पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३३६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

फलिमल कलिन्द - कलिप्रल -सज्ञा पुं० [सं० कलकल] दे० 'कनकल'। उ०—कुझडप कलिपुर- सी पुं० [H०] १ प ग म म मन की एक कलि अल कियउ, सुणी उ पेख इ बाई । ज्यों को जोडी वीछडी, प्रा न पान का नाम । २ मा म का एक भेद । त्य निसि नीद न झाइ ।- ढोला०, ६० ५८ । | मध्यम माना जाता ।। कलिक--सज्ञा पुं० [सं०] कौंच पक्षी (को०] । कलिप्रद--पु० [१०] शरर की दहन (०) । कलकर्म-सच्चों पु०सं०] युद्ध | संग्राम । उ०----करहि अयि कलिझमें फलिपि '-- 49 [सं० मा । दुई । धर्म जो शनि को है ।--- विश्राम (शब्द॰) । कलिप्रिय- पु० स०] १ नारद मुनि । २ वदर । ३ वटै कलिका– संज्ञा स्त्री० [सं०] १ विना खिला फूल । कल । २ वीणा कई पे?।। का मूल । ३ प्राचीन काल का एक बाज जिसपर चमडा कलिमल -सज्ञा दु० [सं०] पाप । अनुग। 3०-~गत १५ वैः मढ़ा जाता था । २ एक सस्कृत छद का भेद । ५ क जी । | गग छाडे । कपट कर हि भी है ।-नानने, ११२ । मैंगरेल ।। ६ करो । मुहूर्त । ७ प्रश। भागे । ८ सस्कृत यौ०---इन्निनल सरि = नाग नदी। की पदरचना का एक भेद जिसमें ताल निपत हो । फलियल -- .:[० [६० फसिल] गए थे। सेशजन्य कलिकान--वि० [देश॰] परेशान । हैरान । (वोल०J। चार । 'उ०--णि दो। पाठ ११६ मा ६, मायव भिड़। कलिकापूर्व- सा पुं०म०! वह वस्नु जिसका कारण अशत अज्ञात ति । तिणि दि जाए प्राण३ हिया झउिहि । पूर्व हो (जसे जन्म, ग्राग्रेयादि यज) और जिसका फन (जैसे - ० ० २८३ । स्वर्ग आदि) निनाव अपूर्व या अज्ञानपुर्व हो । कलिया---सा पुं० [अ०] या ३ग्रा मास । ६ में भूनकर रसेदार कलिकार, कलि कार ण सज्ञा पुं० [सं०] १ नारद ! २ पति प काम म म । उ-पि। नानपुरवि पट भरि 11 | कर्ज [को०] । के !-पटू०, भा० २, १० : 1 कलिकारक-वि० [न०] १ झगड़ा करनेवाला । २ भगा लाने- कलियाना--वि० अ० [हिं० फलि]१. कल ना । कृतियों से युक्त वाना । होना। तु०-३क जय रण। पर छाई । पके पलान । कलिकारक'–सा पुं० १ पूतिकरज । २ नारद ऋपि । कलिगाई ।---पार[धन, १० ४० । २ चिडि का न प3 कलिकारी- सच्चा सौ० [सं०] कलियाको विप । निकाना । कलिकाल -सज्ञा पुं० [सं०] कलयुग ।। कलियारी-सा पी० [सं० ३सिंह।।। एक दिई पौधा जिनकी कलिकालीन-वि० [सं०] कलि युगी । कलियुग का । उ०— कलि पति पती र नुFit होवो है और जिवी नए में नई कान न मलते दोन जन पावन करने पर म गभीर ।-घनानंद, पडती हैं। पृ० ४४६ । विदाप–इसका फु नारनो रग का अत्यंत सुदर होता है। कलिकालु--मा पुं० [सं० फलिकाल] दे॰ 'कलिका ' । उ०-- फू भेड़ जाने पर मिचें के प्रकार का फ्र मा है, जिसमें राम नाम नर के मरी कनक कसियु कलिकालु ।--मानस१२५ । तीन धारियां होती हैं।प। 'हर के भीतर हा फैि मनिपटे कलिजुग -सज्ञी पुं० [सं० कलियुग] दे॰ 'कलियुग'। उ० --कलित हुए इलाची के दाने के प्रकार '६ वी होते है। इस की नई | जुग से काशी चलि आए । जब इमरे तुम दरसन पाए । या गाँठ में विप होता है। यह कइ, चरपरी, तोपो, न ही कबीर सा०, ए० ८२५ । मोर गर में होता हैत याकफ, वात, गुना, वयामोर, युज, संखु, मुजन र शोथ के लिये उपकारी है। इनमें गर्म पान हो जाता कलित -वि० [सं०]१ विदित । मुयात । उक्त । २ प्राप्त । गृहीत । है। इसके पत्ते, र प्रर फ से तो गध माती है ! ३ सजाया हुआ । सुसज्जिते । शोभित । युवत । रचित उ०--- पर्या०–फलिफारी । लागलि की । दोरना । ग नेपानिन । अनि (क) कुलिश कठोर, तन जोर परे शेर रन, कहना कलित मन जिह्वा । वनिशिसा । लागुली । हो । नक्ता । इयुविका । धारमिक धीर को।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) अलस। विद्युज्वाल। फलहारो। वलित, कोरे काजर कलित, मतिम वै सालित अति पानिप कलियुग-सा पुं० [सुं०] १ चार युगों में से चोय युा । घरत हैं ।--मतिराम (शब्द॰) । ४ सुदर 1 मधुर । उ०--- २ पापयुग । कोहयुग ।। कति किला किला, मिति मोद उर, भार उदोतनि (शब्द०)। कलियुगाद्या--संज्ञा पुं० [सं०] में घ की पूणिम। जिससे कलियुग कलितरु---संज्ञा पुं० [सं०] १ पापवृक्ष । २ वडा । उ०—-प्रेम का अरिभ हुअा था। कामतरु परिहरत, सेवत फलितरु ठुठ --तुलासो ग० । कलियुगी--वि० [सं०] १ कलियुग का । २ वुरे युग का । कुत्र वृत्तिवाला । जैसे, •-कलियुगी लड़के । पृ० १०६ ।। कलियुग्ग -संज्ञा पुं० [सं० फलियुग] ३० 'कलियुग । उ०—-धन कलित्तर —सच्चा पुं० [सं० कल] दे० 'काम' । उ०—-पुत्र कत्तिर | सुयुग कलियुग धन्य सवत समत्य मनि ।प्रकवरी, पृ० ७॥ भाई वधु ३ ही ठोक जलाही ।--चरण बानी, पू० १०८। " कलिख(@--मण ga कलिखा --सा पु० हि फलस] ३० कलाख' । उ०-एफ कद्विमम-सा पुं० [सं०] बहेड का पेड । भर ई चीजो कहिाव करई नीजी घरी पोवने श्इ नीर! कलिनाथ-सज्ञा पुं० [सं०] संगीत के चार प्राचार्यों में से एक । वी० रासो, पृ० २८ ।