोर--सज्ञा स्त्री॰ [स० केल्या या हि० कलोल = कलोन करनेवाली। कल्क'--सज्ञा पुं० [सं०] १ चूणं । बुकनी । २ पीठी । ३ गूदा [४. | बिना वरदाई गाय] वह जवान गाय जो वरदाई या व्याई दम । पाखड । ५ शठता । ६ मुल । मैल । कोट । ७. कान | न हो। की मैल । खुट । ८ विष्ठा । ६ पाप । १० गोल या भिगोई केलोर- सम्रा पु० [हि० कलोल] किलोल ! चहचहाना । चिडियो हुई प्रोपधियों को बारीक पीसकर बनाई हुई चटनी । अवलेह । का स्वर । उ०—परिमल वास उडे चहुँ ओरा, वर्दै विधि पक्षी | ११ बहेडा । १२ तुरुक नाम का गधद्रव्य । १३ शत्रुता(को॰) । करें कलोर 1---वीर सा०, पृ० ४६३ ।। कल्क--वि० १ पापी । ३ दुष्ट [ये 1 कलौल-- ज्ञा पुं० [सं० कलोल] प्रमोद प्रमोद । क्रीडा । के लि । कल्कफल-सज्ञा पु० [सं०] अनार। उ०--(क) विचित्र बिहँग अलि जुलज़ ज्यौं सुखमा सर करत कल्कि --संज्ञा पुं० [सं०] विष्ण, के दसवें अवतार का नाम जो संभल कलौल --तुलसी (शब्द॰) । (ख) मिलि नाचत करत कलोन मुरादाबाद में एक कुमारी कन्या के गर्भ से होगा । छिरकत हद दही। मानो बर्पत भादो मास नदी धून दुघ कल्किपुराण-सज्ञा पुं० [सं०]एक उपवुराण जिसमें कल्कि अवतार की वही ।—सूर (शब्द०)। | कथा का वर्णन है कि] ।। क्रि० प्र०—करना ।—मचाना । कल्की—वि० [सं० कल्किन्] १ गदा । २. सदोष । ३ दुष्ट ०] । कलोलना -क्रि० अ० [सं० कलोल, हि० फलोल] क्रीडा करना । कल्की-सृज्ञा पुं० दे० 'कल्कि' (को॰] । प्रमोद प्रमोद करना ।। कल्प'--सा पुं० [३०] १ विधान । विधि । कृत्य । कलोलह---सय पुं० [हिं० कलोल] दे॰ 'कलोल' ! ३०-सा घर यौ -प्रयम कल्प=पहला कृत्य । काल कलोल खेले विनु पगु जग में डोले }--सृ० दरिया, २. वेद के प्रधान छ अगों में से एक । एक प्रकार के वैदिक पृ० ११२ । सूत्र ग्र थे। कलौंछ'--सी पुं० [हिं० काला+मंछि (प्रत्य॰)] दे॰ 'कलौंस' । विशेष—इसमें यज्ञादि करने का विधान है। श्रीठ, गुह्य मावि कों -दि० ३१ 'कुस' । सुत्रश्य इदों के सतर्गव हैं ।