पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३३५

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अलावान कलि* कलावादी दृष्टिकोण से तो इतिहास नही लिखे गए लेकिन न्यूनाधिक मात्रा में एका समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण प्राचार्य शुक्न जी से लेकर भाजतक अपने [ए जाते रहे हैं ।-प्राचार्य ० पृ० २ । २. कन्ना कला के लिये' सिद्धात को माननेवाला । ३०-इसी प्रकार कलावादियों का केवल कोमल और मधुर की नक पकडे ना मनोरजन मात्र की हुचि और दृष्टि की परिस्थिति के कारण समझना चाहिए |-रस०, पृ० ५९ । कलावनि-वि० [सं० फतवान् [ी० कलावती] कलाकुशल । गुणी। कलाविक-संज्ञा पुं० [सं०] कुक्कुट । मुर्गा । कलास' संज्ञा पुं० [सं०] बहुत प्राचीन समय का ए वाजा जिसपर | चमडा चढ़ा रहता है। कलास-सा पुं० [अ० क्लास दज । कक्षा । श्रेणी । कृलास--संज्ञा पुं॰ [देश॰]दो तख्तों के जोड की लकीर -(सश०)। कलाहक-सा पुं० [त०] काहुल नाम का दाजा । कलिंग'--सज्ञा पुं॰ [स० कलिङ्ग] १ मटमैले रग की एक चिडिया जिसकी गरदन ल व अौर लाल तथा सिर भी लान होता है। कुलग। २ कुटज । कुर या । ३ इद्र जौ । ४ सिरिस का पैड । ५ पकर का पेड़ । ६ तरबूज 1 ७, कलिंगड रोग । ८ प्रावन काज़ का एक राजा जो वनि की रानी सुदेष्णा अौर दीर्धनासु झुप के नियोग से उत्पन्न हुग्रा या । ९ एक प्राचीन समुद्र तटमा देश जिमके भज्य का विस्तार गोदावरी अौर वैतरणी नदी के बीच में था । यहाँ के लोग जहाज चलाने में प्रसिद्ध थे। यह राज्य अाधुनिक प्राध का वह भाग था जो कटक से मद्रास तक फैला है । १०. कलिंग देश का निवासी । कलि -वि० १ कलिगे देश का । २ कुशल । चतुरे (को०)। ३ धूर्त (को॰) । कलिगक- सच्चा पुं० [स० केलिङ्गक] १ इंद्रय । इद्रजौ। २. तरबूज । कलिंगड़ा--सा पुं० [सं० फलिङ्ग]एक राग जो दीपक राग का पवित्र पुत्र माना जाता है । इ०--जीवन में आग लगा डान्ने ? हँसकर कलिंगड गाऊँ ? मेरा अतरयामी कहता है, मैं मलार वरमाऊ ।-हिम०, पृ० ४५ । विशेप--यह सुपूर्ण जाति का राग है और रात के चौथे पहर में गाया जाता है। इसमें सातो स्वर लगते हैं इसका म्वरपाठ इस प्रकार है : म ग रे नी सा रे ग म प ध न ना । +लग[सा पुं० [देश॰] तेवरी नाम का १४ जिसकी छाला रेचक | होता है । केलिज-सज्ञा पुं॰ [सं० फलिञ्ज] नरकट नाम की घास । २ चटाई (को०)। ३ परदा (को॰) । कलिजर- सूझा पुं० [स० कालिञ्जर] ३० कालिंजर' । कलिद- सुज्ञा पुं० [सं० कलिन्द] १ बहेडा। सूर्य । ३ पर्वत जिससे यमुना नदी निकलती है। यौ०--कलिंदकन्या, कलिवतनया, कलंदनदिनों लिदसुता= दे० 'कदिजा' ।। कलिदेजा--सज्ञानी० [स० कलिन्द + जा]र मुना नदी जा कदि नामक पर्वत से निकली है । उ०—कूला कनिदजा के सुबमूल लतान के वृदै वितान तने हैं।-- भखरीदास (शब्द०)। कलिदी--संज्ञा स्त्री० [सं० कालिन्वी] दे॰ 'कालिदी' । उ०---तुव कदर कदद के मुलानि । दुरत हैं जाइ क नदी कहानि ।-नद० ग्र०, पृ० २६० । कलिद्र-संज्ञा पुं० [सं० कलिन्द दे० 'कदि ३' । ३०–जनु कलिद्र गिर सूर सुहःवई ।-प॰ रा॰, पृ० ११२।। कलि-सज्ञा पुं० [सं०] १ वडे का फटा या बीज । विशेष वामन पुराण में ऐसी कथा है कि जब दमयनी ने ना के गले में जयमाल हाती, तब क ल चितुकर ना से बदला देने के लिये वहेई के पेड़ों में बहा गया, इससे बहेडे का नाम 'क ' पड़ा । | २ पासे के खेत में वह गोटी जो उठी न हो । उ०—कति [नामक पामा] सो गया है, द्वापर स्थान छोड चुकी हैं, त्रेता अ- खड़ा है, कृते चल रहा है। तेरी सफलता की स भावना है] परिश्रम करता जा --भा० प्रा० लि०, पृ० ११ ।। विशेष—ऐतरेय ब्राह्मण से पता रागना है कि पहले प्रायं लोग | बहेड़े के फों से पामा खेाते थे । ३ पामे का वह पाश्र्व जिसमें एक ही विदी हो । ४, काह। विवाद। भगडी । ५. पाप । ६ चार युगों में से चौया युग जिसमे देवता के १२०० वर्ष या मनुष्य के ४३२००० वर्ष होते हैं। विशेष-पुराणों के मत से इसका प्रारभ ईसा से ३१०२ वर्ष से पूर्व माना जाता है । इममे दुरावार और अधर्म की अधिकता कही गई । ७ छद में टगण का एक भेद जिसमे क्रम से दो गुरु ग्रौर दो लघु होते हैं (si)। ८ पुराण के अनुसार क्रोध का एक पुत्र जो हिंसा से उत्पन्न हुआ था। इसकी बहन दुरुक्ति और दो पुत्र, भय और मृत्यु हैं। ६ एक प्रकार के देव गधवं जो कश्यप और दक्ष की कन्या से उत्पन्न हैं । १० शिव का एक नाम । ११ सूरमा । वीर। जवमिदं । १२ तरकन । १३. क्लेश । दुख। १४ सग्राम । युद्ध। उ०— कलि कलेज्ञ कहि शूर मा कति निपंग मग्राम । कलि कलियुग यह और नहि केवल केशव नाम --नददाम (शब्द॰) । यौ-कलकर्म= संग्राम । युद्ध । कल वि० श्याम । का। उ०पेवेत साला परे युग युग में । भै कहि अादि कृष्ण कलियुग में ।-गोपाल (शब्द॰) । कलि-क्रि० वि० [सं० कल्य) दे० 'का'। उ०—तुबे कई कुअर मामत सम, कलि अापेटक रंग । भय सुरममै एक भल, ग्रास ही में गर्ग 1-पृ० रा०, ६५१४१ । कलि-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. की । उ०-*-जै| नव ऋतु नन कति कुला नव नद अजलि ।-अर्चना, पृ० २५ । २. वीणा की। भू (को०)। । । ३ ।