पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३३७

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६५.१ कुलुप कलिल का धन ‘मणता सरावा पिवता, कलीमा कहना कलाम जीग्रता । लिल'--वि० [सं०] १. मिला जुला । अोतप्रोत । मिश्रित । २. - कति०, पृ० ४० । नहुन । घना । दुर्गम । उ०—मोह लिल व्यापित मति कलरा--सुज्ञा पुं॰ [न० फली + (प्रत्य॰)] कोइियो र छुहारो | भो ।—तुलसी (शब्द॰) । आदि को पिरोकर बनाई हुई एक प्रकार की माला। कलिला पु० [२] १. समूह ! टेर। राशि । विशेप---ग्राय विवाह आदि के समय कन्या अथवा दीवाली कलिवल्लभ–ज्ञा पुं० [सं०] एक चालुक्य राजा का नाम जिसे अादि अवसरों पर या ही बच्चों को उपहार में दी जाती है। ध्रुव भी कहते थे । | कलील- मुइपु० [अ०] १ थोडा । कन। २ छोटा ! कलिक्ज्य–वि० [सं०] जिनको करना कलयुग में निषिद्ध हैं। • विशेय-धर्मशास्त्रों में उम् कर्म को कलिवज्यं कहते हैं जिसका कलोसा--सा पुं० [यू० इकलीसिया मसीही लोगों का मदिर। गिरजा। उ०—अगर मस्जिद में अजान होती है तो कलीसा झरना शुन्य युग में विहित था, पर कलियुग में निषिद्ध या में घी क्यों न वजे ?--मान०, मा० १, पृ० १९८ । ।। वृजित है, जैसे अश्वमेध, गोमध, देवरादि से नियोग, संन्यास, कलीताई'—वि० [हिं० फलीसा] १• कलीसा से सवधित । २. मुसि का पिंडदान । मसीहीं । कलिविक्रम- सच्चा घु० [सं०] दक्षिण देश का एक चालुक्यव शो राजा जि त्रिभवन मल्ल वा चतुर्थ विक्रमादित्य भी कहते हैं। कलोसाई-सज्ञा पुं० ईसा मसीह के मत को माननेवाला। ईसाई । मसीही। | इसके बाप का नाम अहववन्लि या । इसने सुबत् ९९१ से कुलोसिया--संज्ञा पुं० [यू० इकलोसिया १ इसाइयों या यहूदियो - १०४६ तक राज्य किया था। की घर्मम डली । कलिवृक्ष--इझा पु० [सं०] वडा [ो । कलु-संज्ञा पुं॰ [सं० कलियुग, कलऊ] दे० 'कलियुग’ । उ०-- कलिहारी-सा खी० [मु.] कलियारी । कृरियारी ! इह ससार असार वार किती कलु मही --पृ० रा०, कलादा-संज्ञा पुं० [स० कलग] वरबूज ! हिनवाना । ७५१५०! कली-उच्च स्त्री० [३०] १. विना खिला फूल । मुंहवैधा फून । बोंडी । कलिका । उ०—कली लगावै कपट की, नाम घरावै कलुभावीर--सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'कलुवावीर' । कलुक्के--संज्ञा पुं० [स०] एक प्रकार का वाजा । झांझ (को०)। म रिप० वानी, पृ० ३५।। क्रि० प्र०-अाना 1-खिलना –निकलना ।—फटना !-- कलुक्का --तशी पु० [३०] १. सराय । २ उल्का [को०] । कलुख -संज्ञा पुं० [सं० कलुप] ३० ‘कलुप' ।। लगना । उ०—काम कलुख कुजर कदन समय जो सब भाँति, गदा मुहा०—दिल की कली खिलना=अनुदित होना । चित्त चिह्न येहि हेतु हरि घरत चरन जुत झाति --'भारतेंदु ग्र० | प्रसन्न होना ।। २. ऐसी कन्या जिमका पुप ने समागम न हुप्रा हो । मा० २, पृ० १३ ।। मुहा०—कच्ची कलौ =अप्राप्यौवना । कलुखोई -सवा सौ० [हि कलुख + अाई (प्रत्य॰)] दे॰ ३, चिडियों का नया निकना हुआ पर। ४. वह तिकोना कटा । पर। ४. वह तिकोना कटा 'कन्नुपाई' ।। हुआ कपड़ा जो कुते, अंगरखे और पायजामे ग्रादि में लगाया कर या कलुखी---वि० [हिं० फलुख+ई (प्रत्य०)] दोषीं। काफी । जाता है। ५. इकै का वह भाग जिसमें गई गडा लगाया वेदनाद । उ०—वैरी यह बंधु, देव, दीनबंधु जानि हम वधन में जाता है और जिसमें पानी रहता है। जैसे, नारियल की बारे तुम न्यारे कलुखी 'मये ।—देव (शब्द०)। कली । ६. वैष्णवों के विलुक का एक भेद जो फूल की कली कृलुवा@---वि०, वंश पुं० [हिं० फाला काना कुत्ता । काले रग का की तरह होता है । कुरा। उ०—कलुवा कवरा मोतिया झपरा बुचवा मोहि कला-संज्ञा स्त्री० [अ० कुलई पत्यर या सोप अदि का फुका हुआ डेरवावे ---मलक०, पृ० २५ । टूकडा जिसने चूना बनाया जाता है। जैसे-कैली को चुना। विशेप-कुत्ता के इस प्रकार के विरोपणमूलक नाम प्रचलित हैं। कली(५--सज्ञा पुं० [सं० कालिय] दे० कालिय' ।। कलुवावर–स पुं० [हिं० काला+बोर टोना टामर या सावरी 3०-भुपे काल व्याज । सिम व पाल । फली वामगं । | मंत्रों का एक देवता । किय नित्त रगं -- रा०, २।५० ।। विशेप-इसकी दुहाई मत्रों में दी जानी हैं। कैनीमा-संवा स्त्री० [सं० कलिका, प्रा० कलिग्रा] दे० 'कनी' ।। कनुप-सज्ञा पुं॰ [सं॰] [वि० कनुपित, कलुषी] १, मलिनता । उ०-विगसि रहिया वर ज्यों कलिअ ।—प्राणु०, पृ० ३६।। मैल । २ पाप ! दोप। ३. काक । कलीट–वि० [हिं० झाला+ईट (प्रत्य॰)] काला कलूटा । उ० यौ०–कलुपचेता । कतुपमति । फलुयात्मा। मृरी के हैं। मिने मुरारी। ये कुलटा लट वे दोज। इक ४ को ५ मैना। | वे एप नहि घाटे कोॐ --सूर (शब्द॰) । कल मिा(५- संग १० [अ० कलम वाक्य ! वात् । ३०-अव व कृलुप-वि० [५० जी० कलुवा, वि, फतुयी] १. मलिन । मैला ।' गदा । ३ निदित् । ३ दोपी । पापी / . 35