पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३३३

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फुलावर ६४७ कैलावा कलाधर संज्ञा पुं० [सं०] १ चंद्रमा । उ०—यह समता क्यों कर बनाई जाती है । १७ आमरण । जेवर ! भूपण। १८, बनत मो कर मुखे मृदु गात । कमल कलाधरे कनक लखि कवि अर्धचंद्राकार गहना। चंदन । त्रैल कहत लजात '--स० सप्तक, पृ० ३८४ । २ दशक छद का कलापपु-संवा पुं० [हिं० कलपना] यथा । दु ख । क्लेश । एक भेद जिनके प्रत्येक चरण में एक गुरु, एक लघु, इस क्रम से ३०अबही भेनी हेकभी कर ही करई कलाप । कहियउ १५ गुरु और १५ लघु हो कर अत में गुरु होता है। जैसे, लोप सौमिक, सृदरि लहाँ सराप - ढोला०, ६० ३२३ । जाय के भरत्य चित्रकूट राम पाम बेनि, हाय जोरि दीन & कलापक-सज्ञा पु०[स०]१ समूह ! २ पुला। गट्ठा । ३ हाथी के सुप्रेम ते विनै करी । मोय तात मात कौशिला वशिष्ठ अदि गले का रस्सा। ४ चार श्लोकों का समुह जिनका अन्वये एक पूज्य लोक वेद प्रीति नीति की सुरीति ही धरी । जान भूप में होता है । ५ वह ऋण जो मयूरो के नाचने पर अर्थात् वैन धर्म पाल राम ह्व संकोच धीर दे गंभीर वधु की गलानि वर्षा ऋतु मे चुकाया जाय । ६. मोतियो को लडो (को०) । को हरी । पादुका दई पठाय अव को समाज साज देख नेह | ७ मेखला । करधनी (को०) । ललाट पर अकित तीप्रदायिक राम सीए के हिये कृपा मरी (शब्द०)। ३ शिव । ४. | चिह्न या लक्षणविशेष (को०)। कलाग्री को जाननेवाला 1 वह जो कला का ज्ञाता हो । कलापट्टी--संज्ञा स्त्री० [पुर्त ० कलफेटर] जहाज की पटरियों की उ०--कविकुल विद्याधर सुकून कलाधर राज राज वर वेश | दर्ज में सन आदि ठूसने का काम !-(लश०) । दने ।--केशव (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना । कलनक-सज्ञा पु० [३०] शिव के गण का नाम । केलापति सुज्ञा पुं० [सं०] चद्रमी । उ०—हम प्रणय की सूदप मुखछवि कुलाना --क्रि० अ० [प्रा० कल =आवाज करना बोलना । देख ले, लोल लहरो पर कलापति से लिखी।–प्रयि, पृ०६५। चिल्लाना । उ ०-मारू मारू कलाइयाँ उज्वल दती नारि । कलापद्दीप-सज्ञा पुं० [सं०] १ कलाप ग्राम । हुसन इ दे करइङ, विडउ फूटण हारि।--ढोला दू०६११ । विशेष—भागवत के अनुसार यहाँ सोमवशी देवपि और सूर्यवंशी कलानाथ-सज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । उ०—- यह लघु लहरो को सुदर्शन नाम के दो राजपि तप कर रहे हैं। कलियुग के अंत विकास है फलानाथ जिसमें विच अता --सु० पृ० ३४१ ।। मैं फिर इन्हीं दोनो राजर्पियो से चुद्र और सूर्य वंश चलेगा। २ एक गधर्व का नाम जिसने सगीताचार्य सोमेश्वर से संगीत २. कातत्र व्याकरण पर एक भाष्य का नाम । सीखा था । कलापशिरा--संज्ञा पुं० [स० कलापरिस्] एक मुनि का नाम । कलानिवि-मज्ञा पु० [ई०] चंद्रमा । कलापा--सृज्ञा स्त्री० [सं०] अगहार (नृत्य) में वह स्थान जहाँ तीन कलानिपुण–वि० [सं०]कलाकुशल । कलाप्रवीण 1 कला का ज्ञाता। । करण हो । उ०—कवि को कलानिपुण और सहृदय दोनो होना कलपिनी--संज्ञा स्त्री० [सं०] २ रात्रि । २ नागरमोथा । ३ मयूरी । चाहिए --रस०, पृ॰ ६६ । | मोरनी । कलान्यास सज्ञा पुं० सं०] तंग का एक न्यास जो यिष्य के शरीर कलापो'-सज्ञा पुं॰ [सं० फलापिन्] [चौ० कलापिनी] २. मौर। पर किया जाता हैं। उ०---पड़े परे पापी ये कलापी निस यो ज्यौही, चातक । विशेप--इसमे शिष्य के पैर से घुटने तट ॐ निवृत्यै नमः, घुटने घातक र ही तू हू कान फोरि लै ।-घनानंद, पृ० ८७ । २ से नाभि तक 'ॐ प्रतिष्ठायै नम.', नाम से कठ तक 'ॐ विद्यायै कोकिल । ३ बरगद का पेड । ४. वेश पायन का एक शिष्य । नम', कंठ से ललाट तक ॐ सत्यं नम' और ललाट से ५. मयूर के नृत्य का समय (जब मयूर अपनी पूछ के पंखो ब्रह्मर तक ॐात्यतीतायैनम' कहकर न्यास करते हैं और फिर इस क्रिया को सिर से पैर तक स्टा दोहराते हैं । को फैलाती है) (को॰) । कुलाप'.-सच्चा पुं० [सं०] १ समूह । झड । जैसे,—-क्रियाकलाप । कलापो'---वि• १ तूणीर देवि हुए। तरकावद। २ कलाप व्याकरण २०-को कबि को छवि को बरनै रचि राखनि अंग सिंगारे पढ़ी हुआ।। ३ झुड में रहनेवाला । ४ पूछ या दुम फैलानेक्लोपन ।---घनानंद, पृ० ३९ । २. मोर की पूछ। ३. पूला । | वाला (मोर) (को०)। मुटठा । ४, बाए 1 ५ तुण । तुरकर । ३ कमरवद । पेटी ७. कलावतून-सा वि० [हिं० कलावा दे॰ 'कलाबत्त'। कर घनी 1 ६ चद्रमा । ६ केलावा । १० कात व्याकरण, कलावतूनी–वि० [तु० कलावतून कलावत्त का बना हुआ । जिसके विपय में कहा जाता है कि इसे कातिकेय ने शव॑वमन कलावतृ--संज्ञा पु० [तु० कलावतून] [वि॰ कलावतूनी] २. को पढ़ाया था । ११ व्यापार । १२ वह ऋण जो मयूर के सोने चांदी अादि का तार जो रेशम पर चढ़कर बेटा जाय । नाचने पर अर्यात वप में चुकाया जाय । १३. एक प्राचीन २. सोने चांदी के कल वा का बना हुआ पतला फीता जी गाँव जहाँ भागवत के अनुसार देवपि और सुदर्शन तप करते हैं। लचके से पतला होता है और कपड़ों के किनारो पर टाँका इन्हीं दोनों राजपियो से युगातर में सोमवशी और सूर्यवंशी जाता है। ३ सोने चांदी का तार । क्षत्रियों की उत्पत्ति होगी । १४ वैद की एक शाखा । १५ कलाव-सज्ञा पुं० [अ०] दे० 'कलावा' । एक अर्घ चदाकार अस्त्र का नाम । १६. एके सकर रागिनी जो कुलावाज-वि० [हिं० कला+फा० वाज] कुलाबाजी करनेवाल। बिलावले, मल्लार, कान्हा और नई आग को मिल किर नदक्रिया करनेवाला । कलैया लगानेवाला ।